शीला की कहानी ओशो की जुबानी: Osho Interview (part 1)
Osho Interview (part 1)

Osho Interview: फिल्म ‘वाइल्ड-वाइल्ड कंट्री’ भले ही ओशो के हर प्रेमी व विरोधी ने न देखी हो पर सवाल देर-सबेर उभर ही गए हैं या भविष्य में उभर ही जाएंगे। सवाल, बवाल न बने, इसके लिए जरूरी है, शीला के बयानों पर ओशो के जवाब।

फिल्म देखने के बाद बहुत से लोगों के मन में ओशो, शीला और रजनीशपुरम, इन तीनों के संबंध में बहुत से प्रश्न उठने लगे हैं जैसे, यदि ओशो एक सद्गुरु थे तो उन्हें पता क्यों नहीं चला कि शीला कैसी थी? और यदि पता था तो उन्होंने शीला को क्यों चुना? तो कोई जानना चाहता है कि शीला की हरकतों पर ओशो ने क्या कहा? जनता शीला, आश्रम व उसकी व्यवस्था पर जो इतने सवाल खड़ा करती है उसमें क्या और कितनी सच्चाई है? ओशो की शीला के बारे में क्या राय थी। आज जो शीला इतने सालों बाद अपनी सफाई दे रही है वो उसने पहले क्यों नहीं दी, आज क्यों जब न वो आश्रम है न ही ओशो। शीला जो बोल रही है उसमें कितनी सच्चाई है? जब ओशो को शीला के इरादों और फरार होने का पता चला तो ओशो ने क्या किया? आदि ऐसे कई सवाल है जो दर्शकों के मन में है।

प्रस्तुत है ओशो की ही पुस्तकों से इन सब सवालों के जवाब, जिन्हें वह समय-समय अपने प्रवचनों में देते रहे हैं। हैरानी की बात तो यह है ओशो न केवल सामाजिक, मनोवैज्ञानिक, धार्मिक, आध्यात्मिक, राजनैतिक हर तरह के सवालों के जवाब दे गए हैं बल्कि वह उन सवालों के भी जवाब पहले ही दे गए हैं जो उनके देह त्यागने के बाद भी उठते रहेंगे। ओशो सही अर्थों में ‘संबुद्घ रहस्यदर्शी सद्गुरु’ हैं, शायद यही कारण है कि वह भविष्य में उठने वाली हर समस्या पर पहले से ही बोल चुके हैं। उन्हें अंदेशा था कि उनके जाने के बाद क्या होने वाला है या क्या हो सकता है। बहरहाल प्रस्तुत है उन्हीं की पुस्तकों के संपादित एवं अनुवादित उपर्युक्त धारणाओं एवं जिज्ञासाओं का समाधान।

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रजनीशपुरम की घटना को लेकर बहुतों के मन में यह सवाल उठता है कि ‘ओशो तो एक बुद्घ पुरुष हैं, तो फिर वो शीला को क्यों नहीं पहचान पाए, और यदि शीला को पहचान पाए थे, तो उन्होंने शीला को अपना सचिव व प्रवक्ता क्यों चुना? इस प्रश्न के उत्तर में ओशो कहते हैं-

यह आपकी गलतफहमी है कि बुद्ध पुरुष भविष्य देखता है। नहीं, बुद्ध पुरुष वर्तमान में जीता है, भविष्य से उसका कोई संबंध नहीं होता। वह वर्तमान को पूरी पूर्णता के साथ, होश के साथ देखता जीता है, परंतु इंसान का भविष्य अप्रत्याशित है।

