manorma munshi premchand
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अब उसे वागीश्वरी की याद आयी। सुख के दिन वही थे, जो उसके साथ कटे। असली मैका न होने पर भी जीवन का जो सुख वहां मिला, वह फिर न नसीब हुआ। यह स्नेह, सुख स्वप्न हो गया। सास मिली वह इस तरह की, ननद मिली वह इस ढंग की, मां थी ही नहीं, केवल बाप को पाया; मगर उसके बदले में क्या-क्या देना पड़ा।

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अब अहल्या को रात-दिन यही धुन रहने लगी कि किसी तरह वागीश्वरी के पास चलूं मानों वहां उसके सारे दुःख दूर हो जायेंगे।

आखिर एक दिन अहल्या ने सास से यह चर्चा कर ही दी। निर्मला ने कुछ भी आपत्ति नहीं की। शायद वह खुश हुई कि किसी तरह यह यहां से टले। मंगला तो उसके जाने का प्रस्ताव सुनकर हर्षित हो उठी। जब वह चली जाएगी, तो घर में मंगला का राज हो जाएगा। जो चीज चाहेगी, उठा ले जाएगी। कोई हाथ पकड़ने वाला या टोकने वाला न रहेगा।

दूसरे दिन अहल्या वहां से चली। अपने साथ कोई साज-सामान न लिया। साथ की लौंडिया चलने को तैयार थीं; पर उसने किसी को साथ न लिया। केवल एक बुड्ढे कहार को पहुंचाने के लिए ले लिया। और उसे भी आगरे पहुंचने के दूसरे ही दिन विदा कर दिया।

आज 20 साल के बाद अहल्या ने इस घर में फिर प्रवेश किया था; पर आह! इस घर की दशा ही कुछ और थी, सारा घर गिर पड़ा था। न आंगन का पता था, न बैठक का। चारों और मलबे का ढेर जमा हो रहा था। उस पर मदार और धतूर के पौधे उगे हुए थे। एक छोटी-सी कोठरी बच रही थी। वागीश्वरी उसी में रहती थी। उसकी सूरत भी उस घर के समान ही बदल गयी थी। न मुंह में दांत, न आंखों में ज्योति; सिर के बाल सन हो गये थे, कमर झुककर कमान हो गयी थी। दोनों गले मिलकर खूब रोयीं। जब आंसुओं का वेग कुछ कम हुआ, तो वागीश्वरी ने कहा-बेटी, तुम अपने साथ कुछ सामान नहीं लायीं क्या? दूसरी ही गाड़ी से लौट जाने का विचार है? इतने दिनों के बाद आयी भी, तो इस तरह! बुढ़िया को बिलकुल भूल ही गयी। खंडहर में तुम्हारा जी क्यों लगेगा?

अहल्या-अम्मा, महल में रहते-रहते जी ऊब गया, अब कुछ दिन इस खंडहर में ही रहूंगी और तुम्हारी सेवा करूंगी। जब से तुम्हारे घर से गयी, दुःख-ही-दुःख पाया, आनन्द के दिन तो इस घर में बीते थे।

वागीश्वरी-लड़के का अभी कुछ पता न चला?

अहल्या-किसी का पता नहीं चला, अम्मा! मैं राज्य-सुख पर लट्टू हो गयी थी। उसी का दण्ड भोग रही हूं। राज्य-सुख भोगकर तो जो कुछ मिलता है वह देख चुकी; अब उसे छोड़ कर देखूंगी कि क्या जाता है; मगर तुम्हें तो बड़ा कष्ट हो रहा है, अम्मा?

वागीश्वरी-कैसा कष्ट, बेटी! जब तक स्वामी जीते रहे, उनकी सेवा करने में सुख मानती थी। तीर्थ, व्रत, पुण्य, धर्म सब कुछ उनकी सेवा ही में था। अब वह नहीं हैं तो उनकी मर्यादा की सेवा कर रही हूं। आज भी उनके कितने ही भक्त मेरी मदद करने को तैयार हैं, लेकिन क्यों किसी की मदद लूं? तुम्हारे दादाजी सदैव दूसरों की सेवा करते रहे। इसी में अपनी उम्र काट दी। तो फिर मैं किस मुंह से सहायता के लिए हाथ फैलाऊं?

