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bhootnath by devkinandan khatri

आधी रात का समय है, चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ है, सिर्फ गली-कूचों में कभी-कभी पहरा देने वालों की आवाज ‘जागते रहियो, होशियार रहियो’ सुनाई दे जाती है। जमानिया तिलिस्म के दारोगा साहब भी, जिनका दिमाग तरह-तरह के तरद्दुदों का शिकार हो रहा है बहुत देर तक जाग कर और सैकड़ों करवटें बदल कर अब सो गये हैं अगर थोड़ी-थोड़ी देर में उनका शरीर चौंक जाता और क्षण-भर के लिए निद्रा भंग हो जाती है।

भूतनाथ नॉवेल भाग एक से बढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें- भाग-1

जिस कमरे में दारोगा साहब सो रहे हैं वह बहुत ही खूबसूरती के साथ बेशकीमत सामान से सजा हुआ है। चारों तरफ की दीवारों पर बहुत अच्छा रंगसाजी का काम किया हुआ है, दरवाजों पर किमख्वाब के पर्दे पड़े हुए हैं, मौके-मौके पर दीवारों के साथ बिल्लौरी दीवारगीरें लगी हुई हैं, तथा छत के साथ बेशकीमत कन्दीलें और झाड़ लटक रहे हैं, आलों पर सुन्दर जड़ाऊ गुलदस्ते सजाए हुए हैं जिनमें रखे हुए खुशबूदार फूल-पत्तों के गुच्छे तमाम कमरे की मुअत्तर कर रहे हैं। इस समय यहाँ रोशनी बहुत कम है क्योंकि सिर्फ दो ही तीन दीवारगीरों में काफूरी मोमबत्ती जल रही है।

कई घंटे तक बेआरामी की नींद लेने के बाद दारोगा चौंक कर जाग पड़ा और उठकर चारपाई के ऊपर बैठ गया। उसे ऐसा मालूम हुआ मानो उसके पैर में किसी जानवर ने काट लिया परन्तु उठकर बैठ जाने पर उसके कमरे की अवस्था देखकर वह घबड़ा गया और आँखें फाड़ चारों तरफ देखने लगा। उसने देखा कि जिन दीवारगीरों में काफूरी बत्तियाँ जल रही थीं वे बुझी हुई हैं और सिर्फ एक बत्ती जल रही है मगर उस पर भी किसी ने स्याह चादर या इसी तरह की कोई चीज डाल दी है जिससे रोशनी बहुत गंदली हो रही है यहाँ तक कि कमरे की चीजें साफ नहीं दिखाई देती।

दारोगा के दिल में एक प्रकार का डर पैदा हो गया और उस समय तो उसका कलेजा और भी उछलने लग गया जब उसे कमरे के कोने में कोई स्याह रंग की मूरत धुंधली-सी दिखाई दी।

