प्र. किसी के लिए ओशो संबुद्घ रहस्यदर्शी हैं, तो किसी के लिए भगवान, किसी के लिए कुशल वक्ता हैं, तो किसी के लिए महान दार्शनिक, आपके लिए ओशो कौन हैं, क्या हैं, आप उन्हें किस नजर से देखते हैं?

. यह जो सारे शब्द हैं, यह शैक्षिक, बिना अनुभव के शब्द हैं। ओशो को यदि कोई बुद्घ पुरुष कहता है, तो यह वो ही कह सकता है जो स्वयं बुद्घ हो गया हो क्योंकि कोई बुद्घ पुरुष ही दूसरे बुद्घ पुरुष को पहचान सकता है। इसलिए यह सारे शब्द लोग देखा-देखी में प्रयोग करते हैं। मेरे देखे तो मुझे इन शब्दों का अर्थ ही नहीं पता, यह सब बहुत भारी शब्द हैं, मैं अभी वहा तक नहीं पहुंचा जहां इन शब्दों के अर्थ होते हैं या अनुभव होते हैं। 

मैं तो यही कहूंगा कि ओशो जैसी चेतना को शब्दों में बांधना असंभव है। क्योंकि जो कुछ भी आज तक असंभव था, वह ओशो में संभव हुआ है, और यह संभावना हो गई कि असंभव भी संभव हो सकता है। उस संभावना ने सबको खींचा है, पुकारा है। और जब हमें उसका स्वाद मिला तो हम उनके पास चले गए। जिससे एक खुमारी उतरी, जो आज तक है, और हमेशा रहेगी। यह जन्मों-जन्मों की प्यास है, इसलिए मेरे लिए ओशो एक खुमार हैं। जब उन्हें पहली बार देखा था, तब से अब तक मेेरे लिए वह एक खुमार हैं ।

ओशो प्रमाण हैं, कि बुद्घत्व घटता है, घट सकता है मनुष्य में। जिस कृष्ण, बुद्घ, महावीर की हमने कहानियां सुनी हैं वह ओशो में प्रत्यक्ष हुई हैं। इसलिए हम लोग भाग्यशाली हैं कि हम ओशो के समय में हुए वरना इससे पहले के बुद्घ तो हमारे लिए किस्सों की तरह हैं, लेकिन ओशो हमारे लिए एक अवसर की तरह हैं। जिसने उन्हें पहचाना, उपयोग किया वह रूपांतरित हुआ। 

ओशो मेरे लिए एक सम्भावना हैं। अपने व्यक्तित्व, शब्द और मौन में ओशो प्रत्यक्ष प्रमाण हैं मनुष्य की आत्यन्तिक संभावना के, साथ ही इस बात के, कि  शरीर विदा हो जाता है, संभावना विदा नहीं होती। ओशो के शरीर में जो संभावना सत्य बन गयी, वह तब तक मनुष्यता को आंदोलित करती रहेगी जब तक उस सम्भावना को सत्य करने के लिए पृथ्वी पर मनुष्य चेतना है। और पृथ्वी पर ही क्यों, ब्रह्मïड में जहां भी जीवन है, चेतना है, ओशो एक संभावना को सत्य बनाने के लिए उकसाते, जगाते रहेंगे। यह संभावना ही ओशो की अनंत यात्रा है जिसके बीच वे कुछ समय के लिए हमारे यहां, हमारे लिए रुके थे।

ओशो ने जब शरीर छोड़ा उस के कुछ समय पहले सैटेलाइट की संभावना शुरू हुई थी। और ओशो वैसे भी तकनीक के पक्ष में थे। वो कहते भी थे ‘कि समय आएगा कि मैं सैटेलाइट के माध्यम से पूरी दुनिया को एक साथ सत्य बोल सकूंगा। अगर वह आज होते तो ट्विटर, व्हाट्सअप, फेसबुक आदि सोशल मीडिया के सभी माध्यमों का भरपूर उपयोग करते।

प्र. ओशो से कब और कैसे मिलना संभव हुआ?

