रोना सीखो! रोना बड़ी कला है। सभी को नही आती। पुरुष तो बिल्कुल भूल गए हैं। उन्हें तो याद ही नहीं रही। उन्होंने तो रोने की पूरी प्रक्रिया का दमन कर दिया है। उनकी आंखें तो जड़ हो गयी हैं, पथरीली हो गयी हैं। उनकी आंखों से रौनक भी चली गयी है। उनकी आंखें अंधी हो गयी हैं। उनकी आंखें अहंकार से भर गयी हैं। अहंकार से भरने के लिए उन्होंने अपनी आंखों को वंचित कर लिया है। क्योंकि अगर आंसू बहते रहें तो अहंकार बह जाएगा। इसलिए हम हर बच्चे को सिखाते हैं कि तू मर्द है, रोना मत, रोने का काम स्त्रियां करती हैं। तू कोई लड़की नहीं है, याद कर।
हम छोटे-से-छोटे बच्चे में जहर भरने लगे अहंकार का। हम उसे यह कह रहे कि मर्द में कुछ खास बात है। स्त्रियां ठीक है रोती रहें, इनका क्या मूल्य है! इनकी कौन गिनती? रोने दो रोना है तो अच्छा ही हैं उलझी रहें काम में अपने। लेकिन तुम! तुम्हारे ऊपर जिंदगी के बड़े काम हैं। रोना मत। तुम्हें जिंदगी में लड़ाई लेनी है, संघर्ष लेना है, स्पर्धा करनी है। रोने से कहीं चलेगा? ऐसे बीच बाजार में खड़े होकर रोने लगोगे तो भद्द हो जाएगी। हारो तो भी हंसना, टूटा तो भी हंसना, मरो तो भी हंसना, रोना मत। यही मर्द का लक्षण है। टूट जाओ पर झुकना मत।
और रोना कैसे शोभा देगा अहंकारी को? अहंकार के बड़े विपरीत है रोना। पुरुष को हमने अहंकार सिखाया है और उसका परिणाम यह हुआ है कि पुरुष की एक क्षमता ही खो गयी है। वह रो ही नहीं पाता। और तुम यह जानकर चकित होओगे कि प्रकृति ने कुछ भेद नहीं किया है। स्त्री की आंख के पीछे उतनी ही आंसू की थैलियां हैं जितनी पुरुष की आंख के पीछे। दोनों में बराबर आंसू की क्षमता है। इसलिए प्रकृति ने पुरुष को नहीं रोना है ऐसा कोई नियम नहीं दिया है। अगर ऐसा नियम दिया होता, तो पुरुष की आंख के पीछे आंसू की ग्रंथियां ही न होतीं। स्त्रियों को ही आंसू की ग्रंथि दी होती। जो चीज जिसको देनी, उसको दी होती। जैसे पुरुष को बच्चे पैदा नहीं होते हैं तो उसको गर्भ नहीं दिया है। स्त्री को गर्भ दिया है। लेकिन पुरुष की आंख में उतनी ही आंसू की ग्रंथियां हैं जितनी स्त्री को आंख में। इसलिए प्रकृति ने चाहा था कि दोनों रोएं, दोनों रोने की कला सीखें।
तो पुरुष तो बड़ी मुश्किल में पड़ गया है। मनसविद कहते हैं कि मनुष्यों में पुरुषों की पीड़ा के बहुत कारणों में एक बुनियादी कारण उनका न रोना भी है। रो ही नहीं सकते। हल्के नहीं हो पाते। तुमने कभी देखा है, तुम रो लिए हो, हल्के हो गए हो। कोई भार बह जाता है। दुनिया में दुगुने पुरुष पागल होते हैं स्त्रियों की बजाय। क्योंकि स्त्रियां रो लेती हैं जरा-सी बात हुई, चिल्ला ली, नाराज हो ली, रो ली। पुरुष थोक पागल होता है। इकठ्ठा करता जाता है, इकठ्ठा करता जाता है, इकठ्ठा करता जाता है, फिर एक घड़ी आती है जहां संभालना मुश्किल हो जाता है। दुगुने पुरुष पागल होते हैं। और दुगुने ही पुरुष आत्महत्या भी करते हैं। हालांकि स्त्रियां धमकी बहुत देती हैं, मगर करतीं नहीं। स्त्रियां कहती हैं कि हम मर जाएंगे, ऐसा कर लेंगे, वैसा कर लेंगे, मगर करती नहीं। कभी-कभी नींद की गोलियां भी ले लेती हैं तो हिसाब से लेती हैं कि कहीं मर ही न जाएं।