नि:सन्देह पापियों का हृदय बड़ा ही छोटा, बहुत ही कमजोर और अत्यन्त डरपोक होता है। दारोगा कोई बहादुर आदमी नहीं था, बहादुर लोग ऐसे नीच कामों को पसन्द नहीं करते जिन्हें दारोगा ने अपना नित्यकर्म ही समझ रखा था। दारोगा केवल चालाकी और दगाबाजी से अपना काम निकालता था। यद्यपि किसी की जान लेने के विषय में वह बड़ा ही निर्दय था परन्तु इस काम में उसका दिल उन बहादुरों का-सा न था जो लड़ाई के मैदान में खुल्लमखुल्ला लड़कर दुश्मनों का सिर काटते हैं बल्कि उसका दिल उन पापियों का-सा था जो केवल लाभ के लिए निर्दोष पुरुषों को अँधकार के समय छिपकर मारते हैं या जहर से किसी की जान लेकर छिपे फिरते हैं और डरते हैं कि हमारा यह भेद किसी पर खुल न जाय । इन दोनों दिलों में जमीन-आसमान का फर्क है, मगर इससे भी बढ़ कर उस आदमी का दिल पापमय और कमीना है जो अपने मालिक के साथ नमकहरामी और राजा के साथ दगाबाजी करता है। शंकरसिंह के साथ दगाबाजी करके और उनको जमीन के अन्दर दफन करके दारोगा का दिल बहुत ही घबड़ाया और बेचैन हुआ। उसे दिन-रात की साठ घड़ियों में से कोई बेफिक्री की नसीब नहीं होती थी। शंकरसिंह की लाश को जमीन के अन्दर पहुँचाने के बाद दूसरे दिन वह दरबार में राजा साहब के पास गया परन्तु उसके दिल में घंटे-भर भी उसे बैठने की इजाजत न दी। राजा साहब के मुँह से एक दफे केवल इतना ही निकल गया, “आज भैया राजा नहीं दिखाई दिये, क्या मामला है!” बस दारोगा के हवास जाते रहे और वह सरदर्द तथा बीमारी का बहाना करके वहाँ से चलता बना। घर आने पर भी उसका दिल बड़े बेचैनी के साथ गुजरा और रात को जब वह खा-पीकर सोने के लिए अपने पलंग पर गया तो बड़ी मुश्किल से उसे नींद आई। दूसरा दिन भी उसका उसी तरह बेचैनी के साथ कगुजरा और वह राजा साहब के पास दरबार में न जा सका। सिर्फ अपनी बीमारी का संदेश कहला भेजा। वहाँ आज भी शंकरसिंह के न होने से बड़ी बेचैनी फैली हुई थी और सैकड़ों आदमी उनकी खोज में चारों तरफ भेजे जा चुके थे। रात्रि के समय आज भी दारोगा भी वही दशा रही अर्थात् बड़ी कठिनता से नींद आई और किसी कारण से जब उसकी आँख खुली तो उसने वही कैफियत देखी जो हम ऊपर कह चुके हैं।

धुंधली-सी स्याह रंग की मूरत देखकर वह डर गया। अपने सिरहाने से उसने तलवार उठा ली और कुछ देर तक एकटक उसी मूरत की तरफ देखता रहा। अब वह मूरत हिलती दिखाई दी और फिर धीरे-धीरे दारोगा की तरफ बढ़ने लगी यहाँ तक कि चारपाई के पास आकर खड़ी हो गई। इस बीच में दारोगा ने कई दफे उठ कर चारपाई के नीचे खड़े होने की कोशिश की मगर कृतकार्य न हुआ, अर्थात् उसके पैरों ने उसे हिलने की इजाजत न दी, मालूम हुआ कि जैसे पैरों में कुछ दम नहीं रह गया है। इस कैफियत से दारोगा का डर और भी बढ़ गया तथा वह घबड़ाना-सा एकटक उस मूरत की एक तरफ देखने लगा क्योंकि उसे ऐसा मालूम हुआ मानो कोई आदमी सिर से पैर तक काला कपड़ा ओढ़े सामने खड़ा है।

कुछ सायत के बाद उस सूरत ने अपने चेहरे पर से स्याह कपड़ा हटा दिया, अब दारोगा को ठीक शंकरसिंह की सूरत दिखाई दी जिसे देखने के साथ ही वह चिल्ला उठा, उसके सर में चक्कर आने लगे और वह घूम कर चारपाई पर गिरने के साथ ही बेहोश हो गया।

अबकी दफे जब दारोगा होश में आया अर्थात् उसकी आँख खुली तो उसने देखा कि सवेरा हो चुका है और कमरे के अन्दर कुदरती रोशनी पहुँचकर वहाँ की हर चीज को अच्छी तरह दिखा रही है मगर वह मूरत वहाँ नहीं दिखाई देती और न किसी दीवारगीर के ऊपर स्याह कपड़ा ही दिखाई पड़ता है। दीवारगीरों के ऊपर निगाह डालने से यह भी मालूम होता था कि सभी बत्तियाँ जो संध्या के समय जलाई गई थी। रात-भर जल कर बुझी हैं क्योंकि कोई काफूरी बत्ती का टुकड़ा इतना बड़ा नहीं दिखाई देता था जिससे यह समझा जाए कि वह थोड़ी देर तक जलने के बाद बुझा दी गई थी।

