आदिकाल में कभी स्त्री की सम्वेदनशीलता एवं सुकोमल शरीर को देखकर कहीं ये नियम बना होगा कि पुरुष बाहर जाकर जीविकोपार्जन के लिए श्रम करेगा तथा स्त्रियाँ घर पर रहकर भोजन, गृहकार्य एवं घर व घर के सदस्यों की देख-रेख, बच्चे पालने आदि का काम करेगी जो कि बाद में पूरे मानव समाज में एक सर्वमान्य नियम बन गया होगा l किन्तु बाद में यही नियम स्त्रियों के लिए शोषणकारी सिद्ध होने लगा, क्योंकि गृह सञ्चालन में उसका स्थान केवल एक सेविका, एक समर्पित दासी के अतिरिक्त कुछ नहीं था l संयुक्त परिवार में भरे-पूरे घर और अतिथियों को खिलाने के बाद बचा-खुचा खाना, पहनना यही उसका जीवन था l अपनी छोटी से छोटी इच्छाओं पर भी वह खर्च नहीं कर सकती थी कारण कि पुरुष द्वारा उपार्जित धन की वह मात्र ट्रस्टी होती थी, उस धन को अपने मन मुताबिक खर्च कर ले यह अधिकार उसे नहीं दिया गया l बाल विवाह, दहेज़ प्रथा, बहुपत्नी प्रथा, सती प्रथा, घरेलू हिंसा आदि तमाम पीड़ाकारी, शोषणकारी और निर्मम कुप्रथाओं के चलते कई सदियों तक घुटन-भरा जीवन जीने के बाद नारी ने पढ़-लिख कर आत्मनिर्भर होने के लिए नौकरी व व्यवसाय के क्षेत्र में कदम बढाया तब संविधान ने भी उसे बराबरी का अधिकार दिया, बुद्धिजीवियों ने नारी स्वतंत्रता व नारी समानता की बातें की, पर क्या इन सबके बाद भी वास्तव में अभी भी समाज और घर-बाहर अपने समुचित स्थान के लिए संघर्ष करती नारी की स्थितियों में सन्तोषजनक सुधार हुआ है ? इस प्रश्न का सही उत्तर देना भारतीय पुरुषों के लिए बहुत मुश्किल है l क्योंकि भारतीय पुरुष बातों में चाहे जितना एडवांस बन ले पर सत्य यही है कि आज भी वह मध्ययुगीन मानसिकता से बाहर नहीं निकल पाया है l अभी चंद दिनों पहले की बात है ”तीन तलाक” प्रकरण पर अपना सम्पादकीय आलेख मैंने अपने फेसबुक पेज पर पोस्ट कर दिया था कुछ हीं देर बीते होंगें कि जैसे खलबली मच गई, कुछ पुरुषों के बौखलाए हुए कमेंट्स वहाँ आने लगे क्योंकि यह उनके अहं पर चोट थी कि अत्यंत कुशलता से इतने सदियों से बिछाए गए उनके जाल को कोई औरत काटने की कोशिश कर रही है l शोषण के सीलन में सदियों से सड़ती औरतों को कोई ताज़ी हवा में साँस लेने की सलाह दे यह अधिसंख्य पुरुष के पौरुष को गवारा नहीं, इसके थोड़ी हीं देर में मेरी यह पोस्ट एक धार्मिक युद्ध का साम्प्रदायिक अखाड़ा बन गया .. जब भी औरत के हक़ की बात होती है तो तमाम दांवपेंच सहित पुरुष वर्ग झटपट धर्म का डंडा भांजने लग जाता है क्योंकि व्यवहार एवं यथार्थ के ठोस धरातल पर वह आज भी वही खड़ा है जहाँ सदियों पहले वह अपने लिए पुरुषसत्तात्मक समाज की स्थापना करने वक़्त खड़ा था, जब उसने औरत को जकड़कर पंगु पशु बनाने के लिए तमाम शास्त्रों पुराणों में अपने क्षुद्र मन की चालाकियों को ईश्वरीय सन्देश कहकर प्रसारित किया था और धार्मिकता तथा सामाजिकता की भलाई के नाम पर औरत को अकाट्य जंजीरों से जकड़ कर रख दिया था l
