लगभग साढ़े पांच सौ वर्ष पूर्व भारत कई छोटे छोटे भागों में विभाजित था। हर भाग स्वतंत्र रूप से एक राज्य था। इन राज्यों के राजा एक दूसरे के शत्रु होते थे और एक दूसरे पर हमला करते रहते थे। चारों तरफ अत्याचार और अनैतिकता का वर्चस्व था। संप्रदायिक झगड़े आए दिन होते रहते थे।

इन विषम परिस्थितियों के बीच 20 अक्टूबर, 1469 को कार्तिक की पूर्णमासी के दिन तलवंडी (अब पाकिस्तान) में एक महापुरुष का जन्म हुआ। उनके पिता का नाम कालू मेहता एवं माता का नाम त्रिपता जी था। दौलता दाई ने बताया कि जन्म के समय बालक रोने के बजाय हंस रहा था और उसके मुंह पर तेज था, बालक ने वाहिगुरु भी बोला था। मुझे लगता है कि यह बालक अलौकिक है। कुछ दिनों बाद नाम रखने के लिए पंडित को बुलाया गएा जिसने नाम रखा नानक। लोगों ने कहा, ‘कैसा नाम है? इससे पता ही नहीं चलता कि हिन्दू है अथवा मुसलमान’, पंडित ने बताया कि ऐसा बालक आज तक नहीं देखा। अब तक हिन्दू मुसलमान अपने अपने अवतारों की पूजा करते आए हैं, नानक की पूजा दोनों करेंगे। यह बालक स्वयं अवतार के रूप में संसार का कल्याण करने के लिए आया है।

बहुत छोटी आयु में नानक भक्तों की तरह चौकड़ी मार ईश्वर भक्ति में लीन हो जाते थे, साथी बालकों के साथ खेलते समय उन्हें भगवान का नाम लेने के लिए कहते थे। उन्हें घर से लाकर रोटी एवं अन्य चीजें देकर कहते थे कि मिलकर खाओ।

सात वर्ष की आयु होने पर उन्हें पंडित जी के पास पढ़ने भेजा गएा। पंडित जी ने उन्हें कुछ अक्षर लिखकर दिये। नानक जी ने उन अक्षरों के अर्थ पूछे। पंडित जी ने कहा अक्षर के अर्थ नहीं होते, अक्षर के साथ मिलकर जो शब्द बनेगा उसके अर्थ होंगे। नानक जी ने अक्षर के श्लोक सुना दिये। पंडित ने कहा ‘आप को कौन पढ़ा सकता है, आप तो दुनिया को पढ़ाने आए हैं।’ फिर पिता जी ने एक मौलवी के पास पढ़ने भेजा। नानक जी ने मौलवी को ही पढ़ा दिया ‘अव्वल अल्ला नूर उपाया कुदरत के सब बंदे, एक नूर ते सब जग उपजया कौन भले कौन मंदे।’

युवा अवस्था में आने पर पिताजी ने बीस रुपए दिए और बाजार जाकर किराने का सामान खरीद कर खरा सौदा करने का आदेश दिया। नानक जी अपने प्यारे शिष्य मरदाना जी के साथ शहर लाहौर गए और सामान लेकर वापस आने पर कुछ भूखे साधुओं को खाना खिलाकर कहा कि यही तो खरा सौदा है।

उनके जीजा जय राम जी ने नानक जी को सुल्तानपुर ले आए और मोदी खाने में मोदी बना दिया। वे अनाज को तौला करते थे और तेरह से आगे भी तेरह तेरा बोलते हुए तौलते जाते थे।

नानक का विवाह एवं संतान

सन् 1487 में 18 वर्ष की अवस्था में मूल चंद की पुत्री सुलक्खनी जी के साथ विवाह हुआ। जब उनकी बारात दुल्हन के घर पहुंची तो ससुराल वालों को पता चला कि नानक तो साधु संत स्वभाव के हैं और पता नहीं कब घर गृहस्थी छोड़ दें। तब नानक जी को एक कमजोर दीवार के पास बैठा दिया गएा ताकि उस दीवार को गिराकर नानक को मार दिया जाए, बहुत जोर लगाने पर भी दीवार न गिर सकी और जो आज भी उसी अवस्था में खड़ी है।

गृह त्याग एवं सन्यास

सन् 1507 में नानक ने एकांतवास ले लिया और एक नदी में डुबकी लगा ली और कुछ दिन नदी में ही समाये रहे लोगों ने समझा तेरा तेरा में सब लुटा दिया है, तभी डूब गए हैं। गुरु जी का हिसाब किया गएा था। अनाज स्टॉक में अधिक पाया गएा। गुरु जी बाहर निकल कर बोले ‘न कोई हिन्दू न मुसलमान।’ सभी इंसान एक बराबर है सबका एक प्रभु है। नानक ने घर गृहस्थी छोड़ दी और जगत का उद्धार करने के लिए निकल पड़े। उनके साथ उनके दो शिष्य भी साथ थे। एक हिन्दू बाला जी दूसरा मुसलमान मरदाना। पहला प्रचार दौरा पूर्व हिन्दू तीर्थ स्थान से शुरू किया। इसका मुख्य उद्देश्य प्रभु का जप करना, अंध विश्वास समाप्त करना था।

