Surya Namaskar
Surya Namaskar

भारतीय संस्कृति की सनातन परम्परा में भगवान भास्कर का स्थान अप्रतिम है। स्ूार्य की किरणों में स्वास्थ्य संवर्द्धन और रोगों के नाश की भी अद्भुत शक्ति है। कैसे जानें इस लेख से।

भगवान सूर्य को प्रत्यक्ष देव कहा जाता है। ऋग्वेद का कथन है कि सूर्य ही अपने तेज से सब को प्रकाशित करते हैं। यजुर्वेद में कहा गया है कि सूर्य ही सम्पूर्ण भुवन को उज्जीवित करते हैं। अथर्ववेद में प्रतिपादित है कि सूर्यदेव हृदय की दुर्बलता, हृदय रोग और कास रोग का शमन करते हैं। वेदों में आयुर्वेद का वर्णन है, वहीं आयुर्वेद के अंतर्गत चिकित्सा की विभिन्न पद्धतियों में सूर्य चिकित्सा आदि का भी उल्लेख है।

सूर्य आराधना का महत्त्व

सूर्य की आराधना-उपासना विविध रुपों में की जाती है। कुछ लोग पूजात्मक, प्रतिकात्मक, पाठात्मक विधि से सूर्य की उपासना करते हैं, तो कुछ लोग जपात्मक एवं हवनात्मक विधि से उपासना करते हैं। सूर्य औषधि का निर्माण करता है और अपनी किरणों के माध्यम से अनेक रोगों का उपचार भी करता है।

सूर्य किरणों के सात रंग

शास्त्रों के अनुसार सूर्य के प्रकाश में सप्त रश्मियां-लाल, हरी, पीली, नीली, नारंगी, आसमानी और कासनी रंग विद्यमान होती है।

उगते सूर्य का महत्त्व

वैज्ञानिकों ने ने यह सिद्ध कर दिया है कि उगते हुए सूर्य की किरणों में अल्ट्रावायलेट किरणों का समावेश अधिक रहता है। इन किरणों से विटामिन ‘डीÓ एवं विटामिन ‘सीÓ की प्रचुर मात्रा शरीर को प्राप्त होती है।
सूर्य नमस्कार से लाभ- सूर्य नमस्कार में सूर्य के द्वारा शरीर में निम्न किरणों के माध्यम से शक्ति पहुंचती हैं-

नीली किरणें– सूर्य के प्रकाश में उपस्थित नीली किरणें शरीर को ठंडक एवं शांति प्रदान करती हैं। यह सब रंगों में श्रेष्ठ रंग होता है। इसके अलावा असमय बालों का सफेद होना, बालों का गिरना एवं सिर की पीड़ा को भी दूर करती है। यह आयुर्वेद में पित्त दोष का शमन करता है।

पीली किरणें– सूर्य के प्रकाश में स्थित पीली किरणें आमाशय, यकृत, प्लीहा, फेफड़े, हृदय, आंत्र इत्यादि अवयवों को क्रियाशील बनाता है तथा यदि ये अंग विकृत हैं, तो उनको प्राकृत या ठीक करता है। कफ प्रधान रोग को भी ठीक करता है।

लाल किरणें– इसी प्रकार सूर्य प्रकाश में स्थित लाल किरणें तंत्रिका तंत्र को बल प्रदान करती हैं, जिससे मानसिक क्रियाओं के साथ-साथ शारीरिक क्रियाएं भी सम्यक होती हैं। यह आयुर्वेद में वात प्रधान रोग को ठीक करती है।

सूर्य नमस्कार के द्वारा सम्पूर्ण शरीर का भी व्यायाम होता है। शरीर की ताजगी एवं स्ऌफूर्ति के लिए व्यक्ति को रोजाना सूर्योदय एवं सूर्यास्त के समय 5-5 बार सूर्य नमस्कार करना चाहिए।

आरोग्य एवं स्वास्थ्य की दृष्टि से तो सूर्य नमस्कार का महत्त्व है ही, आध्यात्मिक दृष्टि से भी उसका महत्त्व है। आध्यात्मिक दृष्टि से सूर्य नमस्कार का महत्त्व तब और अधिक हो जाता है जब निम्न मन्त्रोच्चार पूर्वक उस प्रक्रिया का अनुसरण किया जाता है-

हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्य पिहितं मुखम्। तत् त्वं पूषान् अपावुणु धर्माय दृष्टये।।
अर्थात् हे सूर्य! सुवर्ण पात्र में ढके हुए सत्य के मुख को सत्य धर्म के लिए और सत्य दृष्टि के लिए खोलो।

सूर्य नमस्कार के लिए शरीर के अंगों से विभिन्न क्रियाएं करते हुए बारह अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है। इन बारह अवस्थाओं में शरीर के अंगों की स्थिति एवं क्रिया निम्न प्रकार है-

प्रथम अवस्था– आसन के 2/3 भाग को पीछे तथा 1/3 भाग को आगे छोड़कर खड़े होते हैं। एड़ियां मिली रहती हैं तथा पंजे खड़े रहते हैं। फिर दोनों हाथ जोड़ते हुए छाती के सामने लाते हैं। अंगूठे हृदय की ओर तथा अंगुलियां आपस में मिली रहती हैैं जैसे नमस्कार करते हैं तथा आंखों को आसानी से बंद करते हैं तथा सूर्य का आह्वान आज्ञा चक्र में जो कि भूमध्य में स्थित होता है का मित्र के रूप में करते हैं। तत्पश्चात् मन्त्रोच्चारण ऊं मित्राय नम: करते हैं।