स्त्रियों में इतना पागलपन इकठ्ठा नहीं हो पाता, उनके रोने के कारण। लेकिन पुरुष आत्महत्या कर लेते हैं। और आत्महत्या से भी बड़ी भयंकर बात पुरुष की यह है कि पुरुष पूरे जीवन हत्या के आयोजन करने में लगा रहता है। इसलिए इतने युद्ध होते हैं दुनिया में। युद्ध चलते ही रहते हैं। कोई भी बहाना मिल जाए पुरुष को लड़ने का, वह चूकता नहीं। बस मौका मिल जाए मारने को, कोई आड़ मिल जाए हत्या की कि वह हत्या करने में लग जाता है। और बड़े ऊंचे-ऊंचे नाम देता है। राष्ट्र के लिए, मातृभूमि के लिए, धर्म के लिए, हिन्दू धर्म के लिए, इस्लाम के लिए ऊंचे-ऊंचे शब्द देता है, मामला कुल इतना ही है कि मारना है। मारना है तो ऐसे ही मारो कि मारने के लिए कम-से-कम सचाई तो रहेगी, कि हमारा दिल नहीं मान रहा है अब, अब हम किसी को मारेंगे। लेकिन मारना एकदम, सीधा-सीधा मारने लगो एकदम तो झंझट होती है। पहले वह झंडा ऊंचा रहे हमारा, या कुछ और उपाय करता है। सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा! तुम पागल हो गए हो। यही भ्रांति सभी को है। कोई बहाना खोजो। अच्छे-अच्छे बहाने खोज लो, मगर मतलब पीछे एक है। मतलब साफ हो-मारना है। क्योंकि अगर पुरुष न मारे दूसरे को तो फिर उसे परुष न मारे दूसरे को तो फिर उसे आत्महत्या की सूझती है।
ख्याल करना, दूसरे को मारना और अपने को मारने में बुनियादी फर्क नहीं है, ये एक ही ऊर्जा के दो पहलू हैं। अगर दूसरे को मारने का मौका मिल जाए तो आदमी अपने को नहीं मारता। और अगर दूसरे को मारने का मौका मिले ही न, मिले ही न, मिले ही न, तो जो दूसरे को मारने की प्रक्रिया थी, वह अपने पर ही लौट आती है। आदमी आत्महंता हो जाता है, इसलिए तुम जानकर चकित होओगे कि जब भी दुनिया में बड़ा युद्ध होता है, आत्महत्याओं की संख्या एकदम से गिर जाती है। जब पहले महायुद्ध में आत्महत्याओं की संख्या एकदम गिर गयी, तो मनोवैज्ञानिक भरोसा ही नहीं कर सके कि युद्ध से इसका क्या संबंध! क्यूं ऐसा हुआ? और दूसरे महायुद्ध में तो फिर और भी जोर से गिरी। तुम और भी चकित होओगे जानकर कि जब युद्ध होता है तो कम लोग पागल होते हैं, कम डाके पड़ते हैं, कम हत्याएं होती हैं, कम अपराध होते हैं। जरूरत ही नहीं है और अपराध करने की, युद्ध इतना बड़ा अपराध हो रहा है,। और इतनी शान से हो रहा है! हत्याएं इतनी खुली चल रही हैं, अब अलग-अलग निजी-निजी आयोजन क्या करना, राष्ट्रीय आयोजन हो रहे हैं। बड़े पैमाने पर काम चल रहा है तो अब छोटे-मोटे काम क्या करने हैं। समूह काटे जा रहे हैं, देश के देश बरबाद किए जा रहे हैं, तो अब इक्के-दुक्के आदमी को क्या मारना?
