विज्ञान और दार्शनिक विचारधारा ने विवेकानंद के हृदय में एक विचित्र स्थिति को जन्म दे दिया। सामाजिक संस्कार और तर्क का मन्थन उन्हें उद्वेलित करने लगे। उनकी इस मन:स्थिति को समझ पाना कठिन था। विभिन्न पाश्चात्य चिन्तकों की विचारधाराओं के अध्ययन से वह सत्य को जानने के लिए व्याकुल हो उठे। उनके मानस में प्रतिपल यही द्वन्द्व चलता रहता था कि इस रूपात्मक विश्व की संचालिका कोई अलौकिक शक्ति है अथवा नहीं। मानव जीवन का लक्ष्य क्या है? अत: वह साहित्य, विज्ञान, इतिहास आदि के अध्ययन के साथ ही इन प्रश्नों का समाधन पाने के लिए भी चिन्तित रहते थे।

यदा-कदा कोई धर्म संबंधी सभा होती और वहां कोई धर्म या ईश्वर पर व्याख्यान देता तो नरेन्द्रनाथ उससे पूछ बैठते, क्या आपने ईश्वर के दर्शन किए हैं? ऐसे विचित्र प्रश्न सुनकर वह व्यक्ति नरेन्द्रनाथ की ओर देखने लगता। ऐसे में वह पुन: अपना प्रश्न दोहराते। वह व्यक्ति इस प्रश्न का समाधान विभिन्न प्रकार के तर्कों और दृष्टान्तों से करने का प्रयत्न करता, किन्तु इससे नरेन्द्र की जिज्ञासा शान्त न हो पाती। उन्होंने अनुभव किया कि इस प्रकार के सभी धर्म प्रचारक केवल वाणी के पंडित होते हैं, जो केवल खंडन-मंडन पर विश्वास करते हैं। दूसरे धर्मों के दोष ढूंढना ही उनका कार्य होता है। ऐसे प्रचारक भला नरेन्द्रनाथ की ज्ञान पिपासा को क्या शान्त करते। वह समझ गए थे कि ऐसे प्रचारकों से कोई आशा करना बालू से तेल निकालने के समान है। नरेन्द्रनाथ की इसी ज्ञान पिपासा ने उन्हें विवेकानंद बनाया। नरेन्द्रनाथ से विवेकानंद बनने की उनकी यात्रा में उनके विशिष्ट गुणों व प्रतिभा का विशेष योगदान रहा है।

महान राष्ट्र निर्माता

स्वामी विवेकानंद की प्रतिभा सर्वोत्तमुखी थी। ये योगी, तत्त्वदर्शी, गुरु, नेता, ज्ञानी, धर्मप्रचारक और एक महान राष्ट्र निर्माता थे। इन्होंने पाश्चात्य देशों में वहां के निवासियों के समक्ष भारतीय धर्म का खजाना खोलकर देश का सिर ऊंचा किया।

विश्व गुरु बनें

स्वामी विवेकानंद का स्पष्ट मत था कि ‘केवल सर्वधर्म समभाव से मानवता का कल्याण हो सकता है।’ वे धर्म को केवल संप्रदायवाद या कर्मकांड तक ही सीमित नहीं मानते थे। उनके अनुसार- ‘धर्म सत्य का अनुसंधान करने वाली एक संस्था है।’

दयालु और स्नेही

स्वामी विवेकानंद बाल्यकाल से ही दयालु व स्नेही थे। दीन-दुखियों के कष्ट उन्हें द्रवित कर देते थे। साधु-संतों को देखते ही उनके भीतर सेवा-भाव उमड़ आता। घर में सब उन्हें प्यार से नरेंद्र कहते थे। साधुओं को जिस वस्तु की आवश्यकता होती नरेंद्र वह उसी क्षण घर से ले आता। सर्दियों के दिन थे, एक साधु ने आकर गर्म वस्त्र मांगा तो नरेंद्र भीतर से पिता का रेशमी दुपट्टा ले आया। साधु प्रसन्न हो आशीर्वाद दे कर लौट गया। नरेंद्र की बढ़ती दानशीलता से दुखी होकर उसे घर की दूसरी मंजिल पर रखा जाने लगा ताकि वह याचकों को मुंहमांगा दान न दे सके।

