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जरिया – गृहलक्ष्मी कहानियां

आखिर नंबर घुमाते ही कान चोंगे से सट जाते हैं । घंटी बज रही है । ‘हलो’ भी होने लगी । निगम ‘हलो’ को बहुत खींचते हैं…मगर प्रत्युत्तर में वह कुछ खींचती-सी खामोश हो आई । यूं…यूं मजा नहीं आएगा । फोन उसके चेहरे पर थिरकते इंद्रधनुष को अभिव्यक्त नहीं कर पाएगा । उसकी उत्तेजक खुशी मात्र सूचना बनकर रह जाएगी ।

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त्रिशंकु – गृहलक्ष्मी कहानियां

‘घर की चहारदीवारी आदमी को सुरक्षा देती है, पर साथ ही उसे एक सीमा में बाँधती भी है। स्कूल-कॉलेज जहाँ व्यक्ति के मस्तिष्क का विकास करते हैं, वहीं नियम-कायदे और अनुशासन के नाम पर उसके व्यक्तित्व को कुंठित भी करते हैं…. बात यह है बंधु, कि हर बात का विरोध उसके भीतर ही रहता है।’

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परिणति – गृहलक्ष्मी कहानियां

दर्शन पढ़ाते-पढ़ाते वह ‘स्थित’ प्रज्ञ हो चुकी थी। वो दशा जिसमें ना कोई कामना-तृष्णा मन को भटका सकती है और ना ही कोई सुख-दुःख उसके प्रण को डिगा सकते हैं। स्वनियंत्रण इसी को कहते हैं। इसी पर तो सुधा को गर्व था। जो कुछ उसने भुगता था शायद उसकी परिणति भी यही होनी थी।