यह कहते-कहते अहल्या की आंखें सजल हो गयीं! चक्रधर से अब जब्त न हो सका। उन्होंने संक्षेप में सारी बातें कह सुनाई और अन्त में प्रयाग उतर जाने का प्रस्ताव किया। अहल्या ने गर्व से कहा–अपना घर रहते प्रयाग क्यों उतरें? मैं घर चलूंगी। वे कितने ही नाराज हों, हैं तो हमारे सता-पिता! आप इन चिन्ताओं को दिल से निकाल डालिए। उनको प्रसन्न करने का भार मुझ पुर छोड़ दें, मुझे विश्वास है कि उन्हें मना लूंगी।
मनोरमा नॉवेल भाग एक से बढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें मनोरमा भाग-1
चक्रधर ने अहल्या को गदगद नेत्रों से देखा और चुप ही रहे।
रात को दस बजते-बजते गाड़ी बनारस पहुंची। अहल्या के आश्वासन देने पर भी चक्रधर बहुत चिन्तित हो रहे थे कि कैसे क्या होगा। लेकिन उन्हें कितना आश्चर्य हुआ, जब उन्होंने मुंशीजी को दो आदमियों के साथ स्टेशन पर उनकी राह देखते पाया। पिता के इस असीम, अपार, अलौकिक वात्सल्य ने उन्हें इतना पुलकित किया कि वह जाकर पिता के पैरों पर गिर पड़े। मुंशीजी ने दौड़कर छाती से लगा लिया और उनके श्रद्धाश्रुओं को रूमाल से पोंछते हुए स्नेह कोमल शब्दों में बोले-कम-से-कम एक तार तो दे देते कि मैं किस गाड़ी से आ रहा हूं। खत तक न लिखा। यहां बराबर दस दिन से दो बार स्टेशन पर दौड़ा आता हूं और एक आदमी हरदम तुम्हारे इन्तजार में बाहर बिठाये रहता हूं कि न-जाने कब, किस गाड़ी से आ जाओ। कहां है बहू? चलो, उतार लायें। बहू के साथ यहीं ठहरो। स्टेशन-मास्टर से कहकर वेटिंग रूम खुलवाये देता हूं। मैं दौड़कर जरा बाजे-गाजे, रोशनी, सवारी की फिक्र करूं। बहू का स्वागत तो करना ही होगा। यहां लोग क्या जानेंगे कि बहू आयी है। वहां की बात और थी, यहां की बात और है। भाई-बन्दों के साथ रस्म-रिवाज मानना ही पड़ता है।
यह कहकर मुंशीजी चक्रधर के साथ अहल्या के डिब्बे के द्वार पर खड़े हो गये। अहल्या ने धीरे से उतरकर उनके चरणों पर सिर रख दिया। उसकी आंखों से श्रद्धा और आनन्द के आंसू बहने लगे। मुंशीजी ने उनके सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया और दोनों प्राणियों को वेटिंग-रूम में बैठाकर बोले-किसी को अन्दर मत आने देना। मैंने साहब से कह दिया है। मैं कोई घण्टे भर में आऊंगा।
चक्रधर ने दबी जबान से कहा-इस वक्त धूम-धाम करने की जरूरत नहीं। सबेरे तो सब मालूम हो ही जायेगा।
मुंशीजी ने लकड़ी संभालते हुआ कहा-सुनती हो बहू इनकी बातें? सबेरे लोग जानकर क्या करेंगे? दुनिया क्या जानेगी कि बहू कब आई?
मुंशीजी चले गये, तो अहल्या ने चक्रधर को आड़े हाथों लिया। बोली-ऐसे देवता-पुरुष के साथ तुम अकारण ही कितना अनर्थ कर रहे थे। मेरा तो जी चाहता था कि घण्टों उनके चरणों पर पड़ी हुई रोया करूं।
चक्रधर लज्जित हो गये। इसका प्रतिवाद तो न किया; पर उनका मन कह रहा था कि इस वक्त दुनिया को दिखाने के लिए पिताजी कितनी ही धूम-धाम क्यों न कर लें घर में कोई-न-कोई गुल खिलेगा जरूर।
मुंशीजी को गये अभी आधा घण्टा भी न हुआ था कि मनोरमा कमरे के द्वार पर आकर खड़ी दिखायी दी।
उसने कहा-वाह बाबूजी, आप चुपके-चुपके बहू को उड़ा लाये और मुझे खबर तक न दी! मुंशीजी न कहते, तो मुझे मालूम ही न होता। आपने तो अपना घर बसाया, मेरे लिये भी कोई सौगात लाये?
