कार्तिक मास की अमावस के अंधकार को अपनी आस्था के असंख्य दीपों के प्रकाश से चीरकर हर हृदय को आलोकित करने वाले पंच दिवसीय पर्व दिवाली के ठीक छठे दिन मनाया जाता है छठ। छठ एक ऐसा पर्व है जिसमें ऊर्जा के अजस्रोत सूर्य के प्रति समर्पण, उपासना एवं आराधना के साथ ही अनुग्रह भाव भी शामिल हैं।
छठ एवं पौराणिक लोक कथाएं
भारत में व्यवस्थित रूप से ये लोक पर्व कब जनजीवन का अंग बना, इस संदर्भ में निश्चित रूप से कुछ कहना बेशक कठिन हो, किन्तु रामायण एवं महाभारत में भी इस पूजन के संदर्भ उपलब्ध हैं।
मान्यता है कि लंका विजय के उपरान्त रामराज्य की स्थापना के दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को भगवान राम एवं माता सीता ने उपवास किया एवं सूर्यदेव की आराधना की और सप्तमी को सूर्योदय के समय पुन: अनुष्ठान कर सूर्यदेव से आशीर्वाद प्राप्त किया।
एक किंवदंती के अनुसार ऐतिहासिक नगर मुंगेर के सीताचरण नामक स्थान पर मां सीता ने छह दिनों तक रहकर सूर्य पूजा की थी। कहते हैं कि 14 वर्ष के वनवास के बाद श्री राम जब अयोध्या लौटे तो रावण वध के पाप से मुक्त होने के लिए ऋषि मुनियों के आदेश पर उन्होंने राजसूय यज्ञ करने का निर्णय लिया। इस यज्ञ के लिए मुदगल ऋषि को आमंत्रण भेजा गया किन्तु ऋषि ने भगवान राम एवं माता सीता को अपने ही आश्रम में आने का आदेश दिया। जब ये दोनों आश्रम पहुंचे तो ऋषिवर ने इन्हें छठ पूजन के बारे में बताया और गंगाजल छिड़क कर माता सीता को पवित्र किया तथा कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी को सूर्य देव की उपासना का आदेश दिया। तब यहीं रहकर माता सीता ने छह दिनों तक सूर्य देव की उपासना की।

एक अन्य मान्यता के अनुसार महाभारत काल में सूर्यपुत्र कर्ण ने सर्वप्रथम सूर्य पूजा प्रारम्भ की। कर्ण प्रतिदिन गंगा में काफी समय खड़े रहकर सूर्य उपासना करते थे।
एक अन्य पौरााणिक कथा के अनुसार राजा प्रियवद को कोई संतान नहीं थी। तब महर्षि कश्यप ने पुत्रेष्ठि यज्ञ कराकर उनकी पत्नी मालिनी को यज्ञाहुति के लिए बनायी गयी खीर दी। इसके प्रभाव से उन्हें पुत्र उत्पन्न हुआ किन्तु वह मृत पैदा हुआ। प्रियवद पुत्र को लेकर श्मशान गये और पुत्र वियोग से व्यथित होकर अपने प्राण त्यागने को तैयार हो गए। उसी समय ब्रह्मïा जी की मानस कन्या देवसेना प्रकट हुई और कहा, ‘सृष्टि की मूल प्रवृत्ति के छठे अंश से उत्पन्न होने के कारण मैं षष्ठी कहलाती हूं। हे राजन! आप मेरी पूजा करें तथा अपनी प्रजा को भी मेरी पूजा के लिए प्रेरित करें।Ó राजा ने ऐसा ही किया। कार्तिक शुक्ल षष्ठी को की गयी इस पूजा के प्रभाव से राजा को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई।