कमरे की ऐसी अवस्था देखकर दारोगा तरह-तरह की बातें सोचने लगा, “क्या मैंने कोई स्वप्न देखा है? नहीं नहीं, यह स्वप्न नहीं हो सकता। वह स्याह मूरत स्वप्न में नहीं देखी थी! जरूर वह कोई आदमी था, साथ ही इसके मैंने यह भी देखा था कि दीवारगीरों की मोमबत्तियाँ एक को छोड़ कर बाकी की सभी बुझा दी गई हैं, परन्तु अब उन बचे हुए टुकड़ों पर ध्यान देने से जाना जाता है कि सभी बत्तियाँ एक साथ रात-भर जली हैं, इससे विश्वास होता है कि मैंने जरूर कोई स्वप्न देखा है। मगर नहीं, देखो यह तलवार जो कि मेरे सिरहाने थी इस समय बगल में पड़ी हुई है क्योंकि मैंने उस स्याह मूरत को देखकर सिरहाने से उठा ली थी, तो क्या वास्तव में यह बात सच थी? लेकिन सच भी क्यों कर हो सकती है? शंकरसिंह को मैं अपने हाथ से जमीन के अन्दर दफन कर आया हूँ, अब वह मेरे सामने क्यों कर आ सकते हैं? तो क्या कोई ऐयार उनकी सूरत बनकर आया? नहीं, किसी ऐयार को यह बात मालूम ही कैसे हो सकती है जो वह मुझे डराने के लिए शंकरसिंह की सूरत बनकर आवेगा। तब क्या मेरे दोनों साथी ऐसा कर सकते हैं? नहीं, नहीं राम राम! उन बेचारों पर किसी तरह का शक करना अपने ही ऊपर शक करने के बराबर है, फिर क्या शंकरसिंह भूत बनकर मेरे कमरे में आए थे? छि: छि:, भला भूत-प्रेत का शक करने से हम लोगों का काम कैसे चल सकता है? भूत कोई पदार्थ नहीं है और जरूर वह स्वप्न था जो कि मैंने देखा।”

दारोगा चारपाई के ऊपर बैठा हुआ बड़ी देर तक इसी प्रकार की चिंताएँ करता रहा और आखिर उसने निश्चय कर लिया कि जो कुछ उसने देखा वह जरूर स्वप्न था।

आखिर आँखें मलता हुआ दारोगा चारपाई से नीचे उतरा और धीरे-धीरे चल कमरे के बाहर आया जहाँ कई खिदमतगार खड़े उसके आने का इंतजार कर रहे थे। हाथ-मुँह धोने के बाद कुर्सी पर बैठा ही था कि राजा साहब का एक चोबदार आ पहुँचा जिसने उनसे कहा कि ‘महाराज ने आपको याद किया है।’

दारोगा : (चोबदार से) क्यों क्यों? आज यह गैरकानूनी बात कैसी! खैरियत तो है?

चोबदार : सो तो मुझे कुछ मालूम नहीं सिर्फ यही हुक्म हुआ है कि आपको जल्द हाजिर होने के लिए इत्तिला दी जाय। मगर हाँ, आज महाराज कुछ चिंतित् से जरूर दिखलाई देते हैं। सूर्योदय के पहिले ही स्नान तथा संध्योपासन से निवृत्त हो जाया करते थे परन्तु आज उन्होंने चारपाई से उठकर मुँह तक नहीं धोया है, चारपाई से उठकर सीधे ‘मुक्ता भवन’ में चले आए हैं और वही आपको भी याद किया है। आज्ञा है कि बिना कुछ विलंब किये शीघ्र उनके पास पहुंचे।

दारोगा : नि:सन्देह कोई बात जरूर है?

