gurumantra by munshi premchand
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घर के कलह और निमंत्रणों से पंडित चिन्तामणिजी के चित्त में वैराग्य उत्पन्न हुआ और उन्होंने संन्यास ले लिया, तो उनके परम मित्र पंडित मोटेराम शास्त्री ने उपदेश दिया- मित्र, हमारा अच्छे-अच्छे साधु-महात्माओं से सत्संग रहा है। यह जब किसी भलेमानस के द्वार पर जाते हैं, तो गिड़गिड़ाकर हाथ नहीं फैलाते और झूठमूठ आशीर्वाद नहीं देने लगते कि ‘नारायण तुम्हारा चोला मस्त रखे, तुम सदा सुखी रहो।’ यह तो भिखारियों का दस्तूर है। संत लोग द्वार पर जाते ही कड़ककर हाँक लगाते हैं, जिससे घर के लोग चौंक पड़ें और उत्सुक होकर द्वार की ओर दौड़े। मुझे दो-चार वाणियाँ मालूम हैं, जो चाहे ग्रहण कर लो। गुदड़ी बाबा कहा करते थे- ‘मरें तो पाँचों मरें।’ यह ललकार सुनते ही लोग उनके पैरों पर गिर पड़ते थे। सिद्ध भगत की हाँक बहुत उत्तम थी- ‘जाओ, पियो, चैन करो, पहने गहना, पर बाबाजी के सोंटे से डरते रहना। जगा बाबा कहा करते थे- दे तो दे, नहीं दिला दे, खिला दे, पिला दे, सुला दे।’ यह समझ लो कि तुम्हारा आदर- सत्कार बहुत कुछ तुम्हारी हाँक के ऊपर है। और क्या कहूँ? भूलना मत। हम और तुम बहुत दिनों साथ रहे, सैकड़ों भोज साथ खाए। जिस नेवते में हम और तुम दोनों पहुँचते थे, तो लाग डाट से एक दो पत्तल और उड़ा जाते थे। तुम्हारे बिना अब मेरा रंग न जमेगा, ईश्वर तुम्हें सदा सुगन्धित वस्तु दिखाए।

चिन्तामणि को इन वाणियों में एक भी पसंद न आयी। बोले-मेरे लिए कोई वाणी सोचो।

मोटेराम- अच्छा, यह वाणी कैसी है कि ‘न दोगे तो हम चढ़ बैठेंगे।’

चिंतामणि- हाँ यह मुझे पसंद है। तुम्हारी आज्ञा हो, तो इसमें काट-छाँट करूँ।

मोटेराम- हाँ, हां, करो।

चिन्तामणि- अच्छा, तो इसे इस भांति रखो-न देगा तो हम चढ़ बैठेंगे।

मोटेराम-(उछलकर) नारायण जानता है, यह वाणी अपने रंग में निराली है। भक्ति ने तुम्हारी बुद्धि को चमका दिया है। भला, एक बार ललकार कर कहो तो देखें कैसे कहते हो।

चिन्तामणि ने दोनों कान उँगलियों से बंद कर लिये और अपनी पूरी शक्ति से चिल्लाकर बोले- न देगा तो चढ़ बैठूंगा। यह जादू ऐसा आकाशभेदी था कि मोटेराम भी सहसा चौंक पड़े। चमगादड़ घबराकर वृक्षों पर से उड़ गए, कुत्ते भौंकने लगे।

मोटेराम- मित्र, तुम्हारी वाणी सुनकर मेरा तो कलेजा काँप उठा। ऐसी ललकार कहीं सुनने में न आयी, तुम सिंह की भांति गरजते हो। वाणी तो निश्चित हो गई, अब कुछ दूसरी बातें बताता हूँ, कान देकर सुनो। साधुओं की भाषा हमारी बोलचाल से अलग होती है। हम किसी को आप कहते हैं, किसी को तुम। साधु लोग छोटे- बड़े, अमीर-गरीब, बूढ़े-जवान, सबको तू कहकर पुकारते हैं। माई और बाबा से सदैव उचित व्यवहार करते रहना। यह भी याद रखो कि सादी हिंदी कभी मत बोलना, नहीं तो मरम खुल जायेगा। टेढ़ी हिंदी बोलना। यह कहना कि ‘माई मुझको कुछ खिला दे’ साधुजनों की भाषा में ठीक नहीं है। पक्का साधु इसी बात को यों कहेगा- माई मेरे को भोजन करा दे, तेरे को बड़ा धर्म होगा।

चिन्तामणि- मित्र, हम तेरे को कहां तक जस गायें। तुमने मेरे साथ बड़ा उपकार किया है।

यों उपदेश देकर मोटेराम विदा हुए। चिंतामणि आगे बढ़े तो क्या देखते हैं कि एक गाँजे-भाँग की दुकान के सामने कई जटाधारी महात्मा बैठे हुए गाँजे के दम लगा रहे हैं। चिंतामणि को देखकर एक महात्मा ने अपनी जयकार सुनायी- चल-चल, जल्दी ले के चल, नहीं तो अभी करता हूँ बेकल।

एक दूसरे साधु ने कड़ककर कहा-अ-रा-रा-रा-धम, आय पहुँचे हम, अब क्या है गम।

तभी यह कड़ाका आकाश में गूंज ही रहा था कि तीसरे महात्मा ने गरज कर अपनी वाणी सुनाई- देस बंगाला, जिसको देखा न भाला, चटपट भर ले प्याला। चिन्तामणि जी से अब न रहा गया। उन्होंने भी कड़ककर कहा- न देगा तो चढ़ बैठूंगा।

यह सुनते ही साधुजन ने चिन्तामणि का सादर अभिवादन किया। तत्क्षण गाँजे की चिलम भरी गई और उसे सुलगाने का भार पंडितजी पर पड़ा। बेचारे बड़े असमंजस में पड़े। सोचा, अगर चिलम नहीं लेता, तो अभी सारी कलई खुल जायेगी। विवश होकर चिलम ले ली, किन्तु जिसने कभी गाँजा न पिया हो, वह बहुत चेष्टा करने पर भी दम नहीं लगा सकता। उन्होंने आंखें बंद करके अपनी समझ में तो बड़े जोर से दम लगाया। चिलम हाथ से छूटकर गिर पड़ी, आंखें निकल आई, मुँह से फिचकुर निकल आया, मगर न तो मुँह से धुएँ के बादल निकले, न चिलम ही सुलगी। उसका यह कच्चापन उन्हें साधु-समाज से च्युत करने के लिए काफी था। दो-तीन साधु झल्लाकर आगे बढ़े और बड़ी निर्दयता से उनका हाथ पकड़कर उठा लिया।

एक महात्मा- तेरे को धिक्कार है!

दूसरे महात्मा- तेरे को लाज नहीं आती? साधु बना है, मूर्ख।

पंडितजी लज्जित होकर समीप की एक हलवाई की दुकान के सामने जा बैठे और साधु-समाज ने खंजड़ी बजा-बजाकर यह भजन गाना शुरू किया-

माया है संसार संवलिया, माया है संसार,

धर्माधर्म सभी कुछ मिथ्या, यही ज्ञान व्यवहार,

संवलिया, माया है संसार।

गांजे, भंग को वर्जित करते, है उन पर धिक्कार,

संवलिया, माया है संसार।

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