यदुवंशी राजा शूरसेन अवंती (उज्जैन) में राज्य करते थे। उनका एक फुफेरा भाई था, जिसका नाम कुंतिभोज था। कुंतिभोज और शूरसेन में अत्यंत प्रेम था। कुंतिभोज की कोई संतान नहीं थी। शूरसेन ने उन्हें वचन दिया था कि वे अपनी पहली संतान उन्हें दे देंगे।
कुछ समय बाद शूरसेन के घर एक पुत्री ने जन्म लिया। उन्होंने पुत्री का नाम पृथा रखा। तत्पश्चात् वचन के अनुसार उन्होंने वह कन्या कुंतिभोज को गोद दे दी। कुंतिभोज ने कन्या का नाम पृथा से बदलकर कुंती रख दिया। इस प्रकार रिश्ते में कुंती वासुदेव की बहन और श्रीकृष्ण की बुआ थी। युवा होने पर कुंती के रूप-सौंदर्य की कीर्ति दूर-दूर तक फैल गई।
एक बार राजा कुंतिभोज के महल में महर्षि दुर्वासा का आगमन हुआ। वे कुछ दिन वहां विश्राम करना चाहते थे। कुंतिभोज ने उनके रहने की व्यवस्था करके उनकी सेवा में कुंती को नियुक्त कर दिया। पितृ-आज्ञा का पालन करते हुए कुंती श्रद्धापूर्वक दुर्वासा मुनि की सेवा करने लगी।
दुर्वासा मुनि कुंती की सेवा से अत्यंत प्रसन्न हुए और वर स्वरूप उसे एक दिव्य मंत्र प्रदान करते हुए बोले‒”पुत्री! इस दिव्य मंत्र का जप करके तुम जिस देवता का ध्यान करोगी, वह उसी समय प्रकट होकर तुम्हें अपने समान एक तेजस्वी पुत्र प्रदान करेगा।” यह कहकर वे वहां से चले गए।
दुर्वासा मुनि के जाने के बाद कुंती के मन में वरदान की सत्यता जानने की जिज्ञासा उत्पन्न हुई। उसने मंत्र का जप करके जैसे ही सूर्यदेव का ध्यान किया, वैसे ही वे उसके समक्ष प्रकट हो गए।
तेजयुक्त भगवान सूर्यदेव को देखकर कुंती भयभीत हो गई और क्षमा-याचना करते हुए बोली‒ “भगवन्! मैं केवल उत्सुकतावश दुर्वासा मुनि द्वारा दिए गए मंत्र का प्रयोग कर बैठी। कृपया मेरे इस अपराध को क्षमा करें।”
सूर्यदेव कुंती के मनोभाव समझ गए और उसे धैर्य बंधाते हुए बोले‒”भद्रे! मंत्र में बंधे होने के कारण तुम्हें पुत्र प्रदान किए बिना मैं यहां से नहीं जा सकता, परंतु तुम चिंतित मत होओ। मैं तुम्हें वरदान देता हूं कि मुझसे पुत्र प्राप्त करने के बाद भी तुम्हारा कौमार्य भंग नहीं होगा।”
सूर्यदेव के समझाने के बाद कुंती का भय समाप्त हुआ और उसने उनके अंश से उन्हीं के समान एक तेजस्वी और दिव्य बालक को जन्म दिया। जन्म से ही बालक दिव्य कुंडल और कवच से सुशोभित था। लोक-निंदा के भय से कुंती ने उस बालक को एक टोकरी में लिटाकर यमुना नदी में बहा दिया।
बाद में वह बालक हस्तिनापुर के राजकीय सारथी अधिरथ को मिला। उसने उसका नाम वसुषेण रखा और पुत्र की भांति उसका लालन-पालन किया। अधिरथ की पत्नी का नाम राधा था, इसलिए उस बालक को राधेय भी कहा गया। यही बालक आगे चलकर सूर्य-पुत्र कर्ण के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