ओशो ने शीला को चुना? इस संदर्भ में ओशो कहते हैं कि-

‘जिस तरह किसी इमारत की नींव भरने में हर तरीके के पत्थर की जरूरत होती है, चाहे वह पत्थर कितना भी खराब हो लेकिन नींव भरने में काम आ ही जाता है, शीला वैसा ही एक पत्थर थी जिसे मैंने नींव की तरह प्रयोग किया। नींव में हर तरह के पत्थर का प्रयोग किया जाता है चाहे वह अनगढ़ हो और शीला अनगढ़ पत्थर थी, जिसका प्रयोग मैंने नींव को भरने के रूप में किया। मेरी नजर में जोरबा यदि नींव है तो बुद्धा उसके ऊपर बनाया जाने वाला मंदिर। जोरबा आधार हो सकता है मंदिर नहीं। जोरबा बुद्धा के समर्थन में सहयोग कर सकता है, उस की नींव बनकर उसे खड़ा तो कर सकता है, पर जोरबा बुद्धा नहीं बन सकता और शीला मेरे जोरबा का हिस्सा मात्र थी।…

मैंने शीला के हाथ में सारी सत्ता, अधिकार इसीलिए दिए थे क्योंकि मैं छोटी-छोटी चीजों में खुद को उलझाना नहीं चाहता था।

शीला को अपना सचिव चुनने के पीछे मेरे कई अन्य कारण रहे। शीला जरा भी ध्यान नहीं करती थी, पर वह मेरे कार्य करने के ढंग को समझती थी इसलिए मैंने उसको अपनी सचिव चुना।

वह बहुत व्यवहारिक और होशियार थी। वह मेरी दृष्टी को समझती थी, मुझे एक ऐसा इंसान चाहिए था जो हर काम में अपना दिमाग न लगाए, क्योंकि अति बुद्धिमान व्यक्ति हर कार्य में कुछ न कुछ अपना जोड़ या  घटा देता है, जिसके कारण कार्य, कार्य नहीं रहता या उसका अर्थ बदल जाता है। बुद्धिमान व्यक्ति अपनी बुद्धिमत्ता के कारण मेरे संदेश को, मेरे कार्य को खराब कर सकता था। शीला के पास अपनी बुद्धि नहीं थी।

वह उतना और वैसा ही काम करती थी जितना उसे समझाया जाता था। यही उसकी खूबी थी। शीला एक तोते की भांति थी, तोता यानी जिसको जितना सिखा दो वह उसे ही रटता और दोहराता है, कुछ और नहीं। और वह इस चीज में निपुण थी, इसलिए मैंने उसे चुना अपना सचिव चुना।…

शीला कोई बहुत पढ़ी-लिखी नहीं थी यहां तक कि उसके पास यूनिवर्सिटी की कोई डिग्री भी नहीं थी। वह पहले अमेरिका के एक होटल में वेटर्स थी।

1970 में जिस दिन वह पहली बार मेरे कक्ष में आई थी, उसी दिन मैं समझ गया था, कि वह बहुत भौतिकवादी है और उसका भौतिकवादी होना ही उसकी ताकत है। वह बहुत व्यवहारिक और प्रयोगवादी थी व्यवहार कुशल थी पर ध्यान में उसका कोई रुझान नही था। उसमें आध्यात्मिक विकास की चाह नहीं थी। उसे सड़के बनाने, घर बनाने में अधिक दिलचस्पी थी। जिसकी ध्यानियों को आवश्यकता भी थी। इसलिए मैंने उसे अपनी सेक्रेटरी बनाया और उसने अपना कार्य कुशलता पूर्वक पूरा भी किया।

इसमें कोई मत नहीं के शीला ने बहुत ही अच्छा काम किया है उसने 5000 लोगों के लिए नई तकनीक से परिपूर्ण वातानुकूलित कमरे बनवाए ।

इसमें कोई मत नहीं शीला इस कम्यून के लिए बिल्कुल योग्य थी। शायद इसीलिए मैंने यह कम्यून शीला, विद्या और सविता, जैसी औरतों के हवाले किया। इन्होंने अपनी अपार मेहनत से इस रेगिस्तान को एक बगीचे में तब्दील किया, जिसके चलते उन्हें कई प्रकार के राजनीतिक दबाव एवं चुनौतियों का भी सामना करना पड़ा। राजनीति की भाषा चालाकी की भाषा है। उसमें बहुत चालाक मस्तिष्क की जरूरत है तो जाहिर है कि उन सब का सामना करते-करते इन सबकी बुद्धि भी वैसी ही हो गयी होगी। बल्कि इन्हें उनसे भी अधिक निम्न स्तर पर गिरना पड़ा हो। क्योंकि बिना ऐसा किये जीतना या अपना काम निकलवाना मुश्किल है। संभव है अनजाने में उनके साथ यह सब भी उलझते गए और उस गंदी राजनीति का हिस्सा बन गए। और यदि एक बार सत्ता का स्वाद, राजनीति का स्वाद लग जाए तो फिर उस से मुक्त हो पाना बहुत मुश्किल है।