यह कहते-कहते वृद्धा का मुखमण्डल गर्व से सनक उठा। उसकी आंखों में एक विचित्र स्फूर्ति झलकने लगी! अहल्या का सिर लज्जा से झुक गया। माता तुझे धन्य हैं, तू वास्तव में सती है, तू अपने ऊपर जितना गर्व करे, वह थोड़ा है।

वागीश्वरी ने फिर कहा-ख्वाजा महमूद ने बहुत चाहा कि मैं कुछ महीना ले लिया करूं। मेरे मैकेवाले कई बार मुझे बुलाने आये। यह भी कहा कि महीने में कुछ ले लिया करो। भैया बड़े भारी वकील हैं, लेकिन मैंने किसी का एहसान नहीं लिया। पति की कमाई को छोड़कर और किसी की कमाई पर स्त्री का अधिकार नहीं होता। चाहे कोई मुंह से न कहे, पर मन में जरूर समझेगा कि मैं इन पर एहसान कर रहा हूं। जब तक आंखें थीं, सिलाई करती रही। जब से आंखें गयीं, दलाई करती हूं। कभी-कभी उन पर जी झुंझलाता है। जो कुछ कमाया, उड़ा दिया। तुम तो देखती ही थी। ऐसा कौन-सा दिन जाता कि द्वार पर चार मेहमान न आ जाते हों! लेकिन फिर दिल से समझती हूं कि उन्होंने किसी बुरे काम में तो धन नहीं उड़ाया। जो कुछ किया, दूसरों के उपकार ही के लिए किया। यहां तक कि अपने प्राण भी दे दिये। फिर मैं क्यों पछताऊं और क्यों रोऊं! यश सेंत में थोड़े ही मिलती है; मगर मैं तो अपनी बातों में लग गयी। चलो, हाथ-मुंह धो डालो, कुछ खा पी लो, तो फिर बातें करूं।

लेकिन अहल्या हाथ-मुंह धोने न उठी। वागीश्वरी की आदर्श पतिभक्ति देखकर उसकी आत्मा उसका तिरस्कार कर रही थी। अभागिनी! इसे पतिभक्ति कहते हैं। सारे कष्ट झेलकर स्वामी की मर्यादा का पालन कर रही है। नैहरवाले बुलाते हैं और नहीं जाती, हालांकि इस दशा में मैके चली जाती, तो कोई बुरा न कहता। सारे कष्ट झेलती है और खुशी से झेलती है। एक तू है कि मैके की सम्पत्ति देखकर फूल उठी, अन्धी हो गयी। राजकुमारी और पीछे चलकर राजमाता बनने की धुन में तुझे पति की परवाह ही न रही। तूने सम्पत्ति के सामने पति को कुछ न समझा, उसकी अवहेलना की। वह तुझे अपने साथ ले जाना चाहते थे, तू न गयी, राज्य-सुख तुझसे न छोड़ा गया! रो, अपने कर्मों को।

वागीश्वरी ने फिर कहा-अभी तक बैठी ही है। हां, लौंडी पानी नहीं लायीं न, कैसे उठेगी। लें मैं पानी लाये देती हूं, हाथ मुंह धो डाल। तब तक मैं तेरे लिए गरम रोटियां सेंकती हूं। देखूं तुझे अब भी भाती हैं कि नहीं। तू मेरी रोटियों का बहुत बखान करके खाती थी।

अहल्या ये स्नेह में सने शब्द सुनकर पुलकित हो उठी। इस ‘ तू’ में तो जो सुख था; वह ‘ आप’ और ‘ सरकार’ में कहां। बचपन के दिन आंखों में फिर गये। एक क्षण के लिए उसे अपने सारे दुःख विस्मृत हो गये। बोली-अभी तो भूख-प्यास नहीं है अम्माजी, बैठिए कुछ बातें कीजिए। मैं आप से दुःख की कथा कहने के लिए व्याकुल हो रही हूं। बताइए, मेरा उद्धार कैसे होगा?