उ. बात 1964 की है मैं विद्यार्थी था और एक इम्तिहान देने जबलपुर गया था जहां मैं अपने मामा के घर ठहरा था, जो ओशो के मित्र थे। मुझे अपने इम्तिहान के उत्तरों में उद्घरण (कोटेशन) देने का बड़ा शौक था जिसके लिए मैं पुस्तकें पढ़ता रहता था। तब मैंने मामा के यहां पहली बार ओशो की दो पुस्तकें ‘मिट्टी के दीये और पथ के प्रतीक’ पढ़ीं और मैंने देखा कि ओशो की तो हर पंक्ति अपने आप में एक कोट है। मुझे बहुत अचरज हुआ कि कौन हैं यह व्यक्ति। जब मैंने यही बात अपने मामा से पूछी तो उन्होंने कहा ‘कि क्या तुम मिलना चाहोगे इस व्यक्ति से?’ तो मुझे शाम को वह ओशो से मिलाने के लिए उनके घर ‘योगेश भवन’ ले गए।

प्र. कैसी थी आप की पहली मुलाकात?

उ. पहले ही दर्शन में मेरे अंदर से जो वाक्य निकला वह था कि ‘ये आदमी कितना सुंदर है।’ जबकि हम आदमी के लिए ‘हैन्डसम’ शब्द का प्रयोग करते हैं परंतु हैन्डसम शब्द ओशो के लिए कम है, जो बात सुंदर शब्द में है वह बात हैन्डसम शब्द में नहीं। सोलह साल की जिस उम्र में मुझे लड़कियां सुंदर लगनी चाहिए थीं, इस उम्र में मुझे ओशो सुंदर लगे।

प्र. आज के तथाकथित संतों से आप ओशो को कितना भिन्न पाते हैं?

उ. ओशो उनसे बिल्कुल भिन्न हैं। क्योंकि बाकी जो संत हैं वह मौकावादी हैं। वह अपनी दुकान चलाने व उन्हें चलते रहने देने के लिए कई समझौते करते रहते हैं। वह किसी को भी नाखुश करने का साहस नहीं जुटा नहीं पाएंगे। उनके अंदर विद्रोह की आग नहीं है। ओशो के अंदर एक क्रांति की, बगावत की आग थी। तथाकथित संतों में वह आग नहीं है। वह तो समाज से, सत्ता, राजनीतिज्ञों, सब से डरते हैं, हालांकि वह ओशो के विचारों की चोरी करने की हिम्मत तो करते हैं पर उनमें उस आग की, बगावत की चोरी करने की हिम्मत नहीं है जो ओशो में थी। ये बहुत बड़ा फर्क है।

प्र. आपके लेखन एवं रचनात्मकता में ओशो का कितना योगदान है?

उ. सब-कुछ उन्हीं का है। मेरे लेखन में ही नहीं, मेरे जीवन में उनका योगदान है। ओशो की भाषा हो या अभिव्यक्ति सभी कुछ कमाल की है ओशो का बोलना संगीत है। चाहे वह ओशो का शब्द भण्डार हो, उन शब्दों का उपयोग हो, उनकी अभिव्यक्ति हो सब कुछ अद्भुत है। हर बुद्घ पुरुष अपने-अपने ढंग से बोलते हैं पर हमारे समय में जो बुद्घ हुए हैं, ओशो, उनकी जो भाषा है, उससे सुंदर भाषा हमारे लिए नहीं हो सकती। ओशो ने सत्य को भाषा में उतारा है, जिसकी उन्होंने खूब मेहनत की है, उसका कोई जवाब नहीं। ओशो ने हिन्दी को सजाया, संवारा है। उन्होंने शब्द भण्डार का सुंदरतम से सुंदरतम उपयोग किया है। ओशो का हर वाक्य अपने में एक कविता है। देखा जाए तो हिन्दी को समृद्घ करने में ओशो का बहुत बड़ा योगदान है।

ओशो ने अपने प्रवचनों में हिन्दी-उर्दू की कविता एवं गजलों का उपयोग कर उन्हें नया जीवन दिया है। बेशक लोग कवि व शायर का नाम न जाने पर ओशो ने उनकी रचनाओं को छूकर अमर कर दिया है। ओशो को किसी चीज से परहेज नहीं था, वह अपने प्रवचनों में चुटकुलों व मजाक आदि का प्रयोग करते थे। अंग्रेजी में तो वह ऐसे-ऐसे जोक्स का प्रयोग करते थे जिसे आम आदमी प्रयोग करने में झिझकता था। लेकिन ओशो ने इस सबका इस्तेमाल अपने प्रवचनों में बेबाकी से किया।

प्र. ओशो के विवादों से घिरे रहने के पीछे आप क्या कारण पाते हैं?