शीला ने जो भी किया, या ओशो व रजनीशपुरम के साथ जो भी हुआ वह आकस्मिक नहीं पूरी तरह नियोजित था। शायद यही कारण था कि शीला भयभीत रहती थी, उसे डर था उसके मनसूबे कहीं प्रकट न हो जाए। जिसके प्रमाण कई जगह दिखते हैं। ओशो कहते हैं-

माना शीला ने कम्यून को बनाने में बहुत बड़ा योगदान दिया है परंतु उसी कम्यून में रहकर उसने बहुत बड़े अपराधों को अंजाम भी दिया है। एक बात का हमेशा ध्यान रखना यदि आप 99 प्रतिशत कुछ अच्छा करते हो और एक प्रतिशत गलत, तो वो एक प्रतिशत आपके सारे कार्य को खराब कर देता है और यही शीला के साथ हुआ।

‘इन चार वर्षों में शीला मुझसे कई बार एक सवाल पूछती रही है ‘भगवान मेरी मदद करो, कुछ ऐसा जिससे मैं कभी भी आपको धोखा न दूं आपके साथ विश्वासघात न करूं।’ जिस पर मैंने उसे कहा ‘तुम यह बात कई बार पूछ चुकी हो, इसका मतलब मुझे धोखा देने की तुम्हारे अंदर संभावना है, वरना तुम यह बात पूछती ही क्यों?’

जब भी वह यह बात कहती तो एक बात मैं हमेशा कहता ‘मुझसे ऐसी बात मत किया करो, क्योंकि मेरा रस वर्तमान में है। मुझे आज में यकीन है, कल पर मेरा कोई विश्वास नहीं। इसलिए आगे की या बाद की बात मत करो, आज की बात करो। लेकिन वह कहती ‘कि मैं आपसे इतना प्यार करती हूं कि वह भविष्य में भी कम नहीं हो सकता।’

इस पर मैं एक बात उसे हमेशा कहता, कि ‘तुम्हें जो कहना है तुम कहो, पर यह देखना मत भूलना कि मैं एक आईना हूं। मैं तुम्हारे मन-मस्तिष्क की’ हर परत में झांक सकता हूं। तुम इस बात पर क्यों जोर दे रही हो कि, मैं आपको धोखा नहीं दूंगी। जिस पर शीला कहती है ‘अगर आप कहो तो मैं अपने अध्यक्षता के पद से इस्तीफा दे देती हूं, अगर आप मुझे जाने के लिए कहोगे तो मैं चली जाऊंगी।’

अब उसने खुद ही इस्तीफा दे दिया है। वह अपने साथ उन बेवकूफों को भी ले गई है जिन्हें कभी उसने शक्तिशाली पदों पर नियुक्त किया था।’

शीला को अपने तल का अंदाजा था शायद यही कारण था कि एक उत्तर को सुनकर शीला ने ओशो से सवाल किया था कि ‘जैसा आपने कहा कि जब हम सब जाग जाएंगे, उस दिन आप हंसेंगे। क्या इसका यह अर्थ नहीं हुआ कि हम आपको कभी हंसते नहीं देख सकेंगे?’

तो ओशो ने कहा था ‘शीला, ऐसा उदास अर्थ लेने की क्या जरूरत है? क्यों नहीं तुम सब जाग सकोगे? इतने निराशावादी होने का क्या कारण है?’