यह कहकर वह अहल्या के पास गयी और दोनों गले मिली। मनोरमा ने रूमाल से एक जड़ाऊ कंगन निकालकर अहल्या के हाथ में पहना दिया। अहल्या ने उसे कुर्सी पर बिठा दिया और पान-इलायची देते हुए बोली-आपको मेरे कारण बड़ी तकलीफ हुई। यह आपके आराम करने का समय था।
चक्रधर मौका देखकर बाहर चले गये थे। उनके रहने से दोनों ही में संकोच होता।
मनोरमा ने कहा-नहीं बहन, मुझे जरा भी तकलीफ नहीं हुई। मैं तो यों भी बारह एक के पहले नहीं सोती। तुमसे मिलने की बहुत दिनों से इच्छा थी। तुम बड़ी भाग्यवान हो। तुम्हारा पति मनुष्य में रत्न है, सर्वथा निर्दोष एवं सर्वथा निष्कलंक।
अहल्या पति प्रशंसा से गर्वोन्नत होकर बोली-आपके लिए कोई सौगात तो नहीं लाये!
मनोरमा-मेरे लिए तुमसे बढ़कर और क्या सौगात लाते। मैं संसार में अकेली थी। तुम्हें पाकर दुकेली हो गयी।
अहल्या-मैं इसे अपनी सौभाग्य समझूंगी।
इतने में बाजों की घों-घों पों-पों सुनायी दी। मुंशीजी बारात जमाये चले आ रहे थे।
अहल्या के हृदय में आनन्द की तरंगें उठ रही थीं। कभी उसका स्वागत इस ठाठ से होगा, कभी एक बड़ी रानी उसकी सहेली बनेगी, कभी उसका इतना आदर-सम्मान होगा, उसने कल्पना भी न की थी।
मनोरमा ने उसे धीरे- धीरे ले जाकर सुखपाल में बिठा दिया। बारात चली। चक्रधर एक सुरंग घोड़े पर सवार थे।
राजा साहब विशाल पुर आते; तो इस तरह भागते, मानों किसी शत्रु के घर आए हों। रोहिणी को राजा साहब की यह निष्ठुरता असह्य मालूम होती थी। वह उन पर दिल का गुबार निकालने के लिए अवसर ढूंढ़ती रहती थी; पर राजा साहब भूलकर भी अन्दर न आते थे। आखिर एक दिन वह मनोरमा पर ही पिल पड़ी। बात कोई न थी! मनोरमा ने सरल भाव से कहा-यहां आप लोगों का जीवन बड़ी शान्ति से कटता होगा। शहर में तो रोज एक-न-एक झंझट सिर पर सवार रहता है।
रोहिणी तो भरी बैठी ही थी। ऐंठकर बोली-हां बहन, क्यों न हो! ऐसे प्राणी भी होते हैं, जिन्हें पड़ोसी के उपवास देखकर जलन होती है। तुम्हें पकवान बुरे मालूम होते हैं, हम अभागिनों के लिए सत्तू में भी बाधा।
मनोरमा ने फिर उसी सरल भाव से कहा-अगर तुम्हें वहां सुख-ही-सुख मालूम होता है, तो चली क्यों नहीं आतीं? अकेले मेरा भी जी घबराया करता है। तुम रहोगी, तो मजे से दिन कट जायेंगे।
रोहिणी नाक सिकोड़कर बोली-भला, मुझमें वह हाव-भाव कहां हैं कि इधर राजा साहब को मुट्ठी में किए रहूं उधर हाकिमों को मिलाये रखूं। यह तो कुछ लिखी-पढ़ी, शहरवालियों को ही आता है, हम गंवारिनें यह त्रियाचरित्र क्या जानें।
मनोरमा खड़ी सन्न रह गयी। ऐसा मालूम हुआ कि ज्वाला पैरों से उठी और सिर से निकल गयी। वह दस-बारह मिनट तक इसी भांति स्तम्भित खड़ी रही। राजा साहब मोटर के पास खड़े उसकी राह देख रहे थे। जब उसे देर हुई तो स्वयं अन्दर आये। दूर ही से पुकारा-नोरा, क्या कर रही हो? चलो, देर हो रही है। मनोरमा ने इसका कुछ जवाब न दिया। तब राजा साहब ने मनोरमा के पास आकर हाथ पकड़ लिया और कुछ कहना ही चाहते थे कि उसका चेहरा देखकर चौंक पड़े। वह सर्पदंशित मनुष्य की भांति निर्निमेष नेत्रों से दीवार की ओर टकटकी लगाये ताक रही थी, मानों आंखों की राह प्राण निकल रहे हों।
राजा साहब ने घबरा कर पूछा-नोरा, कैसी तबीयत है?
मनोरमा ने सिसकते हुए कहा-अब मैं यहीं रहूंगी, आप जाइए। मेरी चीजें यहीं भिजवा दीजिएगा।
राजा साहब समझ गये कि रोहिणी ने अवश्य कोई व्यंग्य-तीर चलाया है। उसकी ओर लाल आंखें करके बोले -तुम्हारे कारण यहां से जान लेकर भागा फिर भी तुम पीछे पड़ी हुई हो। यहां भी शान्त नहीं रहने देती। मेरी खुशी है, जिससे जी चाहता है, बोलता हूं जिससे जी नहीं चाहता, नहीं बोलता। तुम्हें इसकी जलन क्यों होती है?
