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उफ! ये मुस्कुराहटें – गृहलक्ष्मी कहानियां

हसीनों की मुस्कुराहटों पर तो ज़माना निसार रहता है, लेकिन कुछ मुस्कुराहटें ऐसी भी होती हैं, जो अच्छे-अच्छों को रुला देती हैं। जानिए, कुछ ऐसी ही मुस्कुराहटों के बारे में।

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नकाब – गृहलक्ष्मी कहानियां

सर्दियों की कोमल और गुनगुनी सुबह थी। दोपहर होने को चली थी पर अभी भी शरीर में कपकपी दौड़ रही थी। जिस प्रकार नई नवेली दुल्हन का घूंघट से चेहरा देखने को सब लालायित रहते हैं उसी प्रकार सूर्य के दर्शन के लिए सभी बहुत तत्पर है। मैं अखबार की ताजा खबरों का आनंद ले ही रहा था कि श्रीमती जी चाय का कप लेने आई और बोली-” क्या आप भी सुबह सुबह अखबार ले बालकनी में बैठे रहते हैं,” और मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही चलती बनी। सुबह-सुबह उन्हें काम ही कितने रहते हैं और यदि वह प्रतीक्षा करती भी तो मैं शायद उन्हें सही सही उत्तर नहीं दे पाता। उन्हें कैसे बताता कि वह यहां किसे देखने के लिए बैठता है, पर आज जैसे उनके दर्शन नहीं होंगे ऐसा ही लगता है ।

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माँ को मिली नई पहचान – गृहलक्ष्मी कहानियां

ऊपर वाले कमरे से जोर की आवाज़ आ रही थी। आज फिर से ओजस्वी ने अपने पापा को कहते सुना, ” एक मामूली हाउसवाइफ हो तुम. तुम्हे क्या पता कि कामकाजी इंसान के ज़िन्दगी में कितनी व्यस्तता होती है. तुम्हे तो दिनभर खा कर घर मे ही पड़े रहना होता है। तुम क्या जानो पैसे कमाने में कितनी मेहनत करनी होती है”. माँ हमेशा की तरह चुप थी और ओजस्वी हतप्रभ।

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आते-जाते यायावर – गृहलक्ष्मी कहानियां

कभी सोचा भी नहीं था महज़ मज़ाक में कही हुई बात ऐसा मोड़ ले लेगी। मोड़, और इस शब्द पर मुझे खुद ही हँसी आने लगी। मेरी जिंदगी में अब न कोई उतार-चढ़ाव आएगा, न मोड़। वह ऐसे ही रहेगी; सीधी, सहज और सपाट।

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क्षय – गृहलक्ष्मी कहानियां

सावित्री के यहाँ से लौटी तो कुंती यों ही बहुत थका हुई महसूस कर रही थी। उस पर टुन्नी के पत्र ने उसके मन को और भी बुरी तरह मथ दिया। पापा को भी दो बार खाँसी का दौरा उठ चुका था। वह जानती थी कि वे बोलेंगे कुछ नहीं, पर उनका मन कर रहा होगा कि टुन्नी को वापस बुला लें। रात में लेटी तो फिर उसी पत्र को खोलकर पढ़ने लगी।

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दरार भरने की दरार – गृहलक्ष्मी कहानियां

मैंने घर में सबको मना कर दिया था कि जब श्रुति दी आएँ तो उस समय कमरे में कोई नहीं आएगा। छोटे भाई-बहनों को इस बात की कतई तमीज़ नहीं है। कोई भी मेरे पास आएगा, तो आनेवाले के आस-पास वे इस प्रकार मँडराएँगे, गोया वह उन लोगों से ही मिलने आया हो।

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श्मशान- गृहलक्ष्मी कहानियां

तीन वर्ष बीत गए। इन तीन वर्षों में दोनों एक-दूसरे के कितने निकट आ गए थे, इस बात का अहसास ही उन्हें उस दिन हुआ, जब ललित के विदेश जाने की बात निश्चित हो गई। बड़े जोश के साथ सारा घर तैयारी में जुट गया।

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चश्मे – गृहलक्ष्मी कहानियां

बरामदे के दरवाजे के आखिरी ताले को झटका देकर जब मिसेज वर्मा आश्वस्त हुई, तो भीतर ड्राइंग-रूम की घड़ी ने साढ़े ग्यारह बजे का एक घंटा बजाया। बीच में रखी हुई ड्रेसिंग टेबल से उन्होंने दूध का गिलास उठाया तो काली-सी परछाई शीशे में उस समय तक दिखाई देती रही, जब तक वे बरामदे की आखिरी सीढी उतरीं।

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वापसी – गृहलक्ष्मी की कहानियां

रात के 10:00 बज चुके थे ।सड़क छोड़कर रमेश धीरे धीरे पुल की तरफ बढ़ रहा था। सामने पुल नजर आ रहा था। रमेश ने एक बार जी भर कर उस सड़क को देखा, कितनी यादें जुड़ी हैं इस सड़क के साथ। इस सड़क के इस पार कुछ ही दूर पर तो उसका घर था और दूसरी ओर स्कूल ।हालांकि स्कूल भी थोड़ा दूर ही था, लेकिन उस की बिल्डिंग इतनी बड़ी थी, कि दूर से ही नजर आती थी।

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रानी माँ का चबूतरा – गृहलक्ष्मी कहानियां

आज रात को जब चबूतरे पर बैठक लगी तो औरतों की चर्चा का विषय पूर्णिमा को होनेवाला आयोजन था। कौन क्या पहनेगी, पूजा की थाली में क्या ले जाएगी, क्या मनौती मानेगी आदि बातों पर चर्चा हो रही थी कि रामी अपनी छोटी बहिन धन्नी को लेकर पहुँची। बूढ़े काका ने अपनी चिलम दूसरे के हाथ में थमाते हुए कहा, ‘बड़ी देर कर दी रामी। शायद बहिन की खातिर में लगी थी।’

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