हाल में स्त्री वर्ग में आए परिवर्तन और जागरूकता के बाद आज ऐसा कोई क्षेत्र नहीं जहाँ नारी ने अपने सुदक्ष कदम रखकर अपनी सुदृढ़ उपस्थिति दर्ज न कराई हो l परन्तु अपनी मेहनत और काबिलीयत का हर सुबूत देने के बाद भी जब एक औरत काम करने बाहर निकलती है तो उस कामकाजी स्त्री को घर या कार्यक्षेत्र में बराबरी का अधिकार कभी नहीं मिल पाता l यह समीकरण गाँव या शहर दोनों जगह समान रूप से लागू है l आज आत्मनिर्भर व पढ़ी-लिखी होने के बाद भी उसके साथ हर जगह शोषण के हादसे हो रहे हैं । शिक्षित और कमाऊ होकर भी वह खुलेआम प्रताड़ना की शिकार है । अगर देखा जाय तो एक कामकाजी स्त्री घर के अंदर और बाहर एक समान खटती रहती है किन्तु उसके किए गए श्रम का कोई मूल्य नहीं होता या यूँ कहें कि कोई भी औरत रात-दिन मूल्यहीन मेहनत करती है । वास्तविकता तो यह है कि हमारे इस पुरुषसत्तात्मक सामाजिक ढांचे में एक स्त्री के लिए घर से बाहर काम पर निकलना हीं बहुत बड़ा चुनौती भरा कार्य है । हम भले हीं आदिम युग से बाहर आ गए हों पर घर के बाहर, एक अकेली स्त्री के लिए अभी भी कोई जगह पूरी तरह महफूज नहीं है । ऑफिस हो या बाजार या रास्ता हर जगह वह आज भी असुरक्षित है । एक तरफ तो उसे कार्यक्षेत्र में सहकर्मियों तथा बॉस द्वारा टीका टिप्पणी, भेदती निगाहों, शोषण आदि का शिकार होना पड़ता है वहीँ दूसरी तरफ घर में पति की अविश्वास भरी नज़रें और विष बुझे तानों से उसका मन पल-पल टूटता रहता है l घर से कार्य स्थल तक आने जाने में उसे हर वक़्त डर, आशंका और असुरक्षा बनी रहती है कि कब असामाजिक, लम्पट तत्वों द्वारा छेड़खानी की शिकार बन जाय कहा नहीं जा सकता बलात्कार से लेकर हत्या तक की डरावनी आशंका की तलवार हमेशा उसके अस्तित्व पर लटकती रहती है l पुलिस भी कब रक्षक से भक्षक बन जाए कहना मुश्किल ऊपर से पति का सहयोग तो दूर वह यदि उसे किसी पुरुष से बातचीत भी करते देख लेता है तो सीधा उसके चरित्र पर संदेह करना और लांछन लगाना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझता है और अगर दुर्भाग्यवश उसके साथ कभी कुछ अनहोनी घट जाय तो सबसे पहले पति हीं उसके चरित्र हनन पर उतर आता है, बाकि के लोगों के व्यवहार का अंदाजा लगाया जा सकता है l नौबत मारपीट से लेकर तलाक तक आ जाय तो कोई बड़ी बात नहीं l
शोषण और भ्रष्टाचार का आलम ये है कि समानता के अधिकार तथा डिग्री और काबिलीयत के बावजूद एक स्त्री से आज भी पुरुष से कम सैलरी पर उससे ज्यादा काम कराया जाता है l स्वयं को सिद्ध करने, चार पैसे अपनी मेहनत से कमाने की चाहत में घर-बाहर का दोहरा काम सर पर रखकर वह बाहर काम पर निकलती है किन्तु ज्यादातर उन पैसों पर भी उसका अधिकार नहीं होता उसके द्वारा उपार्जित धन का हिसाब उसके पति के पास होता है l 6 से 10 घन्टे घर से बाहर रहकर खटने के बाद घर आकर उसे घरेलू कार्य भी करने पड़ते हैं, किचन में खाना बनाने से लेकर बच्चों के होमवर्क और साफ-सफाई तक l