नानक से जुड़ी कुछ घटनाएं

  • एक बार एक शहर में वह अति गरीब व्यक्ति के घर में रूके जो बढ़ई था और खाट बुनता था। उसका नाम लालो था वह मेहनत मजदूरी को ईमान समझता था और प्रभु भक्ति में लीन रहता था। उसी शहर में एक धनी व्यक्ति रहता था, जिसका नाम महता भागो था। वह बहुत अभिमानी था। उसने गुरु जी को अपने घर ब्रह्म भोज करने बुलाया। गुरु जी ने उसके घर जाने और ब्रह्म भोज खाने से मना कर दिया। भागो के बार-बार बुलाने और भोजन करने की प्रार्थना पर गुरु जी ने कहा ‘तेरे खाने में गरीबों का निचोड़ा हुआ खून है और लालो की सूखी रोटी में दूध। भागो ने इसे दिखाने के लिए कहा तो गुरू जी ने अपनी मुट्ठी दबाकर लालो की रोटी में दूध और भागो के पकवान में खून निकाल कर दिखा दिया।
  • गुरु जी एक शहर में रूके हुए थे तो वहां के नवाब ने कहा कि आप कहते हैं कि हिन्दू-मुसलमान एक हैं तब हमारे साथ नमाज पढ़ो। नानक देव जी मस्जिद गए और बैठ गए नवाब ने कहा आपने हमारे साथ नमाज क्यों नहीं पढ़ा? गुरु जी ने कहा, ‘तुमने कौन सा नमाज पढ़ा? बेकार में कभी उठते हो कभी झुकते, कभी बैठते, जबकि तुम्हारा ख्याल तो कल पैदा हुए घोड़ी के बच्चे पर था जो गड्ढों  में न गिर जाए। ऐसी भक्ति का अर्थ व्यर्थ है जो मन चित्त से न की जाए।’
  • एक बार मरदाना जी ने जंगल में बैठे गुरु जी से भोजन मांगा। गुरु जी ने कहा रीठे के अतिरिक्त कोई चीज नहीं है सो रीठे खा लो। शिष्य मरदाना ने रीठे खाए तो वह मीठे हो गए आज भी उस वृक्ष के रीठे मीठे हैं।
  • 5 दिसम्बर, 1519 में गुरु नानक जी मक्का पहुंचे और काबे की ओर पैर कर सो गए मुल्ला बहुत चिल्लाया। गुरु जी ने कहा, ‘मैं परदेशी हूं मुझे मालूम नहीं, जिधर ईश्वर का घर न हो उधर मेरे पैर कर दो। उसने पैर पकड़ कर दूसरी तरफ कर दिए तो काबा भी घूम कर उधर हो गएा जो आज भी दूसरी तरफ ही है।
  • एक व्यक्ति घोड़े पर जा रहा था, उसने पैदल चलते राहगीर से पूछा बाबा नानक का दरबार कहां है? उस राहगीर ने घोड़े की लगाम पकड़ ली और कहा ‘चलो मैं बताता हूं।’ कुछ आगे चलकर उसने कहा अपना घोड़ा उधर बाध दो और अंदर चले जाओ, वहां पर नानक बैठे हैं। घुड़सवार जब उस स्थान पर पहुंचा तब सामने गद्दी पर वही राहगीर आसीन था। घुड़सवार आगे बढ़ा और नानक देव जी के चरणों पर लेट बोला, ‘महाराज कहां आप ईश्वर रूप और कहां मैं एक छोटा साधारण आदमी! आपने मेरे घोड़े की लगाम पकड़ ली और पैदल चले और मैं घोड़े पर बैठा रहा।’ गुरु नानक ने कहा, ‘नानक के दरबार में दर्शन करने वाला कोई व्यक्ति साधारण नहीं हो सकता। कोई भी भक्त ईश्वर की ओर जाता है तब वह मात्र भक्त नहीं रह जाता, ईश्वर से उसका कम स्थान नहीं रह जाता। अच्छा तुम्हारा नाम क्या है? घुड़सवार बोला, ‘महाराज, मेरा नाम लहना है। गुरु जी मुस्करा पड़े और कहा अच्छा तू लहना और मैं देना। अर्थात तू लेने वाला मैं देने वाला।’

उस दिन के बाद से भाई लहना जी अपने घर नहीं गए। दिन-रात गुरु नानक देव जी के दरबार में सेवा करते, भक्ति करते। गुरु नानक देव जी ने उनकी सच्चीभक्ति सेवा देख उन्हें अपनी गद्दी का वारिस घोषित कर दिया और उनका नाम रखा अंगद देव जी, जो सिखों के दूसरे गुरू बनें।  

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