कौन हैं ये नानक! क्या केवल सिक्ख धर्म के संस्थापक! नहीं, मानवधर्म के उत्थापक। क्या वे केवल सिक्खों के आदिगुरु थे? नहीं, वे मानव-मात्र के गुरु थे। पांच सौ वर्ष तक उन्होंने जिन पावन उपदेशों का प्रकाश जन-जन को दिया, उससे आज भी पूरी मानवता आलोकित है। नानक कोई दार्शनिक नहीं हैं। वे कोई शास्त्र नहीं रच रहे हैं। वे तो अपना अंतर्भाव कह रहे हैं। जैसा उन्होंने अनुभव किया, वही कह रहे हैं। नानक की धारणा परम समर्पण की है। वही भक्त की परम साधना है। नानक ने योग नहीं किया, तप नहीं किया, ध्यान नहीं किया। नानक ने सिर्फ गाया और गाकर ही पा लिया। उनका गीत ही ध्यान हो गया। गीत ही योग बन गया, गीत ही तप हो गया।

गुरु नानक एकेश्वरवादी थे। वे एक ईश्वर के अतिरिक्त किसी दूसरे का स्मरण उचित नहीं समझते थे। वे कहते थे-

दूजा काहे सिमरिए, 

जन्मे ते मर जाय।

एक सिमरो नानका, 

जो जल-थल रहिआ समाय।

उन्होंने नाम-स्मरण को महत्त्व दिया। उनके अनुसार जिसने इस संसार में आकर नामस्मरण नहीं किया, उस जैसा दुर्भागी कोई नहीं है- ‘नाम अराधन ना मिलै नानक हीन करम।’ 

ईश्वर के यहां जाति-पाति का विचार महत्त्वहीन है। जो भी उसे सच्चे मन से स्मरण करेगा, वही उसे पाएगा। साहब के दीदार को सच्चे इश्क की जरूरत है। नानक ने कहा है-

खत्री ब्राह्मण सूद बैस,

जाति पूछि न देई दाति।

नानक भार्ग पाइये,

त्रिह पहरे पिझली राति।

नानक ने हिंदू-मुसलमान के भेद को स्वीकार नहीं किया। उनका मत था कि सभी एक ईश्वर के पुत्र हैं। फिर भेद-भाव कैसा? एक काजी द्वारा यह पूछने पर कि ‘आप हिंदू हैं या मुसलमान’ नानक जी ने कहा था-

हिंदू कहों तो मारिये, 

मुसलमान भी नाहिं 

पांच तत्त्व का पूतला, 

नानक मेरा नाम।

उन्होंने मोह-माया, धन-वैभव को निरर्थक मानते हुए कहा कि सबको इस संसार से अकेले ही जाना है, जिन्हें तू अपना समझे बैठा है, वे सभी अंत समय में तुझसे अलग हो जाएंगे।

मित्रां दोस्त माल धन,

छडिड चले अति भाइ।

संगी न कोई नानका,

उह हंस अकेला जाई। 

और यह हंस 70 वर्ष की साधना के पश्चात् सन् 1539 में परम ज्योति में विलीन हो गया।  

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