चोबदार : जी हाँ, तभी तो यह अवस्था है।

चोबदार की बातें सुन दारोगा साहब और परेशान हुए। महाराज के पास जाने की इच्छा तो नहीं होती थी परन्तु लाचार थे, बिना वहाँ गये रह भी नहीं सकते थे। कई क्षण तक चिंता करने के बाद वे उठे और अपने तोशेखाने वाले कमरे में चले गये। कुछ देर बाद मरीजों की-सी सूरत बनाए हुए दारोगा साहब कमरे के बाहर निकले और चोबदार के साथ महाराज की तरफ रवाना हुए।

जमानिया के राजा गिरधरसिंह अपने मुक्ता-भवन में चाँदी की एक आराम-कुर्सी पर बैठे हुए दारोगा के आने का इंतजार कर रहे हैं। यह स्थान खास महाराज के रहने का है, जनाना महल या दरबार अथवा खास बाग के इसका कोई संबंध नहीं। हाँ, जनाना महल इस मकान के साथ ही सटा हुआ है तथा खासबाग में जाने का एक रास्ता भी इस मकान में से है।

इस मकान के पीछे की तरफ एक छोटा-सा नजरबाग तथा एक सुन्दर बारहदरी है। इसी बारहदरी में इस समय महाराज उदास और विषण्ण बदन बैठे न-मालूम किस विषय की चिंता कर रहे हैं। उनके पास किसी तरह की भीड़-भाड़ नहीं है। केवल खास-खास चार-पाँच आदमी और पाँच-सात खिदमतगार नजर आते हैं और वे अब भी महाराज की उदासी के कारण उदास हो रहे हैं।

कुछ देर बाद दारोगा साहब आ पहुँचे। महाराज से कुछ हटकर एक कुर्सी रखी हुई थी जिस पर बैठने के लिए महाराज ने इशारा किया और दारोगा साहब बैठ गये। महाराज ने कहा, “आपको कुछ भैया राजा की खबर है?”

दारोगा : जी मुझे तो कुछ खबर नहीं, क्या उनका पता नहीं लगता?

महाराज : हाँ, दो दिन से पता नहीं लगता, मगर क्या आपको किसी ने खबर नहीं दी? आश्चर्य है कि आप हम लोगों की तरफ से इस तरह बेखबर रहते हैं!

दारोगा : (हाथ जोड़ कर) महाराज, मैं सरकार की तरफ से बेफिक्र नहीं रह सकता परन्तु यह एक साधारण-सी बात थी जिसके विषय में मैंने मुझे विचार नहीं किया। इसके अतिरिक्त मुझे किसी ने इस मामले की खबर भी नहीं दी। शायद इसका यह सबब हो कि मैं दो दिन से सख्त बीमार हूँ, सर और पेट-दर्द ने मुझे अधमुआ कर डाला है। मगर महाराज, भैया राजा के लिए आपकी इतनी चिंता करनी नहीं चाहिए। आप जानते ही हैं कि वे प्राय: ही गायब रहा करते हैं और अब जाते हैं तो दस-दस, पंद्रह-पंद्रह दिन तक घर की खबर नहीं लेते….

महाराज : ठीक है मगर वे ऐसा कभी नहीं करते कि मुझसे आज्ञा लिए बिना या मुझे इत्तिला दिये बिना कहीं चले जाते हों। अगर कभी ऐसा मौका पड़ भी गया है कि दो-एक-दिन के लिए कहकर कहीं गये हैं और कई दिन लग गये हैं तो बाहर रहने पर भी नित्य अपने कुशल-मंगल का समाचार भेजते रहे हैं, परन्तु अबकी दफे सका गायब होना मामूल के खिलाफ है…

महाराज ने इतना ही कहा था कि बाहर से एक चोबदार आया और हाथ जोड़कर सामने खड़ा हो गया। जब महाराज ने उसकी तरफ देखा और इशारे में इजाजत दी तथा उसने अर्ज किया कि इन्द्रदेव जी आए हैं और सरकार में हाजिर हुआ चाहते हैं।

इस समय इन्द्रदेव के आने से महाराज खुश हुए और उन्हें बहुत जल्द से आने के लिए चोबदार से कहा। खिदमतगार ने महाराज की मर्जी समझकर एक कुर्सी वहाँ लाकर रख दी और जब इन्द्रदेव हाजिर हुए तो सलाम करने के बाद इशारा पाकर उसी कुर्सी पर बैठ गये।

मामूली कुशल-मंगल पूछने के बाद महाराज ने प्रश्न किया-

महाराज : अबकी तो बहुत दिनों बाद तुम्हारा आना हुआ!

