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महाकुंभ का वर्णन पुराणों में मौजूद है। इतना ही नहीं ऋग्वेद, अथर्ववेद और यजुर्वेद में भी कुंभ का उल्लेख है। ऋग्वेद में कुंभ का स्पष्ट उल्लेख प्राप्त होता है।
samudra manthan 14 ratnas list : महाकुंभ सदियों से हिंदुओं की आध्यात्मिक और बौद्धिक उपलब्धियां का संगम रहा है। यह सिर्फ उत्सव या आयोजन नहीं है, बल्कि करोड़ों वर्षों से चली आ रही हमारी संस्कृति का हिस्सा है। यह हमारी आध्यात्मिक जड़ों की पकड़ को और मजबूत करने का उल्लास है। कुंभ अपने आप में एक वरदान है, जो हमें देवताओं के अस्तित्व का आज भी एहसास करवाता है। साथ ही यह इस बात का भी प्रमाण है कि हमारे पूर्वज सिर्फ आध्यात्म ही नहीं, गणनों में भी महारथी थे। करोड़ों साल पहले देव–दानव संघर्ष से निकले ‘अमृत कुंभ’ को जागृत करने का महापर्व इस बार प्रयागराज में है। आइए आज करीब से जानते हैं कुंभ को।
पुराण और वेदों में उल्लेख

सबसे पहले जानते हैं कि आखिर कुंभ की शुरुआत कैसे हुई। इसका वर्णन पुराणों में मौजूद है। इतना ही नहीं ऋग्वेद, अथर्ववेद और यजुर्वेद में भी महाकुंभ का उल्लेख है। ऋग्वेद में कुंभ का स्पष्ट उल्लेख प्राप्त होता है। वहीं यजुर्वेद व अथर्ववेद में कुंभ के लिए विशेष प्रार्थना है। वैदिक युग में धार्मिक व सामाजिक उत्सवों को समन कहा जाता था। ये मेलों का ही स्वरूप थे। ऋग्वेद और अथर्ववेद दोनों में समन का कई जगह उल्लेख है। जिसके अनुसार हजारों लोग धार्मिक उद्देश्य से एक तय स्थान पर जुटते थे। ऐसे में पुराणों और वेदों में महाकुंभ का उल्लेख प्राप्त होता है।
ऐसे हुई कुंभ की शुरुआत
माना जाता है कि समुद्र मंथन के दौरान भगवान धन्वंतरि ‘अमृत कुंभ’ को लेकर प्रकट हुए थे। देवताओं के साथ ही दानव भी इस अमृत कुंभ को देखकर प्रसन्न हो गए। दोनों ही इसे पाना चाहते थे। ऐसे में भगवान विष्णु ने अमृत को दानवों से सुरक्षित रखने के लिए देवराज इंद्र के पुत्र जयंत को संकेत दिया कि वह अमृत कुंभ लेकर चले जाएं। भगवान विष्णु की बात मानते हुए जयंत सबकी नजर बचाकर अमृत कुंभ लेकर देवलोक की ओर बढ़ने लगे। लेकिन इस दौरान दानवों के गुरु शुक्राचार्य ने उन्हें देख लिया और देवताओं व दानवों के बीच युद्ध शुरू हो गया। देवताओं ने अमृत कुंभ तो बचा लिया। लेकिन इस संघर्ष में देवलोक में 8 और पृथ्वी लोक में 4 स्थानों पर अमृत की बूंदें गिर गईं। पृथ्वी पर ये 4 बूंदें हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन और नासिक में गिरी थीं। इसलिए इन चारों स्थानों पर महाकुंभ की शुरुआत हुई। माना जाता है कि देवताओं और दानवों के बीच 12 मानवीय वर्षों तक अमृत कुंभ के लिए संघर्ष चला था, इसलिए हर 12 साल पर महाकुंभ का आयोजन होता है।
आखिर क्यों हुआ समुद्र मंथन
अब सवाल यह है कि आखिर समुद्र मंथन की जरूरत ही क्यों पड़ी। इसके पीछे भी एक पौराणिक कथा जो हमें कई सीख देती है। कथा के अनुसार एक समय ऐसा आया जब देवराज इंद्र स्वर्ग के वैभव के कारण अहंकारी हो गए थेे। इसी अहंकार के कारण उन्होंने ऋषि दुर्वासा का अपमान कर दिया। गुस्से में ऋषि दुर्वासा ने इंद्रदेव को ‘श्रीहीन’ यानी वैभव विहीन होने का श्राप दे दिया। श्राप के प्रभाव से स्वर्ग का वैभव, ऐश्वर्या, देवताओं का धन, सब नष्ट हो गया। परेशान देवता