नीलाद्रि प्रतिदिन की भांति तैयार हुई और अपनी दुपहिया लेकर चल पड़ी। यह उसका नियम ही था। वह पति के कार्यालय जाने के बाद सीधे यहीं आती थी। साथ में वह थैला भी था जिसे सब जादू का पिटारा कहते हैं। वो इसलिए कि उसमें से कब क्या निकल आए, किसी को पता नहीं होता। वह पिछले बारह वर्षों से यहां आ रही है। जब तक बच्चों की पढ़ाई-लिखाई थी वह उन्हीं में उलझी रहती थी। मन तब भी होता था कि किसी एक चेहरे पर तो उसके कारण खुशी आए पर वह बेबस थी, बच्चे उसकी प्राथमिकता थे। जब बेटे का चयन आईआईटी में हुआ तो सेवा का पुनीत कार्य करने के बारे में गंभीरता से विचार करने लगी। बेटी मेडिकल के तृतीय वर्ष में जबलपुर में पढ़ाई कर रही थी। दोनों बच्चे भविष्य की ओर अग्रसर थे। उन्हें अपनी-अपनी मंजिल पर पहुंचने में उसने भली भांति सहयोग किया था। उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि कहां से शुरू करे, किंतु सेवा का कार्य करने के लिए किसी सुनिश्चित योजना की आवश्यकता नहीं होती। यह तो दिल की दूसरे के दुखदर्द छू लेने वाली एक अनुभूति है, जो होती तो प्रत्येक इंसान में है परंतु इसकी मात्रा कम या अधिक हो सकती है, जो नीलाद्रि में शायद कुछ अधिक ही थी। वह बचपन में भी अपने खाने का डब्बा मजदूरों के बच्चों को दे आती थी।
एक दिन वह बाजार गई, रास्ते में दो बच्चे दिखे। नंगे पैर और तन पर नाम मात्र के कपड़े। पैरों में बिवाइयां। वह देखती रह गई। उसका ध्यान अपने कपड़ों पर गया। वह गरम कपड़ों की कई परत लगाए थी, तब भी ठंडी हवा अंदर तक चीर कर घुसने को तैयार थी। उसे समझ नहीं आया कि वह क्या करे। वह घर तो आ गई पर अपना मन जैसे उन दोनों के पास छोड़ आई।
काका बोले बहूरानी चाय बना दूं। वह बिना कुछ बोले अंदर चली गई और हाथ-मुंह धोकर बाहर आई। तब तक काका चाय बिस्कुट मेज पर रख चुके थे। उसने चाय तो पी ली पर स्वाद नहीं लगी। वो बच्चे उसके मस्तिष्क पर छाए थे। और शायद मन पर उससे भी कहीं अधिक। कडक़ड़ाती सर्दी और पैरों में चप्पल तक नहीं। शाम के छह बज चुके थे। वह उठी और फिर से बाजार चल दी। तो काका ने कहा, ‘अभी तो आई हैं, थकी लग रही हैं अभी फिर…’ वह काका की बात अधूरी छोड़ बाहर निकल गई। काका को उसने विवाह के समय से ही इस घर में देखा है। इसलिए वे कुछ अधिक ही बोल जाते हैं। वह भी उनका पूरा सम्मान करती है। सासससुर के जाने के बाद वे ही बड़े हैं घर में। वफादार इतने कि कोई अपना भी नहीं होगा। बाजार पहुंच कर उसने जल्दी-जल्दी बच्चों वाली दो जोड़ी चप्पल खरीदी, कुछ गरम कपड़े और बिस्कुट चॉकलेट लेकर घर लौट आई। शैलेष घर आ गए थे, बोले ‘क्या काम था जो इस समय बाजार गई।’