द्वितीय अवस्था– इस अवस्था में श्वास भरते हुए हाथों को सिर से ऊपर ले जाकर धड़ को पीछे की ओर मोड़ते हैं। इससे पृष्ठ वंश मेरु दण्ड लचीला होता है। इसके पश्चात् विशुद्धि चक्र (जिसका स्थान कंठ प्रदेश) पर ध्यान करते हुए ऊं रवए नम: का उच्चारण करते हैं।

तृतीय अवस्था– इस अवस्था में श्वास को बाहर निकालते हुए मणिपुर चक्र (जिसका स्थान नाभि) पर ध्यान केंद्रित करते हुए शरीर का मध्यांतर भाग नीचे झुकाते हुए दोनों हाथों को भूमि पर टिकाकर मस्तिष्क को घुटने से छूते हैं। तत्पश्चात् श्वास बाहर निकालकर मंत्र ऊं सूर्याय नम: का उच्चारण करते हैं। इसमें शरीर की स्थिति उत्तान पादासन के समान होती है।

चतुर्थ अवस्था– इस अवस्था में बाएं पैर को श्वास भरते हुए पीछे की ओर ले जाते हैं तथा पंजा खड़ा रखते हैं। कमर नीची कर छाती आगे की ओर निकालकर गर्दन पीछे की ओर करते हैं।

ध्यान स्वाधिष्ठान चक्र (जो लिंग मूल में स्थित है) पर रखते हुए मंत्र ऊं भावने नम: का उच्चारण करते हैं।

पंचम् स्थिति– श्वास बाहर को निकालते हुए दाएं पैर को भी पीछे ले जाते हैं। एड़ियां मिलाकर भूमि से लगाते हैं। नितंब अधिक से अधिक ऊपर की ओर रखते हैं। ठोडी कंठकूप में रखते हुए शरीर को पीछे की ओर धकेलते हैं। ध्यान सहस्रसार चक्र (सिर) पर ध्यान रखकर मंत्र ऊं खगाए नम: का उच्चारण करते हैं।

छठी स्थिति– श्वास भरते हुए शरीर के समानान्तर करते हैंं। भूमि के समानान्तर करते समय पहले घुटने, फिर छाती तथा उसके बाद माथा भूमि पर लगाते हैं। पेट थोड़ा ऊपर उठा हुआ रखते हैं। ध्यान अनाहत चक्र (हृदय के पीछे) पर रखते हुए मंत्र ऊं पूषणे नम: का उच्चारण करते हैं।

सातवीं स्थिति– शरीर को आगे निकालकर श्वास भरते हुए कुहनियां सीधी करते हैं। छाती आगे की ओर निकालते हैं तथा गर्दन पीछे की ओर करते हैं जैसे भुजंगासन। ध्यान मूलाधार चक्र (गुद स्थान) पर लगाकर मंत्र ऊं हिरण्य गर्भाय नम: का उच्चारण करते हैं।

आठवीं स्थिति– श्वास निकालते हुए दाएं पैर को पीछे ले जाते हैं। एड़ी भूमि पर लगाकर नितंब को अधिक से अधिक ऊपर की ओर रखते हैं। फिर सहस्रसार चक्र (सिर) पर ध्यान रखकर मंत्र ऊं मरीचये नम: का उच्चारण करते हैं अर्थात् पांचवीं स्थिति के अनुसार आकृति बनती है।

नवीं स्थिति– यह चौथी स्थिति के अनुसार बाएं पैर को पीछे की ओर ले जाते हैं। कमर नीची, छाती आगे तथा गर्दन पीछे की ओर करते हैं। इस स्थिति में श्वास शरीर के अंदर लेते हैं। ध्यान स्वाधिष्ठान चक्र (लिंग मूल) पर रखकर मंत्र ऊं भावने नम: का जाप करते हैं।

दसवीं स्थिति– श्वास बाहर निकालते हुए तृतीय अवस्था की ओर जाते हैं अर्थात् ध्यान मणिपुर चक्र (नाभि) पर केन्द्रित करते हुए नीचे की ओर झुकाते हैं। दोनों हथेलियों जमीन पर तथा माथा घुटने से लगाते हैं और ऊं सवित्रे नम: मंत्र का उच्चारण करते हैं।

ग्यारहवीं स्थिति– इसमें श्वास भरते हुए दोनों बाजुओं को गर्दन के साथ पीछे की ओर लेकर जाते हैं। ध्यान विशुद्धि चक्र (कंठ) पर रखकर मंत्र ऊं अर्काय नम: का उच्चारण करते हैंं अर्थात् द्वितीय स्थिति के अनुसार करते हैं।

बारहवीं स्थिति– इसमें दोनों हाथ जोड़ते हुए छाती के सामने नमस्कार की मुद्रा में लाते हैं। श्वास बाहर निकालकर सामान्य श्वास लेते हैं। शरीर सीधा रहता है। इस प्रकार सूर्यासन पूर्ण होता है।

Leave a comment