निश्चित ही शीला ओशो के प्रेम में थी, जिसे न केवल वह स्वयं कबूल करती है बल्कि उसके संन्यासी मित्र भी बताते हैं। पर ओशो के प्रति उसका प्यार फरेब में कब और कैसे तब्दील हुआ कि, जिस आश्रम को बनाने में उसने दिन-रात एक किया, उसे वह नष्टï करने में भी वह पीछे नहीं रही।

जब मैं मौन था तब मेरा आप लोगों से संपर्क नहीं था मेरा संपर्क सीधा शीला से था और उसने इस बात का पूरा-पूरा फायदा उठाया। तुम सब उसकी बात पर भरोसा इसलिए कर लेते थे क्योंकि तुम सबको मुझ पर विश्वास था, मुझसे बहुत प्रेम था, इसी बात का उसने फायदा उठाया।

वह मेरे दिए गए संदेश को पूरी तरह बदल देती थी और तुम तक कुछ का कुछ पहुंचाती थी। मैं पिछले साढ़े तीन वर्षों तक इस बात से एकदम अनजान था। दरअसल सत्ता कि एक अजीब विशेषता होती है जब हाथ में ताकत आती है, तो दबी हुई वासना ऊपर ले आती है, यही शीला के साथ हुआ। उसके हाथ में जब सारी पावर आई, तो उसकी जितनी भी छुपी हुई इच्छाएं थीं वो सब उभर आईं, उसका असली व्यक्तित्व प्रकट हो गया।

क्योंकि सत्ता की ताकत हमें मौका देती है हमारे सपनों एवं भौतिक जरूरतों को  सच में बदलने का।हर इंसान के अवचेतन मन में ऐसी बहुत सारी इच्छाएं होती हैं जिससे वह अनजान होता है परंतु जैसे ही हाथ में ताकत आती है तो हमें उन सारी इच्छाओं को पूरा करने का मन करता है। शीला जब तक कम्यून में रही उसके डर के कारण किसी ने कुछ भी उसके खिलाफ बोलने की हिम्मत नहीं की।

मेरे मौन में रहने का उसने यह फायदा उठाया, वह सबसे कहती रही यह ओशो का ही निर्देश है। जब तक मैं मौन में रहा वो ही यहां कि सर्वेसर्वा, एकमात्र शक्ति थी। इस दौरान यूरोप से कोई भी पैसा अगर आता, खासकर जर्मनी से, उसने इन पैसों का कुछ हिस्सा स्विस बैंक में आने नाम से ट्रांसफर करवा लिया। ऐसा करके उसने 43 मिलियन डॉलर चुराए जो यहां आने वाले थे। यहां आने वाला पैसा यहां पहुंचा ही नहीं।

मेरे मौन में रहने के दौरान इन्होंने इस क्षेत्र को एक फासीवादी राज्य में तब्दील कर दिया। लोगों ने मुझे पत्र भी लिखे पर वह मुझ तक कभी पहुंचे ही नहीं। शीला के व्यवहार से तंग आकर बहुत सारे लोग जो अपना सब कुछ बेचकर सिर्फ मेरे सान्निध्य में रहने के लिए आए थे उन्हें अपने आंखों में आंसू के साथ जाना पड़ा।

मेरा संन्यासी पूरी तरह से अराजनैतिक व्यक्ति है, लेकिन शीला ने पिछले 3 वर्षों में तीसरे दर्जे के नेता के रूप में काम किया। एंटी लोप हथियाने की उसकी कोशिश, मुर्खतापूर्ण कोशिश थी। जो भी लोग इनके पक्ष में नहीं थे उन लोगों को इन्होंने हर संभव तरीके से परेशान किया। यहां तक ही उन्होंने मेरे बेडरूम को भी नहीं छोड़ा।

वे लोग मुझे भी मारना चाहते थे। क्योंकि कहीं न कहीं मेरी चुप्पी उनके लिए अनुकूल थी। मेरी अनुपस्थिति में अपना काम वह आराम से कर सकते थे। धीरे-धीरे मुझे पता चला कि यह लोग सभी छोटे-छोटे कम्यून को नष्टï कर, यूरोप में एक बड़े कम्यून बनाने की तैयारी कर रहे हैं। इन्होंने 100 छोटे कम्यून नष्टï कर दिए और उन लोगों को यूरोप में बन रहे 6 बड़े कम्यूनों में जाने को कहा। जहां से सबको एक साथ निर्धारित कर सके। इनका मकसद प्रत्येक चीज को केन्द्रित करना था। खासतौर पर आर्थिक गतिविधियों को।