उ.ओशो धर्म, समाज और राजनीति के लिए एक चुनौती थे परंपराओं और धाराओं के विपरीत खड़े थे। उनके विचार और विषय सामाजिक मान्यताओं और मापदंडों को हिला रहे थे, तथा सोये हुए लोगों को जगा रहे थे, इसलिए विवाद का विषय बने। परंतु सच तो यह है कि ओशो ने स्वयं को जानकर विवादित बनाया। यह उनके काम करने का ढंग था। क्योंकि वह जानते थे कि आज का आदमी निंदा या नकारात्मक चीजों के प्रति शीघ्र आकर्षित होता है। उन्हें पता था कि आलोचना जल्दी फैलती है बजाए प्रशंसा के इसका फायदा यह हुआ कि ओशो के पास वो लोग तो आए ही जो उनकी किताबें पढ़ते थे या प्रवचन सुनते थे वो भी आए जो उनकी बुराई करते थे। लोग दूर-दूर से उनकी बुराई व विवादों की खबर सुनकर आये परंतु कुछ दिनों बाद वो भी वहीं ठहर गए। ओशो कहते भी थे कि ‘जो लोग मेरी आलोचना कर रहे हैं वो भी मेरा ही काम कर रहे हैं।’ देखा जाए तो ओशो ने आदमी के मनोविज्ञान का बहुत ही खूबसूरत उपयोग किया, जिसका कोई जवाब नहीं है। मुझे नहीं लगता आज से पहले इस पृथ्वी पर किसी बुद्घ पुरुष ने अपनी आलोचना का इतना सकारात्मक उपयोग किया है। ओशो के समय में ओशो के साथ होना एक बहुत बड़ी परीक्षा थी लेकिन आज जब ओशो विख्यात हो गए हैं, समाज में स्वीकार्य हो गए हैं तो लोग उनसे अपने संबंध जोड़ते हैं, बल्कि उनके नाम से अपनी पहचान बना रहे हैं अपना काम चला रहे हैं। 

प्र. आज ओशो के जाने के बाद भी ओशो व उनके लोग आपसी विवादों में नजर आते हैं, ऐसा क्यों?

उ. ओशो ने तो पहले ही भविष्यवाणी कर दी थी कि मेरे जाने के बाद यह सब होगा, जैसे गौतम बुद्घ के जाने के बाद बुद्घ धर्म का रहा। उससे भी कई धाराएं निकली। उनके अनुयायियों ने अपनी-अपनी बुद्घिमत्ता एवं अनुभव के आधार पर भिन्न-भिन्न मत व मार्ग निर्मित किए, ऐसे ही ओशो के जाने के बाद हो रहा है।

अपने अनुभव के आधार पर कहूं तो ओशो को कोई एक संस्था या कोई आश्रम की व्यवस्था नहीं संभाल सकती। वो उनके बस की बात नहीं है। ओशो को वही लोग संभालेंगे या जीवित रखेंगे जिन्होंने ओशो को जिया है और पिया है। जिनका किसी संस्था से कोई संबंध नहीं है बस ओशो से जिन्हें प्रेम है वहीं लोग ओशो को भविष्य में जिंदा रखेंगे। इसलिए मैं मानता हूं जो ओशो का एक वैयक्तिक प्रेमी है, जो किसी संस्था से नहीं जुड़ा वही ओशो को व उनके काम को आगे तक लेकर जा सकता है। जहां संस्था है, संगठन है वहां कभी न कभी राजनीति पनप ही जाती है, तो व्यक्ति ही कुछ कर सकता है।

प्र. ओशो ने जगत को और जगत ने ओशो को क्या दिया?