भगवान विष्णु के पास मदद मांगने के लिए पहुंचे। तब भगवान विष्णु ने कहा कि श्राप को दूर करने के लिए असुरों के साथ मिलकर समुद्र मंथन करना पड़ेगा। इस मंथन से कई दिव्य रत्नों की प्राप्ति होगी, जिससे स्वर्ग का वैभव लौट आएगा। साथ ही अमृत उत्पन्न होगा, जिससे देवतागण अमर हो जाएंगे। भगवान विष्णु की बात मानकर इंद्रदेव दैत्य राज बलि के पास गए और मंथन की बात रखी। बलि भी रत्न और अमृत चाहते थे। इसलिए वे भी समुद्र मंथन के लिए तैयार हो गए। इसके बाद वासुकी नाग की रस्सी बनाई गई और मदरांचल पर्वत को धूरी बनाकर समुद्र मंथन की शुरुआत की गई। इस दौरान 14 प्रमुख रत्न प्रकट हुए। अंत में भगवान धन्वंतरि अमृत कलक्ष लेकर उत्पन्न हुए। माना जाता है कि समुद्र मंथन कई युगों तक चला था।
समुद्र मंथन से निकले ये 14 प्रमुख रत्न

पहला रत्न : समुद्र मंथन से पहला रत्न निकला था हलाहल विष। तीनों लोकों को सुरक्षित रखने के लिए इस विष को भगवान शिव ने अपने कंठ में धारण किया था।
दूसरा रत्न : मंथन से दूसरे रत्न के रूप में उत्पन्न हुई थी कामधेनु गाय। यह एक पूजनीय, पवित्र और समस्त इच्छाओं को पूर्ण करने वाली गाय थी। इस दिव्य गाय को ऋषि-मुनियों ने अपने पास रखा था।
तीसरा रत्न : उच्चैश्रवा घोड़ा समुद्र मंथन से निकला तीसरा महत्वपूर्ण रत्न था। इसकी खासियत यह थी कि यह मन की गति के अनुसार दौड़ता था। इस घोड़े को दैत्य राज बलि ने अपने पास रखा था।
चौथा रत्न : समुद्र मंथन का चौथा रत्न था ऐरावत हाथी। इसे हाथियों का राजा कहा जाता है। इस सफेद हाथी को देवराज इंद्र ने अपने पास रखा था। इसे सौभाग्य और ऐश्वर्य का प्रतीक माना जाता है।
पांचवां रत्न : कौस्तुभ मणि समुद्र मंथन से निकला पांचवां अद्भुत रत्न थी। कौस्तुभ का अर्थ है उत्कृष्ट रत्न जो कमल के रंग का है। इस दिव्य मणि को भगवान विष्णु ने अपने हृदय में धारण किया था।
छठा रत्न : ‘कल्पवृक्ष’ मंथन के दौरान निकला छठा रत्न है। दिव्य कल्पवृक्ष को देवताओं ने स्वर्ग में लगाया था। इस वृक्ष को इच्छा पूर्ति करने वाला माना जाता है।
सातवां रत्न : समुद्र मंथन के दौरान ही अप्सरा रंभा उत्पन्न हुई थीं। इस दिव्य सुंदरी को देवताओं ने अपने पास स्वर्ग में रखा था।
आठवां रत्ना : देवताओं और असुरों के समुद्र मंथन के दौरान आठवें रत्न के रूप में प्रकट हुई थीं देवी लक्ष्मी। देवी लक्ष्मी ने भगवान विष्णु का वरन किया था।
नवां रत्न : समुद्र मंथन के दौरान नौवां रत्न था वारुणी देवी। वारुणी का अर्थ होता है मदिरा। असुरों ने वारुणी देवी को अपने पास रखा था।
दसवां रत्न : भगवान शंकर के मस्तक पर विराजित चंद्र समुद्र मंथन से निकला दसवां रत्न है।
ग्यारहवां रत्न : पारिजात वृक्ष भी समुद्र मंथन से प्रकट हुआ था। माना जाता है कि इस दिव्य वृक्ष की शक्ति से थकान दूर होती है। हरिवंश पुराण में भी इस वृक्ष का उल्लेख है। इस वृक्ष को देवताओं ने स्वर्ग में रोपा था।
बारहवां रत्न : यश और विजय का प्रतीक पांचजन्य शंख मंथन के दौरान निकला था। इस शंख को भगवान विष्णु ने अपने पास रखा था।
तेरहवां और चौदहवां रत्न : समुद्र मंथन के दौरान निकले सबसे अहम रत्नों में शामिल थे भगवान धन्वंतरि और अमृत कलश। भगवान धन्वंतरि आरोग्य के देवता हैं। माना जाता है कि भगवान विष्णु ने मोहनी अवतार लेकर देवताओं को अमृत पान कराया था।