इन्द्रदेव : जी हाँ, कई झंझटों में फंसे रहने के कारण मैं बहुत दिनों तक हाजिर न हो सका, इधर कई दिनों से मेरे श्वसुर किसी कार्यवश मुझे बुला रहे हैं, कल उनका बहुत शिकायत भरा हुआ पत्र पहुँचा तो लाचार होकर आना पड़ा, सबसे पहिले महाराज का दर्शन करना फर्ज था इसलिए हाजिर हुआ हूँ परन्तु महाराज कुछ खिन्न से दिखाई पड़ते हैं जिससे आश्चर्य होता है…

महाराज : हाँ ठीक है, मैं जरूर उदास और दुखी हो रहा हूँ और इसका कारण यह है कि आज तीन दिन से भैया राजा का कहीं पता नहीं लगता। उनकी यह आदत नहीं थी कि मुझसे पूछे बिना एक दिन से ज्रूादा के लिए कहीं जाते।

इन्द्रदेव : नि:सन्देह यह आश्चर्य की बात है, परन्तु महाराज, वे कुछ नादान बालक तो हैं ही नहीं, होशियार हैं, बुद्धिमान हैं, बहादुर तथा नीति-कुशल हैं, अतएव उनका गायब होना जरूर किसी खास कारण से होगा।

महाराज : खयाल तो मेरा भी ऐसा ही है परन्तु न-मालूम क्यों उनके लिए मेरा जी बहुत बेचैन हो रहा है।

इन्द्रदेव : यह केवल सच्चे प्रेम के कारण है।

महाराज : इसके अतिरिक्त एक बात और भी है।

इन्द्रदेव : वह क्या?

महाराज : तुम लड़के हो, दामोदरसिंह के लिहाज तथा तुम्हारी लियाकत, हमदर्दी और प्रेम के कारण मैं तुम्हें अपने लड़के के बराबर ही समझता हूँ, इसके अतिरिक्त मेरे । लड़के के तुम मित्र भी हो इसलिए भी तुम लड़के के बराबर ही हुए अतएव तुमसे कोई । बात छिपाना पसन्द नहीं करता। आज रात को जबकि मैं अपने सोने के कमरे में बेखबर सो रहा था एक अजीब घटना देखने में आई।

इन्द्रदेव : (आश्चर्य प्रकट करता हुआ) वह क्या महाराज?

महाराज : (कुछ सोचकर) मैं चाहता हूँ कि गोपाल भी आ जाए तो मैं इस किस्से को बयान करूँ।

इन्द्रदेव : क्या चिंता है जरा देर के लिए ठहर जाइए, गोपालसिंह जी भी आते ही होंगे, मैं यहाँ ड्यौढ़ी तक उनके साथ-ही-साथ आया था, किसी कार्यवश वे महल में चले गये और मुझसे कह गये कि तुम महाराज के पास चलो मैं अभी आता हूँ! (चौंक कर) वह देखिए वे भी आ गए!