वागीश्वरी ने गम्भीर भाव से कहा-पति-प्रेम से वंचित होकर स्त्री के उद्धार का कौन उपाय है, बेटी! पति ही स्त्री का सर्वस्व है। जिसने अपना सर्वस्व खो दिया, उसे सुख कैसे मिलेगा? जिसको लेकर तूने पति को त्याग दिया, उसको त्यागकर ही पति को पायेगी। जब तक धन और राज्य का मोह न छोड़ेगा, तुझे उस त्यागी पुरुष के दर्शन न होंगे।

अहल्या-अम्माजी, सत्य कहती हूं मैं केवल शंखधर के हित का विचार करके उनके साथ न गयी।

वागीश्वरी-उस विचार में क्या तेरी भोग-लालसा न छिपी थी? खूब ध्यान करके सोच। तू इससे इनकार नहीं कर सकती?

अहल्या ने लज्जित होकर कहा-हो सकता है, अम्माजी, मैं इनकार नहीं कर सकती।

वागीश्वरी-सम्पत्ति यहां भी तेरा पीछा करेगी, देख लेना? जो उससे भागता है, उसके पीछे दौड़ती है। मुझे शंका होती है कि कहीं तू फिर लोभ में न पड़ जाय। एक बार चूकी, तो 14 वर्ष रोना पड़ा। अबकी चूकी तो बाकी उम्र रोते ही गुजर जाएगी।

अहल्या के आने की खबर पाकर मुहल्ले की सैकड़ों औरतें टूट पड़ी। शहर के कई बड़े घरों की स्त्रियां भी आ पहुंचीं। शाम तक तांता लगा रहा। कुछ लोग डेपुटेशन बनाकर संस्थाओं के लिए चन्दे मांगने आ पहुंचे। अहल्या को इन लोगों से जान बचानी मुश्किल हो गयी किस-किस से अपनी विपत्ति कहे? अपनी गरज के बावले अपनी कहने में मस्त रहते हैं, वह किसी की सुनते ही कब हैं? इस वक्त अहल्या को फटे-हालों यहां आने पर बड़ी लज्जा आयी। वह जानती कि यहां यह हरबोंग मच जायेगा तो साथ दस-बीस हजार के नोट लेती आती। उसे अब इस टूटे-फूटे मकान में ठहरते भी लज्जा आती थी। जब से देश ने जाना कि वह राजकुमारी है, तब से वह कहीं बारह न गयी थी। कभी काशी रहना क्या कभी जगदीशपुर। दूसरे शहर में आने का उसे यह पहला ही अवसर था। अब उसे मालूम हुआ कि धन केवल भोग की वस्तु नहीं है। उससे यश और कीर्ति भी मिलती है। भोग से तो उसे घृणा हो गयी थी, लेकिन यश का स्वाद उसे पहली ही बार मिला। शाम तक उसने 15-20 हजार के चंदे लिख दिये और मुंशी वज्रधर को रुपये भेजने के लिए पत्र भी लिख दिया। खत पहुंचने की देर थी। रुपये आ गये। फिर तो उसके द्वार पर भिक्षुओं का जमघट रहने लगा। लंगड़ी-अंधी से लेकर जोड़ी और मोटर पर बैठने वाले भिक्षुक भिक्षा-दान मांगने आने लगे। कहीं से किसी अनाथालय के निरीक्षण करने का निमंत्रण आता, कहीं से टी पार्टी में सम्मिलित होने का। कुमारी-सभा, बालिका विद्यालय, महिला क्लब आदि संस्थाओं ने उसे मान-पत्र दिये, और उसने ऐसे सुन्दर उत्तर दिये कि उसकी योग्यता और विचार-शीलता का सिक्का बैठ गया। ‘ आये थे हरिभजन को ओटन लगे कपास’ वाली कहावत हुई। तपस्या करने आयी थी, यहां सभ्य समाज की क्रीड़ाओं में मग्न हो गयी। अपने अभीष्ट का ध्यान ही न रहा।

अहल्या को अब रोज ही किसी-न-किसी जलसे में जाना पड़ता और वह बड़े शौक से जाती। दो ही सप्ताह में उसकी कायापलट-सी हो गयी। यश लालसा ने धन की उपेक्षा का भाव उसके दिल से निकाल दिया। वास्तव में वह समारोहों में अपनी मुसीबतें भूल गयी। अच्छे-अच्छे व्याख्यान तैयार करने में वह तत्पर रहने लगी, मानो उसे नशा हो गया है। वास्तव में यह नशा ही था। यश-लालसा से बढ़कर दूसरा नशा नहीं।

वागीश्वरी पुराने विचारों की स्त्री थी। उसे अहल्या का यों, घूम-घूमकर व्याख्यान देना और रुपये लुटाना अच्छा न लगता था। एक दिन उसने कह ही डाला-क्योंरी अहल्या; तू अपनी सम्पत्ति लुटा कर ही रहेगी?