फिल्म व अपने वक्तव्यों में शीला कहती है कि ‘ओशो को उन्हीं के लोग मारना चाहते थे और शीला को यह बात पता चल गई थी। उसने किसी तरह से ओशो को तो बचा लिया पर उसे उनसे अपनी जान का खतरा था, इसलिए वह भाग गई।’ जबकि स्वयं ओशो का कहना है कि-ऌ

साढ़े तीन सालों में मैंने उसे हर चीज सिखाई है। रोज दो घण्टे उसे मैंने सिखाया है कब क्या और कैसे बोलना है, जिसे बोल-बोल कर वह बाहर के लोगों को आकर्षित करती रही। परंतु उसका वह बोलना तोते की तरह रटना जैसा ही था क्योंकि, वह उसके स्वयं के अनुभव से नहीं उपजा था। वह उसने रटा था। लेकिन मेरे बोलने से उसका वह जादू टूटने लगा और उसके अहंकार को ठेस पहुंचने लगी।

धीरे-धीरे इस सब का नतीजा यह हुआ वह मुझसे बदले की आग में जलने लगी और मौका पाते ही उसने अपने लोगों का एक समूह बनाया, जिसे लेकर वह यहां से फरार हो गई।…

जब मैंने पुन: बोलना आरंभ किया तो किसी को इससे बहुत तकलीफ हुई। शीला को यह पसंद नहीं आया। मैं जानता हूं उस दिन वह दुखी थी और धीरे-धीरे रजनीशपुरम से हटने की कोशिश कर रही थी। कभी ऑस्ट्रेलिया, तो कभी यूरोप में किसी काम का बहाना बनाकर जाती रहती थी और जब वह वहां से लौटकर आती थी तो मुझे पत्र लिखती थी, कि ‘भगवान, अब मुझे यहां वापस आकर पहले जैसा वो सुख व उत्साह महसूस नहीं होता। जितना मुझे ऑस्टे्रलिया, यूरोप या अन्य किसी जगह में होता है।’

इस बात पर मैंने उसे एक संदेश भेजा, और वो ये ‘देखो, अपने आप से पूछो, कि तुम्हारा वो उत्साह कहां गया? सच तो यह है, तुम्हारा रुझान न कम्यून में था, न ध्यान में, उत्साह न मेरे प्रति था, न संन्यासियों के प्रति। तुम बस अपने आपको एक सेलिब्रिटी बनाना चाहती थी। तुम चाहती थी कि लोग तुम्हें पूछे पत्र-पत्रिकाओं एवं टी.वी. रेडियों में तुम्हारी तस्वीर छपे, तुम्हारे इंटरव्यू हों। तुम मीडिया में छाना चाहती थी, जो कि अब मेरे बोलने शुरू करने के बाद अब संभव नहीं है। निश्चित ही तुम मेरी प्रतिनिधि कभी नहीं हो सकती।

आखिर अंत में उसने यह सब करके साबित कर दिया उसके मन में क्या था, वह क्यों मुझसे वो सवाल बार-बार पूछती थी। जब मैं साढ़े तीन साल के लिए मौन में था तब वह प्रवक्ता थी। मुझे पता था जिस दिन मैं बोलना प्ररंभ करूंगा उस दिन शीला के लिए दिक्कत खड़ी हो जाएगी। वो रूतबा, महत्त्व व मान-सम्मान जो उसे लोगों एवं मीडिया में मेरी वजह से मिला है, वह उसे कम होता नजर आएगा।