वह कुछ नहीं बोली, बस मुस्कराकर रह गई। वह कभी उसके कामों में दखल नहीं देते। काका डिनर तैयार कर चुके थे। पति के साथ उसने भी खाना खाया और बिस्तर पर आ गए। शैलेष तो टीवी देखकर सो गए, उसकी आंखों से नींद कोसों दूर थी। वह जैसे ही आंख बंद करती, वे बच्चे सामने आकर खड़े हो जाते। सोचते-सोचते न जाने कब आंख लग गई। सुबह उठी तो सूरज चढ़ चुका था। वह भी शैलेष के साथ ही तैयार हो गई। उन्हें कार्यालय भेजकर स्वयं भी निकल पड़ी। उसे अपनी दुपहिया पसंद है। कई बार शैलेष कह चुके हैं कि दो-दो बड़ी गाडिय़ां खड़ी हैं, ड्राईवर को बुलाकर आराम से जाया करो। पर उसे अपनी दुपहिया बड़ी सुविधाजनक लगती है। कहीं भी ले जाओ न पार्किंग की परेशानी न भीड़ का झंझट। हां वह हेलमेट लगाना कभी नहीं भूलती।
चलते-चलते सीधे वहीं पहुंची, जहां कल वे बच्चे मिले थे। पर वे कहां मिलते। वे तो अपनी मस्ती में कहां के कहां निकल गए होंगे। उसने ढूंढऩे की बहुत कोशिश की, पर वे न मिले। हार कर घर लौट आई। आते ही काका दोपहर का भोजन न करने की शिकायत करने लगे, ‘भोजन को कितनी देर कर दी? परेशान हैं क्या?’ वे शायद उसकी निराशा भांप गए थे। नीलाद्रि ने अपनी निराशा का कारण बता ही दिया। वे हंसने लगे। ‘कल सडक़ पर मिले बच्चे आज उसी स्थान पर कैसे मिल सकते हैं। आप भोजन करें, मैं बताऊंगा वे कहां मिलेंगे’, ‘जल्दी बताओ काका, मुझे मिलना है उनसे’ वह बाल सुलभ उत्सुकता से उन्हें देखने लगी। जल्दी से भोजन करके उठ खड़ी हुई, ‘चलो काका।’
काका को अपनी गाड़ी पर ही बैठा कर चल पड़ी। वे पहली बार उसके पीछे बैठे थे। सकुचाहट मन में लिए रास्ता बताने लगे और इस बस्ती के सामने ला कर खड़ा कर दिया। तब से यहां आना उसकी दिनचर्या का अंग बन गया है। रविवार को शैलेष घर में रहते हैं तो वह यहां नहीं आ पाती। हां, सोमवार को यहां पहुंचने की उसे बड़ी जल्दी होती है। वह यहां आकर बच्चों को पढ़ाती है, साफ-सफाई से रहना सिखाती है एवं नैतिक मूल्यों के बारे में समझाती है। जितना भी बनता है, उनकी सहायता करती। यहां आते ही बच्चे उसे घेर लेते हैं। वह थैले में लाए बिस्कुट, कपड़े और कापी-किताब उन्हें देती है। घर में वे दो प्राणी और तीसरे काका। तो खाने की और भी कई वस्तुएं बच जाती हैं, सब यहीं बांट जाता है। इस बीच दोनों बच्चे नौकरी में व्यवस्थित हो चुके थे, दोनों ने मनपसंद जीवन साथी चुने थे।
विवाह जरूर धूमधाम से माता-पिता ने ही किए। बेटी तो विवाह के बाद अमेरिका पहुंच गई थी। बेटा मुंबई में एक बड़ी कंपनी में था और उसी कंपनी में बहू थी। व्यस्तता के चलते सप्ताह में एक दिन ही बात हो पाती। पर नीलाद्रि तो बस्ती के बच्चों में खुश है। शैलेष अगले वर्ष कार्यमुक्त होने वाले थे, सो वह सोचती रहती कि उसे अपनी अलग समय सारिणी बनानी होगी।
उस दिन सुबह से शैलेष अस्वस्थ थे। वह कार्यालय जाने को मना करने लगी पर वे नहीं माने, जल्दी आने का कह कर चले गए। वह भी अपना थैला उठा कर चल दी। उसने बच्चों को पढ़ाना प्रारंभ ही किया था कि फोन आ गया, शैलेष को मस्तिष्क आघात हुआ था। दौड़ती भागती अस्पताल पहुंची। वे बेहोश थे और आपातकालीन वार्ड में थे। वह उनका हाथ थाम कर बैठी रही। काका भोजन लेकर आए और आग्रह भी किया, परंतु उसने मुंह न लगाया।
