प्रेम मनुष्य को सत्कर्मों में रगजा सिखा देता है। तभी तो कबीरदास कहते हैं-
‘सतगुरु हम सूं रीझि कर एक कहा प्रसंग।
बरसा बादल प्रेम का भीजि गया सब अगं।।’
अर्थात सात्विक गुरु ने प्रेम पूर्वक प्रसन्न होकर ऐसा ज्ञान दिया जिससे ज्ञान रुपी बादल बरसा और मेरे शरीर के सारे अंगों का कायाकल्प हो गया। जीवन में प्रेम का सर्वाधिक महत्त्व है मनुष्य के जीवन को अमरत्व प्रदान कर सकता है सिर्फ प्रेम।
आज हम जिसे रसखान के रूप में जानते हैं वह कभी शेख सैयद इब्राहिम पठान थे कहते हैं कि उनकी एक बनिये के लड़के में आसक्ति थी एक बार किसी सभा में ईश्वर की चर्चा हो रही थी तभी किसी ने कहा ‘ईश्वर को प्राप्त करने के लिए मनुष्य को उतना ही आसक्त होना चाहिए जितना कि शेख साहब की उस बनिये के लड़के में आसक्ति है।’ यह बात सुनकर इन्हें बड़ी लज्जा आयी ये वृन्दावन चले आये इन्होंने सोचा क्यों न उससे प्रेम किया जाये जिससे इतनी गोपिकायें प्रेम करती थी और
ये रसखान बन गये, प्रेम का जो रूप सकारात्मक होगा उससे मनुष्य का उद्धार होगा।
आज हम जब वार्तालाप का माध्यम दूरभाषिये को चुनते हैं तो फोन से आवाज आती है हेलो, फोन का आविष्कार ग्राहम बेल ने किया था, हेलो उनकी प्रेयसी का नाम था इतने बड़े आविष्कार का श्रेय उन्होंने अपनी प्रेमिका को दिया। अगर प्रेम नहीं होता तो विधाता ने इतने सुन्दर संसार का सृजन नहीं किया होता, प्रेम में तो न अपेक्षा होती है, न उपेक्षा प्रेम की इमारत त्याग की नींव पर खड़ी होती है ।
अब्दुर्रहीम खानखाना ने कितने साधारण ढ़ग से इस असाधारण तथ्य को प्रस्तुत किया है –
‘रहिमन प्रीति सराहिए मिले होत रंग दून।
ज्यों जरदी हरदी तजै, तजै सफेदी चुन।।’
रहीम कहते हैं ‘ऐसी प्रीति सराहनीय है जो दो न होकर एक हो जाती है जैसे हल्दी और चूने को मिलाया जाता है तो हल्दी और चूना दोनों अपना रंग छोड़कर अरुणिम हो जाते हैं।
प्रेम में छोटे बड़े का अहं नहीं होता जो जितना ही सात्विक चरित्र का व्यक्ति होगा वह उतना ही उच्च कोटि का प्रेम करेगा। जब अजात शत्रु ने एक आम्रपाली के लिए समस्त वैशाली को तहस-नहस कर दिया। आम्रपाली को मगध की रानी बनाना चाहा तब आम्रपाली ने कहा तुम प्रेम का अर्थ समझते भी हो, प्रेम विध्वंश का नहीं सृजन का पर्याय है ऐसा प्रेम ही क्या जिसमें हजारों लोगों की आहें भरी हो, प्रेम का वास्तविक मर्म तो बुद्ध हैं और वह बुद्ध की शरण में चली गयी।
प्रेम भावनाओं के अंकुर से अंकुरित होता है जब भावनायें सबल होती हैं तब अंतरात्मा से सकारात्मक चिंतन राष्ट्र के प्रति प्रस्फुटित होता है तब यह राष्ट प्रेम में रूपान्तरित होता है तभी तो भगत सिंह ने कहा मेरी शादी हो चुकी है, मेरी दुल्हन आजादी है।
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने कहा है –
‘जो भरा नहीं है भावों से।
बहती जिसमें रसधार नहीं।।
वह हृदय नहीं वह पत्थर है।
जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।।’
प्रेम आंखों से व्यक्त होता है क्योंकि हृदय के भाव आंखों में चित्रित हो जाते हैं। तभी तो श्रीराम चन्द्र जी सीताहरण के पश्चात पशु-पक्षियों से पूछ बैठते हैं –
‘हे खग-मृग हे मधुकर श्रोनी।
तुम देखी सीता मृगनयनी।।’
एक बकरे को कटते देख महात्मा बुद्ध की आंखों से अश्रु लुढ़क पड़े वे बकरे के गले के बदले अपना गला कटवाने को तैयार हो गये, प्रेम में समर्पण चाहिए, प्रेम बलिदान मांगता है तभी तो गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं-
‘एक भरोसे एक बल एक आस विश्वास।
एक राम घनश्याम हित चातक तुलसीदास।।’
गोपिकायें कृष्ण के प्रेम में व्याकुल हैं वह कृष्ण के प्रेम के लिए चोरी भी करना चाहती हैं। सूरदास लिखते हैं-
‘सखी री मुरली लीजै चोरि।
जिन्हें गुपाल कीन्हे अपनै बस प्रीति सबनिकी तोरि।।’
वे कहती हैं हे सखी कृष्ण की वंशी चुरा ली जाये जिसने कृष्ण को अपने वश में कर लिया है और कृष्ण ने हम सबसे प्रीति की डोर तोड़ डाली है।
एक बार अर्जुन ने कृष्ण से पूछा प्रभु! आपको बांसुरी क्यों इतनी प्रिय है कृष्ण ने कहा हे पार्थ! देखो बांस से बांसुरी के लिए बांस को अपने मूलस्वरूप को समर्पित करना पड़ता है।