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इतने में ही गोपालसिंह भी आ गए, उनके लिए भी कुर्सी लाई गई और वे महाराज को प्रणाम करके कुर्सी पर बैठ गये।

महाराज : (गोपालसिंह से) तम तो जानती ही हो कि आज तीन दिन से भैया राजा गायब हैं।

गोपाल सिंह : (हाथ जोड़ के) जी हाँ, आज तीसरा दिन है। बिना इत्तिला दिये कहीं चले जाने की आदत तो चाचाजी में नहीं थी, यह बड़े आश्चर्य की बात है। उनका पता लगाने के लिए मैं बहुत उद्योग कर रहा हूँ। परन्तु अभी तक मेरी मेहनत का कोई नतीजा नहीं निकला।

महाराज : इसके अतिरिक्त मैं रात की एक अजीब घटना का बयान करने वाला हूँ जिसके लिए तुम्हारा इंतजार कर रहा था।

गोपाल सिंह : आज्ञा।

महाराज : रात को भैया राजा की चिंता में डूबा हुआ मैं समय के कुछ पहिले ही सोने के लिए अपने कमरे में चला गया था। बहुत देर तक पड़ा तरह-तरह की बातें सोचता रहा पर अंत में नींद आ गई और मैं बेखबर सो गया। दो पहर रात बीत जाने के बाद मेरी आँख खुली तो सोने वाले कमरे में अँधकार पाया, सिर्फ पूरब तरफ वाली खिड़की खुली हुई थी और उसमें से आती हुई चन्द्रमा की चाँदनी फर्श के ऊपर पड़ रही थी जिससे कमरे के अन्दर इतना उजाला हो रहा था कि नित्य मिलने-जुलने वाले आदमी को मैं पहिचान सकता था। उसी चाँदनी के पास खड़ा हुआ मुझे एक आदमी दिखाई पड़ा। मुझे आश्चर्य हुआ कि इस समय छिपकर मेरे कमरे में कौन आया, अस्तु मैं बगल से तलवार लेकर उठ खड़ा हुआ और धीरे-धीरे उस आदमी की तरफ बढ़ने लगा। मुझे अपनी तरफ बढ़ते देख वह आदमी चन्द्रमा की रोशनी में चला गया और इस ढंग से खड़ा हो गया कि चन्द्रमा की रोशनी बखूबी उसके चेहरे पर पड़ने लगी। मैंने साफ-साफ पहिचाना कि यह भैया राजा हैं।”

भैया राजा को देखकर मैं बहुत ही प्रसन्न हुआ, मगर जब उनके पास जाने लगा तो उन्होंने हाथ के इशारे से मुझे मना किया और जब मैंने इसका सबब पूछा तो उन्होंने अपनी उँगली से फर्श के ऊपर लिखकर जवाब दिया, चाँदनी में काले हरूफ अच्छी तरह पढ़े जाते थे, मैंने पढ़ा, यह लिखा हुआ था, “मैं जीता नहीं हूँ, मुझे दारोगा ने मार कर अपने मकान में गाड़ दिया है।”

बस इतना लिखकर वह खिड़की के बाहर कूद गये। मैं बड़ी देर तक खड़ा-खड़ा उन बड़े-बड़े हरूफों को देखता रहा, इसके बाद झाँककर खिड़की के बाहर देखा तो किसी की सूरत दिखाई नहीं पड़ी। मैं घबराया हुआ चारपाई पर जाकर लेट रहा और इस खयाल से खिड़की की तरफ देखने लगा कि शायद वह सूरत पुन: दिखाई दे मगर फिर कुछ दिखाई न दिया और बहुत जल्द मुझे नींद आ गई। फिर जब आँख खुली तो सवेरा हो चुका था। जहाँ पर वे अक्षर लिखे गये थे वहाँ जाकर देखा तो फर्श पर एक अक्षर भी दिखाई न पड़ा मगर तभी से इस समय तक मेरे दिल की विचित्र अवस्था हो रही है।

इस किस्से को सुन कर सभी को बड़ा ही आश्चर्य हुआ मगर गोपालसिंह की न गाह दारोगा पर पड़ी तो उन्होंने देखा कि उसके चेहरे का रंग उड़ा हुआ है और बदन काँप रहा है। महाराज ने भी दारोगा की यह अवस्था देख आश्चर्य में आकर पूछा, “यह क्या, आपका शरीर इतना काँप क्यों रहा है?”