पौराणिक मान्यतानुसार देव माता अदिति ने इस पूजा का प्रारम्भ किया था। देवासुर संग्राम में जब असुरों के हाथों देवों की हार होने लगी तो देव माता अदिति ने तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति हेतु देवारण्य के देव सूर्य मंदिर में छठी मैया की आराधना की। उनकी आराधना से प्रसन्न होकर छठी मैया ने उन्हें सर्वगुण सम्पन्न महातेजस्वी आदित्य, जो त्रिदेव रूप थे, पुत्र रूप में प्रदान किया जिन्होंने असुरों पर विजय प्राप्त की तभी से छठ-पूजन प्रारम्भ हुआ।
वैसे पौराणिक काल में ही सूर्य को आरोग्य देवता भी माना जाता था। ऋषि मुनियों ने अपने अनुसंधान से पाया कि किसी विशेष दिवस पर सूर्य किरणों की रोगों को नष्ट करने की क्षमता बढ़ जाती है। संभव है वह दिवस छठ पर्व ही हो। एक कथा के अनुसार श्री कृष्ण के पौत्र साम्ब को कुष्ठ रोग हो गया था। इस रोग से मुक्ति हेतु शाक्य द्वीप से सूर्योपासना हेतु ब्राह्मïण को बुलाया गया तब यह रोग दूर हुआ।
इस प्रकार विश्लेषण किया जाए तो हम पाते हैं कि हमारे देश में ऌप्राकृतिक शक्तियों एवं निधियों का पूजन पूर्व वैदिक काल से ही प्रारम्भ हो चुका था। ऋग्वैदिक काल में इसे पूर्ण रूप से शास्त्रोक्त मान्यता मिली। सूर्य और उसकी उपासना की चर्चा विष्णु पुराण, भगवत पुराण, ब्रह्मïवैवर्त पुराण आदि में भी विस्तार से मिलती है। मध्य काल तक छठ पूजा सूर्योपासना के व्यवस्थित पर्व के रूप में प्रतिष्ठित हो गयी। छठ मईया को सूर्य की बहन माना जाता है।

पूर्वी भारत की पहचान है छठ
सूर्योपासना के इस अनुपम लोकपर्व का वास्तविक केन्द्र पूर्वी भारत के बिहार, झारखण्ड, पूर्वी उत्तर-प्रदेश और नेपाल की तराई वाला क्षेत्र है। सम्भवत: इसका कारण श्री सीता जी की जन्मस्थली मिथिला होना है। किन्तु अब ये पर्व प्रवासी भारतीयों के साथ-साथ विश्व भर में मनाया जाने लगा है क्योंकि इस पर्व के आयोजन में स्पष्ट रूप से कोई मूर्ति पूजा शामिल नहीं है। अत: कई अन्य धर्मावलम्बी भी इसमें रुचि लेते हैं।
कहीं-कहीं ललही छठ, चैती छठ और हर छठ के रूप में प्रतिष्ठित इस लोक पर्व के अनुष्ठान काफी कठोर हैं। इस पर्व को मनाने का उत्साह महिलाओं में अधिक नजर आता है किन्तु पुरुष भी पूरी श्रद्घा से उनका साथ देते हैं।
वैसे यह पर्व वर्ष में दो बार मनाने की परम्परा है। पहली बार चैत्र मास में चैती छठ के नाम से और दूसरी बार कार्तिक मास में कार्तिकी छठ के नाम से। दोनों बार ही शुल्क पक्ष की षष्ठी को इसे मनाने की परम्परा है। किन्तु अधिक महत्त्वपूर्ण एवं लोकप्रिय कार्तिक छठ ही माना जाता है।
पूजन की परम्परा
छठ पूजा वस्तुत: 4 दिनों तक होती है। भैया दूज के तीसरे दिन अर्थात कार्तिक शुल्क चतुर्थी सेे यह प्रारम्भ होता है और चौथे दिन कार्तिक शुल्क सप्तमी को समाप्त होता है। इन चार दिनों में पूरा वातावरण छठ मैया के मधुर लोकगीतों से गूंज उठता है।