अपने शरीर से सुरीला स्वर निकालने के लिए काष्ठï कार ने इसमें छिद्र बनाएं हैं। इसमें त्याग की अद्ïभुत क्षमता है और जब मैं इसे बजाता हूं तो इसकी ध्वनि कर्ण के सहारे पहुंचकर लोकहृदय में अद्वितीय आनन्द प्रदान करती है, ये लोक कल्याण का कार्य करती है अत: ये मुझे प्रिय है।
प्रेम की बेल को सींचने के लिए मीरा ने लोकलाज त्याग दिया मीरा का
प्रेम निष्पाप है, निस्वार्थ है उनका प्रेम विश्वास की नींव पर टिका हुआ है वे कहती हैं-
मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई।
जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई रे॥
तात-मात भ्रात बंधु आपनो न कोई।
छाड़ि दई कुल्फी कानि कहा कटि है कोई॥
संतन ढिंग बैठि-बैठि लोकलाज खोई॥
अंसुवन जल सींचि-सींचि प्रेम बेलि बोई।
अब तो बेल फैल आणंद फल होई॥
सचमुच मीरा ने कृष्ण के प्रेम का ऐसा बीज इस संसार में बोया जो लोककल्याण के लिए अंकुरित हुआ मीरा के प्रेम ने अमरत्व प्राप्त कर लिया। प्रेम जीवन के प्रत्येक संबंध की नींव है। यदि कृष्ण और सुदामा का प्रेम देखा जाये तो कृष्ण जैसे ही सुनते हैं सुदामा आये हैं वे दौड़ पड़ते हैं नरोत्तम दास लिखते हैं-
‘प्रीति में चूक नहीं उनके, हरि मो मिलि है कंठ लगायकै॥’
अर्थात् हरि के प्रेम में चूक नहीं है जैसे ही सुदामा मिलते हैं कृष्ण उन्हें गले लगा लेते हैं। प्रेम और मोह में जमीन आसमान का फर्क है मोह सत्य से दूर भागता है, प्रेम सत्यता को पूरी कर्तव्य निष्ठï एवं समर्पण के साथ स्वीकार करता है। अब हम अपने शरीर का ही उदाहरण लें हम सभी जानते हैं ये शरीर नश्वर है पर हमें इस शरीर से प्रेम नहीं मोह रहता है, जीवात्माएं अपना स्थान बदलती रहती हैं परंतु जीव इस सत्य को स्वीकार करने में हिचकता है। गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है-
‘देहिनोस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तर प्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुहयति॥’
अर्थात जैसे जीवात्मा की इस देह में बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है। इस विषय में धीर-वीर पुरुष मोहित नहीं होता।
जब युधिष्ठिर ने यक्ष से पूछा युधिष्ठिर सुख क्या है? युधिष्ठिर ने कहा सुख मनुष्य के अच्छे आचरण का परिणाम है। अर्थात जिसका आचरण जितना ही उत्तम होगा वह उतना ही सुखी व्यक्ति होगा। प्रेम सुख को प्राप्त करने का एक माध्यम है। प्रेम एक ऐसी दिव्य अनुभूति है जिसका सन्न्ध्यि होते ही हम ईश्वर से तादात्म्य स्थापित कर लेते हैं।
प्रेम करना और प्रेम का स्वांग रचाने में बड़ा अंतर है आजकल अधिकांश मनुष्य प्रेम का स्वांग रचकर बहुरुपिया बने रहते हैं। अंग्रेजी में कहा गया है- ‘who care love who dare love’ अर्थात जो प्रेम करता है, प्रेम पाने का अधिकारी भी वही है। सचमुच मीरा हो या राधा चाहे शबरी अथवा निषादराज गुह सबने प्रेम किया सबने प्रेम को पाया।
एक बार महान दार्शनिक संत अगस्तीन के पास एक जिज्ञासु पहुंचा उसने अगस्तीन से पूछा कि आप मुझे बहुत कुछ कहने समझाने की बजाय केवल एक शब्द में ही उपदेश दे दें। संत अगस्तीन ने उसकी ओर देखा। बात उसकी न केवल विचित्र थी बल्कि चुनौतीपूर्ण भी थी अभी तक वह व्यक्ति उनसे कहे जा रहा था आप मुझे बहुत आज्ञाएं न देना क्योंकि मैं भूल जाऊंगा आप मुझे एक शब्द में सार की बात बता दें। मैंने शास्त्रों को न तो पढ़ा है और न ही पढ़ने की इच्छा है जितना यह जिज्ञासु था उतने ही अनूठे थे संत अगस्तीन। वह मुस्कराते हुए बोले तुम्हारे लिए वह एक शब्द है प्रेम पर सह तथ्य ध्यान रखना कि प्रेम वही कर सकते हैं जिन्होंने स्वार्थ की वासना एवं अहंता की क्षुद्रता का पूरी तरह से त्याग कर दिया है यदि तुम सचमुच ही प्रेम कर सको, शेष सब अपने आप हो जायेगा।
अब्दुर्रहीम खानखाना ने कहा है-
‘ज्यों चौरासी लाखि में मानुष देह।
त्यों ही दुर्लभ जग में सहज सनेह॥’
अर्थात चौरासी लाख योनियों में भटकने के पश्चात मनुष्य की योनि प्राप्त होती है उसी तरह इस संसार में सात्विक प्रेम ही अत्यन्त दुर्लभ है।
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