अहल्या ने गर्व से कहा-और धन है ही किस लिए अम्माजी? धन में यही बुराई है कि इससे विलासिता बढ़ती है, लेकिन इसमें परोपकार करने की सामर्थ्य भी है।

वागीश्वरी ने परोपकार के नाम से चिढ़कर कहा-तू जो कर रही है, यह परोपकार नहीं, यश-लालसा है।

दूसरे दिन प्रातःकाल डाकिया शंखधर का पत्र लेकर पहुंचा जो जगदीशपुर और काशी से घूमता हुआ आया था। अहल्या पत्र पढ़ते ही उछल पड़ी और दौड़ी हुई वागीश्वरी के पास जाकर बोली-अम्मा, देखो, लल्लू का पत्र आ गया। दोनों जने एक ही जगह हैं। मुझे बुलाया है।

वागीश्वरी-तो बस, अब तू चली ही जा। चल, मैं भी तेरे साथ चलूंगी।

अहल्या-आज पूरे पांच साल के बाद खबर मिली है, अम्माजी! मुझे आगरे आना फल गया। यह तुम्हारे आशीर्वाद का फल है, अम्माजी।

बागीश्वरी-मैं तो उस लड़के के जीवट को बखानती हूं कि बाप का पता लगाकर ही छोड़ा।

अहल्या-इस आनन्द में आज उत्सव मनाना चाहिए, अम्माजी।

वागीश्वरी-उत्सव पीछे मनाना, पहले वहां चलने की तैयारी करो। कहीं और चले गये, तो हाथ मलकर रह जाओगी।

लेकिन सारा दिन गुजर गया और अहल्या ने यात्रा की तैयारी न की। वह अब यात्रा के लिए उत्सुक न मालूम होती थी आनन्द का पहला आवेश समाप्त होते ही वह इस दुविधे में पड़ गयी थी, कि यहां जाऊं या न जाऊं? वहां जाना केवल दस-पांच दिन या महीने के लिए जाना न था वरन् राजपाट से हाथ धो लेना और शंखधर के भविष्य को बलिदान करना था। यह जानती थी पितृभक्त शंखधर पिता को छोड़कर किसी भांति न आयेगा और मैं भी प्रेम के बन्धन में फंस जाऊंगी। उसने यही निश्चय किया कि शंखधर को किसी हीले से बुला लेना चाहिए। उसका मन कहता था कि शंखधर आ गया, तो स्वामी के दर्शन भी उसे अवश्य होंगे। इस वक्त वहां जाकर वह अपनी प्रेमाकांक्षाओं की वेदी पर अपने पुत्र के जीवन को बलिदान न करेगी। जैसे इतने दिनों पति-वियोग में जली है, उसी तरह कुछ दिन और जलेगी। उसने मन में यह निश्चय करके शंखधर के पत्र का उत्तर दे दिया। लिखा- मैं बीमार हूं बचने की कोई आशा नहीं; बस एक बार तुम्हें देखने की अभिलाषा है। तुम आ जाओ, तो शायद जी उठूं। लेकिन न आये तो समझ लो अम्मा मर गयी। अहल्या को विश्वास था कि यह पत्र पढ़कर शंखधर दौड़ा चला आयेगा और स्वामी भी यदि उसके साथ न आयेंगे तो उसे आने से रोकेंगे भी नहीं।

संध्या समय वागीश्वरी ने पूछा-क्या जाने का इरादा नहीं है?

अहल्या ने शर्माते हुए कहा-अभी तो अम्माजी मैंने लल्लू को बुलाया है। अगर वह न आयेगा, तो चली जाऊंगी।

वागीश्वरी-लल्लू के साथ क्या चक्रधर भी आ जायेंगे? तू ऐसा अवसर पाकर भी छोड़ देती है। न जाने तुझ पर क्या विपत्ति आने बाली है!

अहल्या अपने सारे दुःख भूलकर शंखधर के राज्याभिषेक की कल्पना में विभोर हो गयी।