इस पर्व के प्रथम दिवस को ‘नहाय खाय’ कहा जाता है। इस दिन सेंधा नमक और घी से बना अरबा चावल और कद्दू की सब्जी प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं। अगले दिन उपवास प्रारम्भ होता है। पूरे दिन निर्जल उपवास रखकर शाम को श्रद्घालु गन्ने के रस की खीर बना कर पूजा के बाद प्रसाद ग्रहण करते हैं। इसे ‘खरना’ कहते है। तीसरे दिन डूबते हुए सूर्य को दूध का अर्घ्य देते हैं। अन्य पर्वों के समान इसमें पवित्रता का विशेष ध्यान रखा जाता है। प्रसाद रुप में ठेकुआ बनाया जाता है। प्रसाद से भरे सूप से छठी मैया के पूजन का विधान है जो अधिकांशत: नदी किनारे सामूहिक रूप से सम्पन्न होता है। चौथे दिन अर्थात कार्तिक शुक्ल सप्तमी को उदित होते सूर्य को अर्घ्य देने की परम्परा है जहां शाम को अर्ध्य दिया हो वहीं सुबह अर्ध्य देने की परम्परा है। तत्पश्चात् प्रसाद ग्रहण कर इस पर्व का पारन करते हैं।
पर्व का वैज्ञानिक पक्ष
वैज्ञानिक आधार पर यदि विश्लेषण किया जाए तो विज्ञान के अनुसार षष्ठी तिथि, छठ पर्व के दिन एक विशेष खगोलीय परिवर्तन होता है। इस समय सूर्य की परा-बैंगनी किरणें (द्यह्लह्म्ड्ड ङ्कद्बशद्यद्गह्ल क्रड्ड4ह्य) पृथ्वी की सतह पर सामान्य से अधिक मात्रा में एकत्र हो जाती हैं। सूर्योदय और सूर्यास्त के समय इन किरणों की सघनता बढ़ जाती है। सम्भवत: जल में खड़े होकर या नदी किनारे अर्घ्य देने की परम्परा के पीछे इन किरणों के दुष्प्रभाव से बचना ही एक मात्र कारण हो सकता है।
योगशास्त्र की दृष्टि से
छठ पूजा वास्तव में शरीर एवं मन शुद्घीकरण की छ: आयामी प्रक्रिया है।
पहला स्तर है शरीर एवं आत्मा के विषैले तत्वों से मुक्ति (Detoxification) जो उपवास एवं सूर्य अर्थात अग्नि तत्व को सम्पूर्ण समर्पण भावना के द्वारा होती है।
दूसरे स्तर पर आराधक नदी के जल में कमर तक खड़ा होकर सूर्य को अर्घ्य देता है। इससे सुषुम्ना जाग्रत होती है।
तीसरे स्तर पर त्रिवेणी, (तीनों नाड़ियां, इला, पिंगला एवं सुषुम्ना) द्वारा सूर्य की ऊर्जा (Soler Energy) से युक्त किरणें शरीर में प्रवेश करती हैं।
चौथे स्तर पर त्रिवेणी जाग्रत हो उठती है।
पांचवे स्तर पर आराधक की कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत हो उठती है और छठे स्तर पर आत्मा और शरीर पूरी तरह से शुद्घ हो जाते हैं और तब जो ऊर्जा आराधक ने प्राप्त की है वह उसके शरीर से होती हुई पुन: सृष्टि में वापस चली जाती है।
इस प्रकार देखा जाए तो छठ पर्व वास्तव में ऌप्रकृति से जुड़ाव का और प्रकृति के जीवन तत्त्वों को सम्मान देने एवं उन्हें धन्यवाद देने का पर्व है। दशहरा पर्व से दीपावली के समापन तक मिष्ठान एवं गरिष्ठ भोजन से त्रस्त शरीर को इस पर्व पर उपवास करके, वो भी निर्जल, पुन: स्वस्थ किया जाता है। अत: यह पर्व स्वास्थ्य रक्षण की दृष्टि से भी विशेष महत्त्व रखता है।
यह भी पढ़ें –दान द्वारा सुख-समृद्धि
