Menstruation Talk: समाज में ऐसे बहुत से विषय हैं जिन पर बात करना जरूरी तो है लेकिन उस पर बात होती नहीं है। यूं तो ऐसे कई मुद्दे हैं जिन पर सामाजिक चिंतन करने की जरूरत है लेकिन जिस पर मौजूदा दौर में बात करने की जरूरत है वो है पीरियड्स, पीरियड्स पर आज भी खुल कर बात नहीं होती है। पीरियड्स जो कि एक प्राकृतिक प्रक्रिया है, जिसका होना किसी लड़की या महिला के स्वास्थ्य के लिए भी जरूरी है। समाज में परिवर्तन का एक माध्यम सिनेमा भी है जो कि न जाने कितने ही मुद्दों को समाज के सामने रखता है और न केवल जागरूक करता बल्कि उस मुद्दे पर समाज को अलग तरह से सोचने का सामर्थ्य देता है। अब पीरियड्स या माहवारी पर ही बात करते हैं ऐसी बहुत सी फिल्में हैं जो पीरियड्स पर बात करती हैं या इस मुद्दे के सहारे समाज पर चोट करती हैं। लेकिन इस मुद्दे पर फिल्में भी कम ही हैं, जो कि चिंता की बात है। लेकिन ये कहना गलत नहीं होगा कि पहले से अब में काफी फर्क आया है। अब विज्ञापनों में जिस तरह की सतर्कता देखी जा रही है वो सराहनीय है। विज्ञापनों में भी इस ओर काफी ध्यान दिया गया है। आइये जानते हैं कि फिल्म और विज्ञापन में पीरियड्स पर क्या उपलब्ध है।
क्यों जरूरी है माहवारी के बारे में जानना

माहवारी पर जितनी फिल्म बनी है, उनका समाज पर कोई असर नहीं हुआ है ये कहना गलत होगा। माहवारी को लेकर जागरूक होने के कई कारण हैं लेकिन जो सबसे महत्वपूर्ण है वो है स्वास्थ्य। माहवारी के दौरान आपको किन बातों का ध्यान रखना चाहिए। इसके साथ ही जरूरत है कि माहवारी होना कोई पाप नहीं है जिसे छुपाया जाए। इसलिए जरूरी है कि इस पर बात हो। जिस तरह हम गर्भावस्था को आम मानते हैं और उस पर बात करते हैं वैसे ही माहवारी भी आम प्राकृतिक प्रक्रिया है। इसको शर्म से छुपाना सही नहीं है। आज भी पीरियड्स को छिपाए रखने की नसीहत महिलाओं को मिल जाती है कि वो इसे उजागर न करें, दर्द हो तो उसे जाहिर न करें। अब पैड के इस्तेमाल को लेकर फिर भी जागरूकता बढ़ी है लेकिन पुरुषों से छिपाना या उनसे इस पर कोई चर्चा न करना ही इस अज्ञानता में बढ़ोतरी करना होता है। इसलिए जरूरी है कि महिलाओं के साथ पुरुष भी माहवारी के बारे में जाने, न केवल जानें बल्कि इसके अनुकूल व्यवहार भी करें।
फिल्मों में पीरियड्स

जब हम बात करते हैं फिल्म की तो हम ये देखते हैं कि पूरी तरह से कोई फिल्म अगर पीरियड्स या माहवारी को बताती है तो वो ‘पैड मैन’ है, जो कि अरुनाचलम मुरुगनांथम की सच्ची कहानी पर निर्भर है। इसी तरह एक फिल्म ‘फुल्लू’ आई थी, जिसने महिलाओं को पैड का इस्तेमाल करने के लिए प्रेरित किया गया था। लेकिन केवल एक या दो फिल्मों से इस क्षेत्र में बदलाव नहीं लाया जा सकता। इस ओर और भी ध्यान देने की जरूरत है क्योंकि फिल्में समाज पर गहरा असर डालती है। इसलिए भी जरूरी है कि मासिक धर्म पर फिल्मों का बनना जरूरी है जहां वो असल परेशानियों पर बात कर सके। ‘कोटा फैक्ट्री’ में भी एक सीन फिल्माया गया है, जिसमे शिवांगी, मीना को समझाती है लड़कियों के लिए पीरियड्स में काम करना आसान नहीं है। इस तरह से कुछ फिल्मों में कुछ ही सीन में पीरियड्स पर कुछ फिल्माया गया है क्योंकि दुर्भाग्यवश आज भी इन फिल्मों के बाद भी माहवारी पर बात नहीं होती और उसे आज भी शर्मनाक मुद्दा माना जाता है।
विज्ञापनों में पीरियड्स

विज्ञापन समाज को शिक्षित करने के साथ प्रोत्साहित भी करते हैं। विज्ञापन से हम काफी कुछ सीखते हैं और ये जानकारी हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में काफी काम आती है। ये विज्ञापन जो कि महिलाओं को पैड्स या सेनेटरी नैपकिन का इस्तेमाल करने को लेकर प्रोत्साहित करते हैं ये समाज में सीख देने का कार्य करते है लेकिन क्या पीरियड्स के लिए केवल अच्छे पैड्स का विज्ञापन ही कामगार है? तो इसका जवाब है नहीं। क्योंकि मासिक धर्म को ठीक तरह से समझना और इसके प्रति हर किसी को जागरूक करना भी जरूरी है। इस क्षेत्र में विज्ञापन टेलीविजन की तुलना में सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर ज्यादा है। सोशल मीडिया प्लेटफार्म यू-ट्यूब पर पीरियड्स सही जानकारी के साथ काफी विज्ञापन उपलब्ध है। इन विज्ञापनों में पीरियड्स के प्रति जागरूकता देखने को मिलती है। हम ऐसे कई विज्ञापन देखते हैं जिसमें एक भावनात्मक पहलु को जोड़ कर मासिक धर्म से जुड़ी जानकारियों और भ्रांतियों के बारे में जानकारी दी जाती है।