मैंने उसे साफ-साफ कह दिया था, ”अगर तुम अपने भीतर कोई आध्यात्मिक शक्ति विकसित नहीं करतीं, तो मैं मंदिर की सिर्फ बुनियाद के साथ नहीं रह सकता। बुनियाद में पत्थरों की जरूरत होती है-अनगढ़ बिना तराशे हुए, असुंदर। क्योंकि वे भूमिगत रहने वाले हैं। उन्हें कोई देखने वाला नहीं है; लेकिन उनकी जरूरत होती है। मैंने तुम्हें तुम्हारी भौतिकवादी मनोवृत्तियों के कारण चुना था, लेकिन मैं सिर्फ बुनियाद के साथ नहीं रह सकता। देर-अबेर, या तो तुम ध्यान में विकसित होओ, कुछ आध्यात्मिक रुझान दिखाओ, या फिर मुझे तुम्हें बदलना पड़ेगा।

यह सुनकर वह सचेत हो गई। इससे पहले कि मैं कुछ बदलाहट करूं, उसने सोचा, जितना बन सके उतना धन लेकर भाग जाना ठीक रहेगा; क्योंकि तब उसके हाथ में पूरी ताकत थी। तो उसने पर्याप्त धन चुरा लिया, स्विस बैंक के खाते में उसे रखा, नेपाल में कुछ जमीन खरीदी, नेपाल के बैंक में खाता खोला, और पता नहीं मेरे अनजाने और भी क्या-क्या किया ।

शीला ने खाद्य पदार्थ और दूसरी आवश्यक चीजें जो सर्दियों में जमा कर के रखनी जरूरी होती थीं-जैसे कि कपड़े और ऐसी कई चीजें, यह सब उसने जाने से पहले खरीदना छोड़ दिया था। जिस दिन उसने कम्यून छोड़ा, उस दिन वहां जरा भी खाद्य पदार्थ नहीं था। यह विध्वंस लाने की और अव्यवस्था बनाने की पूर्व-योजना जान पड़ती है-कपड़े वहां नहीं, भोजन वहां नहीं। वह कम्यून को बड़े ऋण तले छोड़ गयी, शायद बीस मिलियन डॉलर का घाटा और उसकी सेक्रेटरी बताती है कि उसका स्विट्जरलैंड में बैंक अकांउट है-बीस मिलियन डॉलर का।

क्योंकि शीला मेरी प्रतिनिधि थी, इसलिए मेरे मौन के दौरान वह पूरी दुनिया में धूम-धूम कर इंटरव्यू दे रही थी और वह एक सेलिब्रिटी बन चूंकी थी।

क्योंकि अब जब तब मैंने दूबारा बोलना आरंभ कर दिया, उसके अहम को चोटे पहुंची, उसे टी.वी. पर अपनी तस्वीर धुंधली होती नजर आने लगी। ऐसा होना ही था, अगर मैं स्वयं ही उपलब्ध हूं तो किसी मीडिएटर, मैसेनजर या किसी प्रतिनिधि की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती।

एक बार एक पत्रकार ने ओशो से  पूछा कि ‘शीला ने आपको धोखा दिया है इसके बाद भी क्या आप महिलाओं पर विश्वास करेंगे?’ ओशो कहते हैं –

शीला ने मुझे नहीं खुद को धोखा दिया है। उसने ऐसा करके अपनी नजरों में खुद को गिराया है। उसे अब पूरी उम्र अपने द्वारा किए गए अपराधों  के बोझ के साथ जीना पड़ेगा। जहां तक मेरा सवाल है ,मुझे उससे किसी प्रकार की कोई उम्मीद नहीं थी। मैंने उससे वफा का ऐसा कभी कोई वादा भी नहीं लिया था।

जहां तक बात महिलाओं पर विश्वास की है, ओशो कहते हैं- ‘निश्चित ही मुझे आज भी महिलाओं पर उतना ही विश्वास है। आज भी आश्रम में मा प्रेम हास्या, मा अनुराधा हैं जो कि प्रमाण है

इस बात का कि, सारी महिलाएं एक जैसी नहीं होती और अगर एक शीला ऐसी हो भी गई तो इससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता।