पश्चिम-प्रभावित पुरुष अपनी पत्नी से अर्थ-उपार्जन की अपेक्षा तो रखता है पर पश्चिमी देशों की तरह भारतीय पति घरेलू कामों में अपनी पत्नियों को सहयोग नहीं करता, ऐसा करना उन्हें अपने पुरुषत्व के लिए अपमानजनक लगता है l यही नहीं वर्किंग पति-पत्नी में किसी वजह से अगर कभी जरुरत पड़ी तो अवकाश लेने के लिए भी महिला को हीं बाध्य किया जाता है l इन सब दवाबों की वजह से कार्यक्षेत्र में स्त्री अपनी योग्यता सिद्ध नहीं कर पाती और सहकर्मियों की हँसी की पात्र तो बनती हीं हैं पदोन्नति में भी पीछे रह जाती है l दुहरे, तिहरे दवाबों से घिरी कामकाजी महिलाओं का मानसिक और शारीरिक व्याधियों की शिकार बन जाना असामान्य नहीं l
यह तो हुआ आत्मनिर्भर स्त्रियों का हाल जिन स्त्रियों का परिपालन पुरुष करता हो जो अपनी छोटी से छोटी जरुरत के लिए भी पुरुष पर निर्भर हो उन स्त्रियों का जीवन तो अपने आत्मसम्मान की लाश पर हीं खड़ा हुआ होता है l
कैसे बदले स्थिति –
जब तक महिला के प्रति चाहे वह घरेलू हो या कामकाजी उसके पति और परिवार का नजरिया नहीं बदलेगा महिला की स्थिति नहीं बदलेगी l स्त्रियों के प्रति समाज को अपनी भावनाओं को बदलने की आवश्यकता है l किसी भी स्त्री के लिए एक मानवतावादी दृष्टिकोण हर समाज का दायित्व है l आधी आबादी पंगु हो तो उस समाज की तरक्की असंभव है तात्पर्य यह भी कि स्त्री की स्थिति सुदृढ़ होगी तो परिवार सुदृढ़ होगा, परिवार सुदृढ़ होंगें तो देश सुदृढ़ होगा l विकसित देश इसलिए विकसित हैं क्योंकि वहाँ की स्त्रियाँ मज़बूत हैं, सुदृढ़ हैं, आत्मनिर्भर हैं और पिछड़े देश इसलिए पिछड़े हुए हैं कि वहाँ के पुरुष अपनी सारी काबिलियत औरत को दबाने, कुचलने, प्रताड़ित करने में हीं समझते हैं .. कभी धर्म की लाठी से तो कभी सामाजिक नियमों की लाठी से औरतों को पीटकर हांकने में हीं इन देशों की मर्दानगी सार्थक होती है l
तमाम जागरूकताओं के बाद महानगरों में स्त्री की स्थितियाँ पहले से काफी हद तक बदली हैं पर बाकि जगहों पर एक आम औरत की स्थिति आज भी वही है l किसी छोटे शहर या गाँव में चले जाएँ तो आज भी औरतें अपने अंतर्वस्त्र छुपा कर कपड़ों से ढ़ककर सुखाती हुई मिलेंगी जबकि पुरुषों के कच्छे बहुत हीं उदारता से खुल्लेआम यहाँ-वहाँ सूखते मिलेंगे जैसे कोई पूजनीय वस्तु हो l यह केवल एक आम क्रिया कलाप नहीं बल्कि सदियों पुराना ऐलान है कि महिलाओं के लिए यौन-शुचिता उसके जीवन से भी ज्यादा जरुरी है और पुरुषों के लिए उसकी बेशर्मी हीं उसकी मर्दानगी है और इसी पुरुषवादी सोच की बनावट के भीतर बहुत गहरे और मजबूती से जमी हुई हैं जड़ें बलात्कार की, स्त्रियों के मान-मर्दन की … कि स्त्री को ढकना है, छुपाना है, दबाना है, कुचलना है कहीं वो खुलकर साँस लेने की न सोचने लग जाए, कहीं वो अपनी राह खुद न तलाशने लग जाए l संविधान ने, कानून ने स्त्री को कई अधिकार दिए हैं पर अपने उन अधिकारों के प्रति अधिसंख्य स्त्रियाँ पुर्णतः अनभिग्य हैं उन्हें इसकी जानकारी हीं नहीं