अंतरराष्‍ट्रीय महिला दिवस यानि 8 मार्च के दिन फेमनिज्म का झंड़ा लहराते सैकड़ों साल बीत चुके हैं, पर वास्तविकता के धरातल पर आधी आबादी की स्थिति आज भी जस की तस बनी हुई है। असल में एक स्त्री की अस्मिता, इच्छा और सपने सभाओं मे दिए गए भाषणों और नारों से कहीं अलग हैं। जी हां, जिसे दुनिया आधी आबादी के नाम से जानती है, उसका पूरा सच जानने और समझने से हमारा समाज आज भी कतराता है। कहने को तो समय-समय पर लोग अपनी सोच और अनुभव के आधार पर महिलाओं के लिए बहुत कुछ कह चुके हैं, पर उसे समझे कौन?

समाज ने गढ़ी स्त्रीत्व की परिभाषा

स्त्री माया है, स्त्री छल है, स्त्री नरक का द्वार है… जिस तरह से तथाकथित विद्वानों ने स्त्री को परिभाषित करने की कोशिश की है, उससे तो मानो ऐसा लगता है कि स्त्री आम इंसान से अलग कोई नई प्रजाति हो। जिसका जैसा अनुभव रहा उसने स्त्री के बारे में बोल दिया, पर वास्तविकता ये है कि स्त्री के दिलो दिमाग पर अंकुश रख कर उसके बारे में बोलना आसान है बजाए उसे समझने के। क्या आपने सोचा है जब आप छोटे थे तो आपके और आपकी छोटी बहन के रहन-सहन और सोच विचार में कोई बड़ा अतंर था, नहीं शायद नहीं। वो आपके साथ ही खेलती कूदती बड़ी हुई लेकिन किशोरावस्था की दहलीज पर पहुंचते ही उस पर स्त्रीत्व का आवरण मढ़ दिया गया है। दरअसल, ये समाज ही है जो स्त्रीत्व की परिभाषा गढ़ता है और उसे बनाए रखने के लिए ताना बाना बुनता है।विश्वविख्यात फ्रेंच लेखिका और प्रसिद्ध नारीवादी विचारक सीमोन द बोउवार ने कहा है… ‘स्त्री पैदा नहीं होती, बना दी जाती है।’

स्त्री की स्वतंत्रता से डरता है समाज

स्त्री की स्वतंत्रता हमेशा से समाज को डराती रही है। कहा गया है कि स्त्री को जन्म के बाद पिता, शादी के बाद पति और वृद्धावस्था में पुत्र के संरक्षण में ही रहना चाहिए। ऐसे आदर्श न सिर्फ स्त्री को सामाजिक सीमाओं में बांधने के लिए बनाए गए बल्कि कहीं न कहीं स्त्री की व्यक्तिगत पहचान को भी नकारते हैं। सवाल ये है कि स्त्री की स्वतंत्रता से समाज इतना डरता क्यों हैं… जीवन की राह पर चलते हुए बुराई या भटकाव का शिकार तो स्त्री या पुरुष दोनो हो सकते हैं, पर इसके चलते स्त्री से उसकी अपनी राह चुनने की आजादी छीन लेना कितना सही है।

चरित्र को क्यों बनाया जाता है निशाना

समाज हमेशा से स्त्री चरित्र को लेकर निशाना बनाता रहा है, सतयुग में जहां सीता के चरित्र पर सवाल उठाए गए, वहीं आज के आधुनिक कहे जाने वाले इस युग में भी लोगों को चरित्रहीन स्त्री की पहचान बताई जाती है। समय भले ही आगे बढ़ चुका है, पर एक स्त्री को आज भी चरित्र की कसौटी पर परखा जाता है और दुखद बात ये है कि इस कसौटी के मापदंड अक्सर बेबुनियाद होते हैं। यौन हिंसा जैसे मामलों में पुरुष पक्ष के जिम्मेदार होने के बावजूद पीड़ित महिला को ही समाज इसके लिए कसूरवार ठहराता है और उसके चरित्र को लेकर मनगढ़ंत बातें बनाई जाती हैं। यही वजह है कि पुरुष जहां जीवनभर अपने पुरुषत्व का दंभ भरता रहता है, पर वहीं स्त्री चरित्र और मर्यादा के नाम पर समाज के निशाने पर रहती है। ऐसे में समाज के इस दृष्टिकोण में परिवर्तन की जरूरत है।

योग्यता को कब मिलेगी स्वीकृति

भारतीय समाज में एक स्त्री की पहचान उसके घर परिवार और पति से जुड़ी होती है न कि उसकी वास्तविक योग्यता से। समाज सिर्फ इतना देखता है कि वो कितनी अच्छी बेटी है, वो कितनी अच्छी पत्नी, बहु और मां है, इसके अलावा उसकी व्यक्तिगत खूबियों को नजरअंदाज कर दिया जाता है। हमारे यहां शादी के नाम पर लड़कियों की प्रतिभा और आकांक्षाओं को नजरअंदाज कर दिया जाता है और उन्हें एक घर तक सीमित कर दिया जाता है। जबकि विकसित देशों की बात करें तो वहां स्त्रियों की योग्यता को पूरा सम्मान मिलता है और देखा जाए तो उन देशों के विकास में स्त्रियों की सक्रिय भागीदारी भी बड़ी वजह साबित हुई है। असल में एक बेहतर समाज के निर्माण और विकास के लिए पुरुष की तरह ही स्त्री की मानसिक और बौद्धिक क्षमता भी मायने रखती है।

किसी ने बहुत खूब कहा है कि हर देश को विकास के मार्ग पर ऊपर उठने के लिए दो पंख होते हैं एक स्त्री और दूसरा पुरुष। ऐसे में देश की उन्नति एक पंख से उड़ान भरने पर नही हो सकती हैं। इक्कीसवीं सदी के 20वें वर्ष में हमने पदार्पण कर लिया है, अब तो हमें देश और समाज के विकास में स्त्रियों की भूमिका को समझना होगा। इसकी शुरुआत आप अपने घर, कार्यस्थल और समाज से कर सकते हैं, आपके आसपास जो भी महिला है, उसे सम्मान दें और बिना किसी पूर्वाग्रह के उसकी बातों को समझने की कोशिश करें। यकीन मानिए ऐसा कर आप सिर्फ 8 मार्च ही नहीं हर दिन महिला दिवस के रूप में मना सकते हैं और बेहतर समाज के निर्माण में अपना योगदान दे सकते हैं।