इन सब में शीला एक ओस की बूंद की तरह है। जैसे सूरज के निकलने से ओस की बूंद हवा हो जाती है, कोई फर्क नहीं पड़ता ऐसे ही शीला की इन हरकतों से मेरे जीवन में स्त्री का सम्मान कम नहीं हो जाता। यही कारण है कि शीला के जाने के बाद मैंने अन्य महिला जो कि उससे अधिक होशियार और काबिल थी उनको मैंने उसकी जगह चुना। शीला मानसिक रूप से बीमार थी, मुझे उसकी हरकतों पर तरस आता है। जहां तक मेरा सवाल है मैंने उसे माफ कर दिया है। एक इंसान के पीछे हम पूरी मनुष्यता को खराब नहीं कह सकते। इतिहास में नादिर शाह, एडोल्फ हिटलर, बेनिटो, जोसफ स्टेलिन जैसे कई पुरुष हुए हैं, जिन्होंने तबाही मचाई है, पर इनके होने से हम सारे पुरुषों को खराब नहीं कहते, न ही अन्य पुरुषों से हम नफरत करने लगते हैं। आज पृथ्वी पर 2 बिलियन महिलाएं हैं पर एक शीला की वजह से हम सारी महिलाओं को खराब तो नहीं कह सकते। तुम अनुराधा को देखो जो मेरे साथ शीला से भी पहले से है, विवेक को देखो जो पिछले 15 सालों से मेरे साथ है। आज ऐसी हजारों महिलाएं हैं जो मुझे शीला से अधिक प्रेम करती हैं और मेरी इज्जत करती हैं।’

शीला कितनी खुदगर्ज थी, इस बात का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि एक ‘स्टर्न’ नाम की पत्रिका में उसका 20-25 पेज का इंटरव्यू छपा था, जिसका शीर्षक था ‘टू हेल विद भगवान, जो उसी का वक्तव्य था।’

अपने नाजुक स्वास्थ्य और अन्य कारणों के चलते ओशो अमेरिका गए, जहां उन्होंने अमेरिका पहुंचकर मौन को चुना, जिसमें वह आनंदित थे, पर वह शीला जो सदा ओशो को सुख प्रदान करने का प्रदर्शन करती थी, उसकी करतूतों के कारण                                                                          

ओशो को अपना मौन भी तोड़ना पड़ा।

मैं पिछले साढ़े तीन वर्ष मौन में रहा। इस दौरान संन्यासी मित्रों

से भी दूर बिना संवाद के रहा। उनके साथ कैसा बर्ताव, व्यवहार किया गया, उनके साथ क्या हो रहा था इसकी मुझे कोई जानकारी नहीं थी।

जैसे ही शीला ने कम्यून छोड़ा संन्यासियों ने मुझे आ-आकर उसके बारे में सब कुछ बताना शुरू किया, कि किस प्रकार उसने इस ध्यान केंद्र को एक फासीवादी कैम्प में तब्दील कर दिया था। उन्होंने बताया कि मेरे मौन में रहने के उपरान्त उनके साथ क्या-क्या व किस प्रकार का व्यवहार किया गया।

मैं मौन से बाहर आया क्योंकि मेरे चिकित्सक डेंटिस्ट और केयर टेकर जिनकों जहर दिया गया था ने शीला और उसकेसहयोगियों की करतूतों के बारे में बताना शुरू किया। इन्होंने मुझे बताया की कम्यून एक बंदी शिविर के रूप में स्थापित हो चुका है। कई गुणी, बुद्घिमान लोगों को दवाब, मजबूर या कम्यून से अपमानित करके कम्यून से बाहर कर दिया गया है। मेरे साथ एक दशक से रहे यूनिवर्सिटी के चांसलर, वाइस चांसलर, कई अच्छे थैरेपिस्ट सब आंखों में आंसू लिए कम्यून से विदा हो गए। शीला कम्यून में ऐसे किसी व्यक्ति को नहीं चाहती थी जो उसके खिलाफ विद्रोह करे।