रोहिणी-जलन होगी मेरी बला को। तुम यहां ही थे, तो कौन-सा फूलों की सेज पर सुला दिया था। यहां तो जैसे ‘ कन्ता घर रहे, वैसे रहे विदेश।’ भाग्य में रोना बदा था, रोती हूं।
राजा साहब का क्रोध बढ़ता जाता था, पर मनोरमा के सामने वह अपना पैशाचिक रूप दिखाते हुए शर्माते थे। वह कोई लगती हुई बात कहना चाहते थे, जो रोहिणी की जबान बन्द कर दे, वह अवाक् रह जाय। मनोरमा को कटु वचन सुनाने के दण्ड स्वरूप रोहिणी को कितनी ही कड़ी बात क्यों न कही जाय, वह क्षम्य थी। बोले-तुम्हें तो जहर खाकर मर जाना चाहिए। कम-से-कम तुम्हारी ये जली-कटी बातें तो न सुनने में आयेंगी।
रोहिणी ने आग्नेय नेत्रों से राजा साहब की ओर देखा, मानों वह उसकी ज्वाला से उन्हें भस्म कर देगी, मानों उसके शरों से उन्हें बेध डालेगी, और लपककर पानदान को ठुकराती, लोटे का पानी गिराती, वहां से चली गयी।
राजा साहब बहुत देर तक समझाया किये, पर मनोरमा ने एक न मानी। उसे शंका हुई कि ये भाव केवल रोहिणी के नहीं हैं, यहां सभी लोगों के मन में यही भाव होंगे। सन्देह और लांछन का निवारण यहां सबके सन्मुख रहने से ही हो सकता था और यही उसके संकल्प का कारण था। अन्त में राजा साहब ने हताश होकर कहा-तो फिर मैं भी काशी छोड़ देता हूं। मुझसे अकेले वहां एक दिन भी न रहा जाएगा।
एकाएक मुंशी वज्रधर लाठी टेकते आते दिखायी दिये। चेहरा उतरा हुआ था, पाजामें का इजारबन्द नीचे लटकता हुआ। आंगन में खड़े होकर बोले-रानीजी, आप कहां हैं? जरा कृपा करके यहां आइएगा, या हुक्म हो, तो मैं ही आऊं।
राजा साहब ने चिढ़कर कहा-क्या है, यहीं चले आइये। आपको इस वक्त आने की क्या जरूरत थी? सब लोग यहाँ चले आये, काई वहां भी तो चाहिए।
मुंशजी कमरे में आकर बड़े दीन भाव से बोले-क्या करूं; हुजूर, घर तबाह हुआ जा रहा है। हुजूर से न रो, तो किससे रोऊं! लल्लू न जाने क्या करने पर तुला है।
मनोरमा ने सशंक होकर पूछा-क्या बात है, मुंशीजी? अभी तो आज बाबूजी वहां मेरे पास आये थे, कोई भी नई बात नहीं कहीं।
मुंशी-वह अपनी बात किसी से कहता है कि आपसे कहेगा। मुझसे भी कभी कुछ नहीं कहा, लेकिन आज प्रयाग जाने को तैयार बैठा हुआ है। बहू को भी साथ लिये जाता है।
मनोरमा-आपने पूछा नहीं कि क्यों जा रहे हो? जरूर उन्हें किसी बात से रंज पहुंचा होगा नहीं तो बहू को लेकर न जाते। घर में किसी ने ताना तो नहीं मारा?
मुंशी-इल्म की कसम खाकर कहता हूं जो किसी ने चूं तक की हो। ताना उसे दिया जाता है, जो टर्राये। वह तो सेवा और शील की देवी है; उसे कौन ताना दे सकता है? हां, इतना जरूर है कि हम दोनों आदमी उसका छुआ नहीं खाते?
मनोरमा ने सिर हिलाकर-अच्छा, यह बात है! भला, बाबूजी यह कब बर्दाश्त करने लगे। मैं अहल्या की जगह होती, तो उस घर में एक क्षण भी न रहती। वह न जाने कैसे इतने दिन तक रह गयी।
मुंशी-आप जरा चलकर उसे समझा दें। मुझ पर इतनी दया करें। सनातन से जिन बातों को मानते आये हैं, वे अब छोड़ी नहीं जातीं।
मनोरमा-तो न छोड़िए, आपको कोई मजबूर नहीं करता। आपको अपना धर्म प्यारा है और होना भी चाहिए। उन्हें भी अपना सम्मान प्यारा है और होना चाहिए। मैं जैसे आपको बहू के हाथ का भोजन ग्रहण करने को मजबूर नहीं कर सकती, उस भांति उन्हें भी यह अपमान सहने के लिए नहीं दबा सकते। आप जानें और वह जानें, मुझे बीच में न डालिए।