उ.ओशो का योगदान तो अतुलनीय है, हर ”क्षेत्र में है, फिर वह आध्यात्मिक क्रांति के रूप में हो या फिर उनकी ध्यान की विधियों के रूप में। ओशो ने वह कर दिखाया जिसे लगभग ढाई हजार सालों में किसी ने नहीं किया। उन्होंने बताया कि जो सत्य है, वह कोई दर्शन नहीं है बाकायदा उसे अनुभव किया। उन्होंने मनुष्य के अंदर वह संभावना जगाई, कि सत्य एक व्यक्ति में उतर सकता है। और जब किसी एक व्यक्ति में उतर सकता है, तो किसी में भी उतर सकता है। ओशो ने पूरी मनुष्यता को सत्य का स्मरण कराया और जगाया है कि जिसे तुम जन्मों-जन्मों से खोज रहे हो वो तुम ही हो। जो कि बहुत बड़ी बात है। यही उनका अमूल्य योगदान है। वरना लोग तो सत्य को अपने से बाहर खोज रहे थे और अपने लिए असंभव समझ रहे थे। जहां तक सवाल है जगत ने ओशो को क्या दिया? जगत ने तो ओशो को वही दिया जो देता रहा है। जो उसने बुद्घ, महावीर और जीसस के साथ किया, जो सुकरात और मंसूर के साथ किया, वही उसने ओशो के साथ किया मुझे याद है जब एक बार हरिवंश राय बच्चन जी ओशो से मिले थे, तो बच्चन जी ने ओशो से कहा था कि ‘You are a tragic figure and you will be assassinated’  इससे उनका मतलब यही था कि जो जगत के बाकी बुद्घों के साथ हुआ वहीं आप के साथ होगा। इतिहास गवाह है जो भी सत्य के साथ खड़ा हुआ है उसे सूली ही मिली है।

प्र. क्या आपको लगता है दुनिया तो दुनिया, ओशो के संन्यासी भी उन्हें नहीं समझ पाए?

उ. यह संभव है, कि दुनिया, तो दुनिया, ओशो के संन्यासी भी ओशो को नहीं समझ पाए। क्योंकि हर संन्यासी का मुकाम और तल अलग-अलग होता है वह जिस मोड़ पर खड़ा है। यह उसके ऊपर है कि उसकी खोज कहां से शुरू हुई है और कहां पहुंची है दरअसल हर इंसान ने ओशो को अपनी-अपनी व्यक्तिगत संवेदशीलता के स्तर से देखा है और उसी हिसाब से अपना निर्णय लिया है। तो यह संभव है कि बहुत से लोगों ने उन्हें गलत समझा। किसी ने उन्हें व्यापार करने का एक अवसर समझा, तो किसी ने ध्यान करने का। ओशो में किसी ने भगवान देखा तो किसी ने शैतान। ओशो में किसी ने बुद्घ-महावीर को देखा, तो किसी ने हिटलर और तैमूर को देखा। जिसकी क्षमता की जो सीमा थी, व्यक्तित्व था, अनुभव था, अतीत था, उसने उनको उस अनुभव के आधार पर देखा। क्योंकि सभी भिन्न हैं, सबके तल और दिशा अलग हैं, तो स्वाभाविक है कि सभी एक सा नहीं देख पाएंगे।

प्र. नेट फ्लिक्स पर दिखाई गई डॉक्यूमेंट्री ‘वाइल्ड-वाइल्ड कंट्री’ के बारे में आपकी क्या राय है? 