दारोगा : मैं निवेदन कर चुका हूँ कि दो-तीन दिन से बुखार ने मुझे पीड़ित कर रखा है, मैं यहाँ आने के योग्य नहीं था परन्तु महाराज की आज्ञा का उल्लंघन नहीं कर सकता था इसीलिए किसी तरह उठता-बैठता चला आया, इस समय पुन: सर्दी मालूम हो रही है, जान पड़ता है फिर बुखार चढ़ेगा।

महाराज : ठीक है, अच्छा तो इस समय आप घर जाइए, जब आपकी तबीयत ही ठीक नहीं है तो मेरे इस तरह तरद्दुद में आप किस तरह शरीक हो जाते हैं।

दारोगा : (हाथ जोड़ता हुआ) जो आज्ञा, तो मैं बिदा होता हूँ, जी ठिकाने होने पर पुन: हाजिर हो जाऊँगा मगर अपने जो कुछ रात का हाल बयान किया है उसे सुनकर तो मुझे बड़ा ही आश्चर्य हुआ। मैं वास्तव में इस समय कुछ भी निश्चय नहीं कर सकता कि यह क्या मामला है। आश्चर्य नहीं कि यह किसी ऐयार की ऐयारी हो और वह आपको अथवा भैया राजा को धोखे में डालने के इरादे से किसी विशेष घटना की भूमिका बाँध रहा हो अथवा किसी ढंग का स्वप्न आपने देखा हो जो कि…मैं क्या कहूँ कुछ समझ में नहीं आता। आश्चर्य तो यह है कि उसने बदनाम करने लिए मुझीं को चुना!

महाराज : आपको भला कोई क्या बदनाम करेगा! मुझे कब विश्वास हो सकता है कि आप हम ही लोगों की जान के ग्राहक हो जाएँगे! नहीं-नहीं-नहीं, मुझे ऐसा खयाल कभी नहीं हो सकता, परन्तु यह मामला क्या है इसका पता जरूर लगाना चाहिए।

दारोगा : (जोर देने के ढंग पर) जरूर इसका पता लगाया जाएगा, जरा मेरी तबीयत ठिकाने हो जाय तो मैं उद्योग करूँ।

महाराज : (इन्द्रदेव से) कहो बेटा, तुम इस बारे में क्या खयाल करते हो!

इन्द्रदेव : महाराज, मैं इस विषय में यकायक अपनी राय नहीं दे सकता हूँ, पर दुनिया में भूत-प्रेत तथा आत्मा के विषय में जो कुछ कहानियाँ लोग कहते हैं मैं उन्हें अवश्य जानता हूँ, मुझे पूर्ण विश्वास है कि आदमी मरने के बाद नाश नहीं होता। इस पंचभौतिक स्थूल शरीर को छोड़ने के साथ ही आत्मा को जो अविनाशी और अमर है एक दूसरा सूक्ष्म शरीर मिल जाता है जिसे पाकर वह जीव इधर-उधर घूमा या उड़ा करता है अथवा अपने कर्मानुसार तब तक दुख-सुख का भोग करता है जब तक वह किसी ऊँचे पद को प्राप्त न करे अथवा पुन: पंचभौतिक शरीर में प्रवेश न करे अर्थात् जब तक उसका पुनर्जन्म नहीं होता तब तक उनकी वासनानुसार उसको तरह-तरह के तमाशे दिखाई दे सकते हैं और यदि मरते समय कोई प्रबल वासना उसके अन्दर रह गई हो तो निश्चय रूप से किसी के शरीर में प्रवेश करके अथवा यों ही छाया की तरह वह लोगों को दिखाई भी दे जाता है अथवा इसी ढंग पर कभी अपनी थोड़ी-बहुत वासना भी पूरी कर लेता है। इस विषय में मेरे पिताजी ने मुझे बड़े-बड़े तमाशे दिखलाए हैं और बहुत-सी बातें सिखलाई भी हैं जिनको खयाल में रखते हुए मैं निश्चय रूप से कह सकता हूँ कि ईश्वर ने करे यदि चाचाजी (भैयाराज) की अकाल मृत्यु हुई है और किसी ने धोखा देकर उन्हें मार डाला है तो उनकी आत्मा बदला लेने की नीयत से इस रूप में जरूर दिखाई दे सकती है जैसाकि आपने रात देखा। अगर वह वास्तव में भैया राजा जी की आत्मा है तो कम-से-कम एक-दो दफे आपको और जरूर दिखाई देगी क्योंकि भूत-प्रेत जब दिखाई देता है तब केवल एक ही दफे नहीं दिखाई देता, और अगर वह भैया राजा की आत्मा नहीं किसी ऐयार की है तो मैं बहुत जल्द इसका पता लगाकर आपसे निवेदन करूँगा।