डॉक्टर लगातार दवाइयां व इंजेक्शन दे रहे थे। डॉक्टर ने अगले अड़तालीस घंटे खतरे के बताए थे। पर वे बीस घंटे में ही चल बसे। वह ठगी सी रह गई। बेटी को आने में चार दिन लग गए। बेटा रात तक आ गया। सुबह अंतिम संस्कार कर दिया गया। बेटी के पहुंचने के बाद वह तेरहवीं की तिथि निकलवाने लगी तो दोनों बहन भाई कहने लगे, ‘मां, आठ दिन की तेरहवीं कर देते हैं। इससे अधिक छुट्टी नहीं मिल पाएगी।’
उसे बड़ी ठेस लगी आज बच्चों के पास पिता के लिए तेरह दिन नहीं हैं। ये कैसी नौकरियां हैं या बच्चों में वो संवेदनाएं ही नहीं रहीं। खैर उसका रुख देख कर तेरह दिन तक दोनों रुके व अगले दिन ही चले गए। उधर बस्ती के बच्चों को खबर लग गई थी। आकर उसके इर्द-गिर्द बैठ गए। वह सुबक पड़ी उनको देख कर, वे और पास सरक आए। मौन सांत्वना भी कितना सुकून देती है।
शैलेष के जाने के बाद काका भी बीमार पड़ गए, बुजुर्ग तो हो ही गए हैं। डॉक्टर को दिखा दिया था। वह स्वयं उनको दवाई दे रही है, दूध-फल का भी पूरा ध्यान रखती है। आउटहाउस से घर के कमरे में ही बिस्तर लगवा लिया है, जिससे उनके खाने-पीने का पूरा ध्यान रख सके। वे उससे सेवा करवाने में शर्म मानते हैं तो वह कहती, ‘काका आपने तो पूरे परिवार की सेवा की है, अब वक्त आया है तो क्या आपको ऐसे ही छोड़ दूं।’ काका दिन पर दिन कमजोर होते जा रहे हैं। दवाइयां भी अब असर नहीं कर रही हैं। नतीजा वही हुआ, वे सोते ही रह गए। सुबह जब चाय लेकर कामवाली गई तो वे नहीं उठे, नीलाद्रि ने जाकर देखा, पर वे तो जा चुके थे। वह उनसे लिपट बहुत रोई, वे उसका आखिरी सहारा थे।
सारी जिंदगी परिवार की सेवा करते देखा था। दोनों बच्चों को खबर की तो उन्होंने आने से मना कर दिया, वही चिर-परिचित बहाना कि छुट्टियां नहीं हैं। बस्ती के बच्चों ने ही सारा इंतजाम किया। मुखाग्नि उसने स्वयं दी। पिता समान ही तो थे वे। अब समस्या थी कि वो अकेले कैसे रहे इतने बड़े घर में। बच्चों से बात की तो वे मकान बेचकर अपने पास बुलाने लगे, जिससे उसने इंकार कर दिया। वह बच्चों के पास तो जा सकती थी, पर मकान बेच कर नहीं। बड़ी कशमकश थी। सुरक्षा कंपनी में बात की तो दिन और रात के चौकीदार का बहुत खर्चा आ रहा था। कामवाली बाई को कहा कि आउट हाउस में आकर रह ले, वह बोली, ‘मेरे पास तो कच्चा घर है, आप आज रख रही हैं, कल न रखा तो वह भी गिर जाएगा, मैं नहीं आ सकती।’ उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था। वह डर के मारे सारी रात सो नहीं पाती थी। बीती रात तो बहुत भयानक थी सारी रात बारिश हुई थी। सुबह जब वह बस्ती गई तो वहां पानी ने हालत खराब कर दिए थे। उसने एक निर्णय लिया। बस्ती के आठ बच्चों को अपने साथ घर ले आई। वह बहुत खुश थी उसका डर और अकेलापन जो दूर हो गया था।
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