उ. मैं राजनीश पुरम लगभग एक महीना रहा था और शीला से भी परिचित था। मैंने फिल्म भी देखी है, जो कि अमेरिकन की दृष्टिकोण से बनाई गई है। अगर मैं स्क्रिप्ट राइटर की नजर से देखूं तो कह सकता हूं कि अच्छा काम है। तकनीकि स्तर पर जैसी डॉक्यूमेंट्रीज बनती हैं, उनसे बहुत बेहतर बनी है। जहां तक ओशो संन्यासी की नजर से देखने का सवाल है, यह फिल्म बहुत ही गलत है, जो ओशो व ओशो के काम व उनके लोगों के साथ अन्याय करती है, क्योंकि यह डॉक्यूमेंट्री ओशो के बारे में कुछ नहीं कहती। इस डॉक्यूमेंट्री में महज ओशो से जुड़े जो तथाकथित विवाद और भ्रांतियां हैं उन्हें ही भुनाने की कोशिश की गई है, इससे अधिक फिल्म में कुछ नहीं है। यह एकतरफा फिल्म है, जिसमें ओशो का कोई पक्ष ही नहीं रखा गया, तथा जानकारी भी वो दी गई हैं जिन्हें हम जानते हैं। हर दृष्टिकोण से यह एक अन्याय पूर्ण, असंगत डॉक्यूमेंट्री है, जो पूरी तरह गलत है, क्योंकि यह पूरी तरह एकांगी है।

इस डॉक्यूमेंट्री के दो पक्ष उभरकर सामने आते हैं, एक वो जिन्होंने ओशो को समझा ही नहीं है। वो कहेंगे ‘फिल्म में सब कुछ ठीक दिखाया है, क्योंकि हम तो पहले से ही ओशो व उनके आश्रम के बारे में यही सब कहते-सुनते रहे हैं।’ तो दूसरे वो लोग हैं जो इस डॉक्यूमेंट्री को इसके विज्ञापन के चलते उत्सुकता वश देखें और फिर धीरे-धीरे वह उत्सुकता उन्हें ओशो को पढ़ने सुनने के लिए प्रेरित करे। जो कि ऐसा हुआ भी है। इस फिल्म के बाद तो ओशो के प्रचार-प्रसार में और वृद्घि हुई है। उनकी पुस्तकें व इंटरनेट पर उनकी ऑडियो-वीडियो की सर्च और डॉउनलोडिंग भी बढ़ी है। लोग उनसे जुड़ने लगे हैं।

प्र. शीला के बारे में आपकी क्या राय है?

उ. शीला भले ही भारतीय माता-पिता की संतान है, परंतु मूलत: वह एक अमेरिकन लड़की है। उसे भारतीय लड़की मानना जरा मुश्किल है, क्योंकि उसकी सारी शिक्षा-दीक्षा, संस्कार आदि सब अमेरिकन ही हैं। शीला के माता-पिता ओशो के प्रेमी थे, वह उन्हीं के जरिए ओशो के संपर्क में आई और फिर ओशो को देखते ही उनके प्रेम में पड़ गई। तो शुरू-शुरू में जो ओशो के प्रति उसका प्रेम था वो उसे उनके निकट लाया परंतु स्वभाव में वह अमेरिकन ही थी और अमेरिकन की यह खूबी होती है, कि वह हर चीज में से कमाई के अवसर निकाल लेते हैं, मौका निकाल लेते हैं सत्ता और संप्रदाय बनाने का, और शीला इस काम में माहिर थी। शीला को, लक्ष्मी के बाद जब ओशो की सचिव बनने का अवसर मिला, तो उसने उसका भरपूर उपयोग व दुरुपयोग किया। दरअसल जब ओशो अमेरिका जा रहे थे, तो उन्हें किसी ऐसे सचिव की जरूरत थी, जो अमेरिकी रीति-रिवाजों एवं नियम-कानून आदि से अच्छी तरह वाकिफ हो, इसलिए ओशो ने शीला को अपना नया सचिव चुना। ऐसा नहीं कि शीला ने काम नहीं किया है, शीला ने रजनीशपुरम बसाने में खूब मेहनत की थी। मुझे याद है जब ओशो भारत में थे तो शीला, ओशो के जन्मदिन पर उनके लिए उस वक्त विदेश से मर्सिडीज कार लेकर आई थी, जो कि ओशो के जीवन की वह पहली मर्सिडीज थी। ये बहुत हिम्मत की बात थी। तो इस में कोई संदेह नहीं कि न केवल शीला ओशो के प्रेम में थी, बल्कि बहुत ही साहसी और निडर थी। विदेशी बुद्घि होने के कारण शीला ने रजनीशपुरम को पूरी जिम्मेदारियों के साथ सम्भाल रखा था। पर गड़बड़ तब शुरू हुई जब ओशो तीन साल के लिए मौन में चले गए थे, और सारे काम का संचालन व सत्ता की डोर शीला के हाथों में थी, उस समय शीला ने स्वयं को ही सर्वे-सर्वा समझ लिया और मालकिन की तरह निर्णय लेने लगी। आश्रम में संन्यासी उसकी ताकत से भयभीत थे क्योंकि जो उसका कहना नहीं मानते थे वह उन्हें आश्रम से बाहर जाने की धमकी देती। संन्यासियों को ओशो की निकटता व सान्निध्य इतनी प्रिय थी कि वह किसी भी सूरत में वह आश्रम में रहना चाहते थे। उनको शीला का अन्याय स्वीकार्य था परंतु ओशो से विच्छेद नहीं। दरअसल संन्यासी, ओशो के साथ आश्रम में रहने के लिए, किसी भी तरह की कीमत चुकाने को तैयार थे, फिर रूपया-पैसा देना हो या फिर शीला की आज्ञा का पालन करना हो। शीला के रोब और अधिकारों के आगे संन्यासियों के पास कोई रास्ता नहीं था। उनके लिए शीला की आज्ञा मानना आसान था, पर ओशो से दूर जाना असंभव था। इसलिए कुछ लोगों ने शीला के प्रभाव में आकर समझौता किया और फिर बहुत से लोगों ने उनके असर में आकर ऐसी गलतियां की जो नहीं करनी चाहिए थी, जिसे डॉक्यूमेंट्री में दिखाया गया है।