l जिस तरह वोट पाने के लिए नेताओं के प्रचार और बैनर शहरों से लेकर गाँवों की गली-गली तक आसानी से पहुँच जाते हैं वैसे ये जानकारियाँ हर औरत तक क्यों नहीं पहुंचाई जाती ? इसलिए कि सदियों से पुरुषों की सोची समझी नीतियों के तहत उसे शक्तिहीन और दोयम हीं बना कर रखना है कि वह अपनी मुक्ति की राह न तलाश सके l आंकड़ों के अनुसार आज प्रति हज़ार पुरुष पर स्त्री का अनुपात ९४० है फिर भी कन्या भ्रूणहत्या जारी है l चुपचाप किन्तु बड़े आराम से कराए जाने वाले ऐसे गर्भपातों के कोई आंकड़े नहीं मिलते क्योंकि लिंग परीक्षण के लिए भ्रूण-जाँच कानूनन जुर्म है l एक ऐसे समाज में जहाँ औरत केवल उपयोग और उपभोग की सामग्री समझी जाती हो उसका खुद का जीवन उसके लिए किसी भयावह गुनाह से कम नहीं, जब नहीं दे सकते आप एक औरत को समतामूलक समाज तो क्यों बना रखा है यहाँ पर भ्रूण-जाँच को कानूनी जुर्म ? कर दो स्त्री का समूल नाश, पूरे जीवन नर्क भुगतने से पहले हीं मार दो उसे कोख में हीं, पैदा करो केवल बेटे हीं बेटे .. पर नहीं आप ये भी नहीं कर सकते क्योंकि आपको भोग्या तो सबको चाहिए पर बेटी नहीं l
आज भारतीय नारी के जीवन में नवीन आत्मविश्वास की सर्जना हुई है l उसने अपने जीवन की सम्पन्नता एवम परिपूर्णता के लिए नए-नए क्षितिजों को छुआ और गढ़ा है पर इसी के साथ उसे अभी खुद को और मज़बूत बनाना होगा न केवल अपने लिए बल्कि आने वाली अपनी बेटियों के लिए, उनके मार्गप्रदर्शन के लिए l घर तो एक औरत सदियों से कुशलता से संभालती आई हीं है, आंकड़े कहते हैं कि कार्यस्थल में भी पुरुषों के मुकाबले एक स्त्री अपने दायित्वों को ज्यादा जिम्मेदारीपूर्वक निभाती हैं किन्तु इन अच्छाईयों के साथ-साथ आज की कुछ पाश्चात्य प्रभावित आधुनिक कामकाजी नारियों ने कुछ ऐसी बातें, ऐसे प्रभाव भी ग्रहण कर लिए हैं जिन्हें कल्याणकारी नहीं कहा जा सकता l ग्लैमर जगत की चकाचौंध से इनकी आँखें चुंधिया जाती हैं पर देखा जाए तो माडलिंग हो या सिनेमा जहाँ भी संभव हो अपने शारीरिक आकर्षण का इस्तेमाल कर फायदा उठा लेना अगर इन महिलाओं को अनुचित नहीं लगता है तो इसके पीछे भी किसी पुरुष का दिमाग हीं काम कर रहा होता है, नाम मात्र के कपड़ों में आखिरकार वह पुरुष वर्ग को हीं प्रसन्न कर रही होती है l इन महिलाओं को जरुरत है सोच बदलने की .. क्योंकि तमाम आधुनिकता और आत्मनिर्भरता के बाद भी वह अपना स्थान तय नहीं कर पाई और आखिर में कठपुतली हीं रह गई पुरुष सत्ता के हाथ की l अपने सम्मान की लड़ाई में उसे पहले स्वयं अपना सम्मान करना सीखना होगा l
जहाँ पुरुष और समाज को नारी को यथोचित स्थान और मान सम्मान देना सीखना होगा वहीँ स्त्री को भी उन्मुक्तता एवं आर्थिक स्वतंत्रता के अहंकार में उजड्ड, अशिष्ट आचरण एवं फैशन और आज़ादी के नाम पर उद्दंडता, अश्लीलता और उच्छलंखृता में निहित गहन भेद के नियमों को समझ कर आगे बढ़ना होगा l
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