यह दुनिया का एक बड़ा महत्त्वपूर्ण राज है। जैसे हिंदुस्तान में उन्नीस सौ सैंतालीस के पहले हिन्दू-मुसलमान लड़ते थे। तो हिन्दू आपस में नहीं लड़ते थे। लड़ने का मजा मुसलमान से ही मिल गया तो अब आपस में क्या लड़ना? मुसलमान आपस में नहीं लड़ते थे। फिर हिंदुस्तान-पाकिस्तान बंटे। अब वह मजा गया तो हिन्दू हिन्दू से लड़ने लगे। मुसलमान मुसलमान से लड़ने लगे। तुमने देखा, बंग्लादेश और पाकिस्तान आपस में लड़ गए। मुसलमान मुसलमान से लड़ गए। भयंकर हत्या हई। और हिन्दू छोटी-छोटी बात पर लड़ते हैं। यह जिला महाराष्ट्र में रहे कि कर्नाटक में, लड़ो, छुरे भोंक दो। हिंदी राष्ट्रभाषा हो कि न हो, छुरे भोंकों, कोई भी बहाना लो! भाषा इत्यादि सब गौण बातें है। दक्षिण उत्तर का झगड़ा है, भाषा-भाषा का झगडा है।
जैसे-जैसे बड़े झगड़े मिटते जाते हैं, छोटे-छोटे झगड़े फैलते जाते हैं। लेकिन मात्रा आदमी को उपद्रव की उतनी ही रहती है। ‘टोटल’, ‘सम टोटल’, वह जो पूरा जोड़ है। वह उतना-का-उतना रहता है। बड़ा झगड़ा खड़ा हो जाए तो एकदम बंद हो जाते हैं। तुमने देखा, चीन ने हमला किया, फिर गुजराती-मराठी का कोई झगड़ा नहीं। खतम! जब चीन से ही झगड़ा हो रहा है तो अपने ही आदमियों को आस-पास क्या मारना! हिंदुस्तान-पाकिस्तान का झगड़ा हो जाए तो पाकिस्तान इकठ्ठा हो जाता है। नहीं हो झगड़ा तो पाकिस्तान में भीतर झगड़े शुरू हो जाते हैं।
आदमी आदमी से लड़ने को उत्सक है। कहीं भी लड़ाई चलनी ही चाहिए। और इस सारी लड़ाई के पीछे एक बुनियादी कारण है कि हमने पुरुष को अहंकार सिखाया है। और उसकी आंखों से हमने आंसू छीन लिए हैं। आंसू विनम्र करते हैं। और आंसू पवित्र करते हैं। आंसू हल्का करते हैं।
रोओ! रोने की कला सीखो कभी-कभी अकारण रोओ। रोने के मजे के लिए ही रोओ। कभी शांत बैठ जाओ और आने दो आंसुओं को। तुम सोचोगे ऐसे कैसे आ जाएंगे, कोई कारण तो चाहिए, ऐसे कैसे आ जाएंगे? मैं तुमसे कहता हूं तुम जरा प्रतीक्षा तो करो किसी दिन बैठकर! तुम चकित होओगे, आते हैं। क्योंकि कारण तो जिंदगी-भर रहे हैं, तुम आंसू रोककर बैठे हो। कारण तो कितने आए और चले गए, तुम नहीं रोए हो। और हर बार आंसू भरे थे और निकलना चाहते थे। उनके बांध तुमने बांध दिए हैं। बांध को टूटने दो।
बैठो और रोओ। सौंदर्य को देखो परमात्मा के और रोओ। संगीत को सुनो परमात्मा के और रोओ। आह्लाद में रोओ। रोओ और नाचो। नृत्य तुम्हारे शरीर को पवित्र कर जाएगा। आंसू तुम्हारी आंखों को पवित्र कर जाएंगे।
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