दरअसल शीला ने ओशो को प्रेम जरूर किया परंतु, कभी ध्यान नहीं किया। जीवन में विकास के लिए प्रेम काफी नहीं ध्यान भी जरूरी है। बिना ध्यान के प्रेम हमें भटका सकता है और शीला के साथ भी यही हुआ। शीला ने ऐसे कई निर्णय लिए जो उसकी नजर में तो ठीक थे, परंतु शिष्य होने के नाते न तो सही थे न ही व्यावहारिक, सचिव होने के नाते तो बिलकुल भी नहीं।

ऐसा नहीं कि शीला को उसकी करनी की सजा नहीं मिली, पर दुख तो यह है कि शीला की करनी की सजा ओशो को अपने जीवन से चुकानी पड़ी। अब फिल्म बनाने वालों ने किसी और से तो कुछ पूछा नहीं, बस शीला और उसके सहयोगियों की गवाही के आधार पर पूरी फिल्म को बना डाला। दर्शकों को सोचना चाहिए कभी कोई अपराधी यह नहीं कहता कि मैं अपराधी हूं, मैंने ये-ये अपराध किए हैं। छवि को साफ करने के लिए वैसे भी अपराधी मौका ढूंढता रहता है। शीला के पास इससे अच्छा मौका क्या होगा कि जब ओशो शरीर में नहीं है और सोशल मीडिया का बोल बाला है। उसने अपने सारे अपराधों को या तो अपने प्रेम का जामा पहना दिया या फिर ओशो का इशारा। उसने कहा कि ‘उसने सब कुछ ओशो के इशारे पर किया।’ कौन नहीं जानता कि समय बीतने के बाद, सत्य में कुछ भी जोड़ा या घटाया जा सकता है। ओशो देह में नहीं हैं, इसलिए शीला कोई भी कहानी बना सकती है।

लोगों को सोचना चाहिए कि जो औरत जेल में अपने अपराध के लिए तीन साल, तीन महीने की सजा काट चुकी है। जिसकी सारी छानबीन के बाद अदालत ने उसे अपराधी करार दे दिया है, उसके इन वक्तव्यों का क्या मूल्य है, कि ‘मेरा कोई अपराध नहीं है, मैंने जो कुछ किया ओशो के कहने पर किया।’ जो खुद गुनहगार साबित हो चुका हो उसकी बातों को मानना मनुष्य की मूर्खता को दर्शाता है।

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