भगवान जगन्नाथ की हर साल निकलने वाली यात्रा में सैकड़ों की तादाद में लोग बढ़चढ़ कर हिस्सा लेते हैं। लोग पूरे मन से उनकी अराधना करते हैं। मगर ये बात वाकई हैरान करने वाली है कि वे भी मनुष्यों के समान ज्वर की कष्टदायक स्थ्ति से जूझते है और परेशानी उठाते हैं। वे  प्रति वर्ष ज्येष्ठ मास की स्नान पूर्णिमा के मौके पर ज्वर से पीडित हो जाते हैं। स्नान पूर्णिमा से लेकर ठीक पंद्रह दिनों तक वे कष्ट में रहते हैं , उस वक्त एक नन्हे बालक के समान उनका लालन पालन किया जाता है। पंद्रह दिनों तक आराम के दौरान भक्तजनों को उनके दर्शनों की अनुमति नहीं होती है। साथ ही इस दौरान उन्हें हल्का भोजन और औषधियां दी जाती है। पंद्रह दिन की अवधि समाप्त होने के बाद पूरी व्यवस्था और धूमधाम से भगवान जगन्नाथ की सवारी निकाली जाती है। पूर्ण रूप से स्वस्थ होने के बाद भगवान जगन्नाथ अपनी बहन सुभद्रा और भाई बलभद्रजी के साथ रथ में सवार होकर निकलते हैं। उन्के दर्शनें के लिए लोगों को भारी हुजूम उमड़ पड़ता है। भगवान जगन्नाथ के अस्वस्थ होने को लेकर कई तरह की मान्यताएं है। आइए जानते हैं एक पौराणिक कथा के माध्यम से भगवान जगन्नाथ से जुड़ी कथा।

पौराणिक कथा

पुराणों कें हिसाब से अपने राज्य के लिए राजा इंद्रदुयम्न भगवान की प्रतिमा बनवाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने बेहतरीन शिल्पकारों की खोज करनी आरंभ कर दी। भगवान की प्रतिमा बनती देख राजा इंद्रदुयम्न बेहद प्रसन्न नज़र आए। मगर एक दिन किसी कारणवश शिल्पकार अपने गांव वापिस लौट गए। अब राजा इस बात से बेहद चिंतित हो उठा। उन्होंने देखा तो अभी प्रतिमा अधूरी ही दी। अब प्रतिमा को पूर्ण करने की चिंता उन्हें मन ही मन सता रही थी। तभी एक दिन भगवान ने राजा इंद्रदुयम्न को दर्शन दिए। भगवान के दर्शन पाकर राजा इंद्रदुयम्न बेहद प्रसन्न हो उठे। तभी राजा ने भगवान से अपने विचलित मन की कथा सांझी की। उन्होंने बताया कि प्रतिमाएं पूर्ण नहीं हो पाई है। राजा की चिंता का विषय जानकर भगवान ने वचन किए कि मै बाल्यरूप में भी धरती पर विराजूंगा। वार्तालाप के दौरान उन्होंने राजा को आदेश दिया कि मेरा अभिषेक 108 घट के जल से ही होगा। तभी से ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा से लेकर अमावस्या तक भगवान जमन्नाथ नन्हे बालक के समान अस्वस्थ रहते है।

 

भक्त माधवदास की कथा

इस संदर्भ में भक्त माधवदास जी की कथा भी बेहद प्रसिद्ध है। एक पौश्राणिक कथा के मुताबिक माधवदास जी का नाम भगवान जगननाथ के परम भक्तों की सूची में शामिल है। जगन्नाथ पुरी में भक्त माधवदासजी का बसेरा था और वो न सिर्फ वहां अकेले रहते थे, बल्कि दिनभर भगवान का नाम जपते थे और उनकी साधना में खोए रहते थे। वे अपने कार्यों के लिए किसी पर भी निर्भर रहना पसंद नहीं करते थे। उन्हें भगवान जगन्नाथ के दर्शनों का सौभाग्य भी कई बार प्राप्त हुआ। वे उन्हें अपना सखा मानने लगे थे। एक ऐसा वक्त आया जब वो अस्वस्थ रहने लगे और शरीर से काफी निर्बल भी महसूस करने लगे। अब वे अपने दैनिक कार्य करने में असमर्थ हो चुके थे। ऐसे में उनके नज़दीकी लोगों ने उनकी देखभाल करना चाही, मगर वे किसी का एहसान नहीं लेना चाहते थे। उनके लबों पर हमेषा अपने प्रभु जगन्नाथ जी का ही नाम रहता था। अब माधवदास जी की दयनीय स्थ्ति देखकर भगवान जगन्नाथ भी बेहद चिंतित हो उठे और अपने भक्त की मदद के लिए सेवक का भेस बनाकर उनके पास आ पहुंचे। अब माधवदास जी पूरी तरह से निढ़ाल हो चुके थे। ऐसी हालत में भगवान जगन्नाथ जी ने एक सेवक के रूप में अपने परम प्रिय भक्त माधवदास जी की खूब सेवा की। न सिर्फ उनके लिए भोजन की व्यवस्था की बल्कि उनके उठने बैठने और यहां तक की उन्हें स्नान भी करवाने लगे। लगातार पंद्रह दिन तक उनका प्रभु ने एक शिषु के समान ख्याल रखा और उन्हें पहले की तरह ही पूर्ण रूप से स्वस्थ कर दिया। भक्त माधवदास जी अब स्वस्थ हो रहे थे और वे उस सेवक की उनके प्रति दया भावना से बेहद प्रसन्न भी हुए। वे जान चुके थे कि ये कोई और नहीं बल्कि उनके प्रभु और सखा भगवान जगन्नाथ ही हैं। उन्होंने कहा प्रभु आप चाहते तो क्षण भर में ही मेरे रोग को दूर कर सकते थे। फिर आपने मुझ भक्त की इतनी सहायता क्यों की।  तभी भगवान जगन्नाथ ने कहा कि माधवदास मैं नहीं चाहता था कि तुम पीढ़ा में रहो और दुख तकलीफ को सहो। प्रभु ने कहा कि माधव अभी तुम्हारे हिस्से के 15 दिन का रोग और बचा है। मगर मैं तुम्हे उस रोग से मुक्त करके, वो रोग मैं ले लेता हूं। ऐसी मान्यता है कि उस घटना के बाद से प्रभु जगन्नाथ खुद प्रत्येक वर्ष 15 दिन के लिए रोगग्रस्त हो जाते हैं। ऐसी हालत में भगवान जगन्नाथ को पंद्रह दिनों की अवधि के लिए एक खास प्रकार के कक्ष में रखा जाता है। उस कक्ष को अघोर कहकर पुकारा जाता है। इस समयावधि में प्रभु के पास केवल सेवकों को ही जाने की अनुमति होती है। इसके अलावा उनका ख्याल रखने के लिए वैद्यों को भी माने दिया जाता है। इस दौरान मंदिर में महाप्रभु के प्रतिनिधि अलारनाथ जी की प्रतिमा स्थपित की जाती हैं तथा उनकी पूजा अर्चना की जाती है। 15 दिन बाद भगवान स्वस्थ होकर कक्ष से बाहर निकलते हैं और भक्तों को दर्शन देते हैं।

 

 

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