जब मुझे शीला की इन हरकतों का पता चला तब मैंने पुन: बोलना शुरू किया। मेरे बोलने से सभी बहुत खुश थे सिवाय शीला के। शीला और उसके गिरोह को यह जानकर बहुत दुख हुआ, क्योंकि मैं अब अपने लोगों के लिए कोई न कोई रास्ता जरूर निकालूंगा जो वो नहीं चाहते थे। अब मुझे समझ आया कि शीला बार-बार मुझ से एक ही सवाल क्यों पूछती थी । वह हर बार कहती थी कि ‘क्या आप मुझे मेरे पद से हटा तो नहीं दोगे? अपने लिए कोई नया सचिव तो नहीं चुन लोगे?’ उसका यह पूछना ही उसके मनसूबों की तरफ इशारा करता था।

शीला अपने बयानों में कहती है कि ‘उसने जो भी अपराध किए हैं, वह ओशो के कहने पर किए। यदि यह सच है तो वह ओशो को बिना बताए क्यों फरार हुई? यदि वह सच्ची व सही थी तो उसने अपनी शिकायत पुलिस को क्यों नहीं की? सरकार से मदद क्यों नहीं मांगी? ओशो के चुनौतियां देने के बाद भी वह ओशो का सामना करने से क्यों बचती थी?

मुझे चुनौतियां पसंद है, चुनौतियों का सामना करना मेरी आदत है। मैंने कभी भी उनसे मुंह नहीं फेरा क्योंकि मैं कोई हिप्पी नहीं हूं। तुम्हें पता है, हिप्पी का मतलब क्या होता है? दुनिया आज हिप्पी के अर्थ को भूल बैठी है। हिप्पी का अर्थ होता है जो अपने हिप्स (नितम्ब) दिखा कर भाग जाए। शीला और उसका गिरोह मेरी नजर में हिप्पी ही है। वह चुनौतियों के डर से भाग गई है।…

लेकिन मैं उससे कहूंगा, सत्य से सामना करने का यह तरीका नहीं। यदि तुमने कोई अपराध किया है तो, उसे ज्यूरी के सामने स्वीकार करो। यह तुम्हें समुदाय में सम्मान देगा।…

शीला के 20 लोगों के गिरोह में से सिर्फ एक लड़की थी जिसने हिम्मत जुटा कर शीला के साथ जाने के लिए मना कर दिया था और वो गवाही देने को राजी थी क्योंकि उसका कहना था कि ‘वह उम्र भर अपराध के बोझ के साथ नहीं जीना चाहती। अब अपराध का सारा बोझ  शीला पर था। अब एऌफबीआई के पास शीला के खिलाफ एक चश्मदीद गवाह भी था। इसलिए स्नक्चढ्ढ अब अगर कोई एक्शन नहीं लेती तो में समझूंगा स्नक्चढ्ढ भी उनके साथ मिली हुई है और वह जुर्म को बढ़ावा देने के साथ-साथ सुरक्षा भी दे रही है। यदि स्नक्चढ्ढ ऐसा नहीं करती तो फिर मुझे कुछ और रास्ता अपनाना पड़ेगा पर निश्चित ही मेरा वह रास्ता हिंसा का नहीं होगा। इसलिए मैं स्नक्चढ्ढ  और अमरीकी सरकार के कार्यवाही के इंतजार में हूं। हमने उन्हें पुख्ता सबूत और चश्मदीद गवाह भी दिए हैं जिससे उनके जुर्म की पुष्टि होती है। शीला ने वास्तव में साबित कर दिया कि वह सच में जहरीली है। वह यहां से तो भाग गई लेकिन जर्मनी में जाकर अपने बचाव में, सफाई देने में झूठे आरापों का सहारा ले रही है। मैंने वहां के पत्रकारों को व शीला को  यह साफ चुनौती दी है कि यदि शीला में हिम्मत है तो वह मेरे सामने आए। जो कहना है मेरे मुंह पर कहे। मैं उसके साथ टी.वी. पर मुक्त रूप से चर्चा करने को भी तैयार हूं और उसका पर्दाफाश करने को तैयार हूं क्योंकि उसके बारे में जो भी सच्चाई है वह मेरे सिवा कोई नहीं जानता, पर वह मेरी इस चुनौती को स्वीकार करने से डरती है।…