महाराज : (आश्चर्य से) क्या तुम भूत-प्रेतादि का होना मानते हो?

इन्द्रदेव : नि:सन्देह ! जैसाकि मैं अर्ज कर चुका हूँ उन पर मेरा दृढ़ विश्वास है और मैंने इस संबंध के बहुत से खेल देखे भी हैं, यही नहीं, यदि महाराज देखा चाहेंगे तो मैं इस विषय के अपूर्व तमाशे दिखा सकूँगा।

महाराज : तो मैं समझता हूँ कि तुम्हारे खयाल से भैया राजा का मारा जाना संभव है।

इन्द्रदेव : जो संभव भी है, असंभव भी है दोनों बातों में से किसी पर मैं जोर नहीं दे सकता, दो दिन की मोहलत मुझे मिले इसके बाद मैं निश्चय करके जवाब दूंगा। (दारोगा की तरफ देखकर) भाई साहब, आपकी तबीयत अब बहुत खराब होती जाती है, आप अब पधारिये।

महाराज : (दारोगा से) हाँ-हाँ, अब आप जाइए, फिर देखा जाएगा।

दारोगा उठ खड़ा हुआ और सलाम करके धीरे-धीरे बीमारों की-सी नकल करता हुआ वहाँ से रवाना हुआ। उसके चले जाने के बाद इन्द्रदेव ने महाराज से कहा, “महाराज, यदि पुन: आपको वह जीव दिखाई पड़े तो आप उससे बातचीत चाहे जिस तरह की करें परन्तु उसे छूने या पकड़ने का उद्योग न करें, यही मेरी प्रार्थना है।”

महाराज : क्यों?

इन्द्रदेव : संभव है कि वह कोई प्रेत हो और आपको धोखा देने के लिए भैया राज की सूरत बनकर आपके पास आया हो या पुन: भी आवे। जो लोग उपासक होते हैं और संध्योपासन से विमुख नहीं होते उनके शरीर को प्रेत स्पर्श नहीं कर सकता और ऐसी अवस्था में अपने को भी उसे स्पर्श करने का उद्योग न करना चाहिये। क्योंकि ऐसा करने से उसके पुन: आने आशा नहीं रहती।

महाराज : हाय, भैया राज के विषय में कोई भी निश्चय नहीं कर सकता और कोई भी पता नहीं लगा सकता! जरूर यह हमारे मन्द भाग्य की निशानी है…

इतना कहते-कहते उनकी आँखें डबडबा आईं और आँसू की बूँदें टपाटप गिरने लगीं।

इन्द्रदेव : महाराज, आप हताश क्यों होते हैं! मैं कह चुका हूँ कि दो-तीन दिन के अन्दर ही उनका ठीक-ठीक पता लगाकर आपको समाचार दूंगा, मुझे विश्वास है और मैं जोर देकर कहता हूँ कि भैया राजा जीते हैं परन्तु किसी कष्ट में पड़ गये हैं।

महाराज : (रूमाल से आँसू पोंछते हुए) अच्छा मैं तुम्हारे भरोसे पर और भी दो-तीन दिन किसी तरह बिताऊँगा।

इन्द्रदेव ने महाराज को बहुत समझाया और हर तरह पर दिलजमई करा कर वहाँ से विदा हुए। जाते समय वे कुँवर गोपालसिंह को भी अपने साथ लेते गये।

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