अगले दिन द्वार पर कुछ साधु आए और भिक्षा मांगने लगे। घर की नौकरानी ने अन्न देकर द्वार बंद कर लिए। नरेंद्र ने ऊपरी मंजिल से साधुओं को देखा जिनके तन पर पूरे वस्त्र भी नहीं थे उन्होंने उसी क्षण खूंटी पर टंगे पिता के वस्त्र उतारे और बाहर फेंक दिए। इस घटना की चर्चा पिता तक पहुंची तो नरेंद्र की पेशी हुई। बालक ने विनम्र भाव से कहा- ‘पिताजी! आपने ही तो सिखाया है कि दीनों की सहायता करो। फिर यदि मैं सहायता करता हूं तो परिवारजन मुझे रोकते क्यों हैं? क्या कथनी और करनी में अंतर होता है।’
पिता जी निरुत्तर हो गए परंतु कहना न होगा कि उस दिन से नरेंद्र के ऊपर लगे बंधन हटा दिए गए।

विलक्षण प्रतिभा के धनी

नरेंद्र ‘ईश्वरचंद्र विद्यासागर विद्यालय’ का छात्र था। एक दिन कक्षा में वह पीछे बैठे छात्रों से वार्तालाप में व्यस्त था। अध्यापक ने उसी समय पढ़ाए गए पाठ के कुछ प्रश्नों के उत्तर उससे पूछ लिए। नरेंद्र ने बड़ी सहजता से प्रश्नों के उत्तर दे दिए। तब अध्यापक ने कहा- जो लड़के बातें कर रहे थे, वे सब खड़े हो जाएं। नरेंद्र भी खड़ा होने लगा तो वे बोले- तुम तो पाठ सुन रहे थे। तुमने प्रश्नों के उत्तर भी दिए हैं, तुम बैठे रहो। नरेंद्र ने कहा- जी नहीं! मैं भी बातें कर रहा था इसलिए सजा मुझे भी मिलनी चाहिए।

अध्यापक ने आश्चर्य से कहा- तुम तो मेरा पाठ सुन रहे थे। नरेंद्र ने उनके विस्मय को देख कर उत्तर दिया- ‘श्रीमान! मैं यह दोनों काम एक साथ कर रहा था। यदि पूरा ध्यान लगाया जाए तो भिन्न प्रकृति के काम भी एक साथ हो सकते हैं।’ पूरी कक्षा और अध्यापक महोदय नरेंद्र के उत्तर को सुन मुग्ध हो उठे।
एंट्रेस में आते-आते नरेंद्र बंगला व अंग्रेजी साहित्य की अनेक पुस्तकें पढ़ चुका था। जब परीक्षाएं सिर पर आईं तो उसे पता चला कि वह ज्यामिती शास्त्र में कमजोर है। नरेंद्र ने निश्चय किया कि वह ज्यामिति का पाठ्यक्रम पूरा किए बिना उठेगा नहीं। उसने पूरी रात तन्मयता से पढ़ाई की और संबंधित विषय की चार पुस्तकें तैयार कर लीं। परीक्षा में नरेंद्र ने प्रथम स्थान पाया। यह असामान्य प्रतिभा नहीं तो और क्या थी?

स्वाभिमानी संन्यासी

नरेंद्र अपनी युवावस्था में स्वामी विवेकानंद कहलाने लगे। स्वामी विवेकानंद भारत-भ्रमण पर निकले। गुजरात यात्रा में एक भक्त ने उन्हें द्वितीय श्रेणी का रेल टिकट खरीद दिया। उसी डिब्बे में कुछ अंग्रेज यात्री भी बैठे थे। स्वामी जी का गेरुआ वस्त्र देख उन्होंने अंग्रेजी भाषा में टिप्पणियां शुरू कर दीं।

पहला यात्री बोला- जाने कहां-कहां से भिखमंगे गाड़ी में आ जाते हैं?

दूसरे यात्री ने कहा- इन्हीं साधुओं ने पूरे भारत को अंधविश्वासों और पाखंडों में जकड़ रखा है। तभी तो ये मूर्ख हमारे गुलाम हैं।

तीसरा यात्री बोला- जंगलियों का देश है, लोग भी जंगली हैं। इन अनपढ़ साधु-संतों को कोई काम-धंधा तो है नहीं, बस मुफ्त की रोटी और मौज-मस्ती, यही इनका जीवन है।

स्वामी जी चुपचाप सब कुछ सुनते रहे। गाड़ी स्टेशन पर रुकी तो वहां से स्टेशन मास्टर गुजरे। स्वामी जी ने उनसे अंग्रेजी में पानी का प्रबंध करने का आग्रह किया। स्टेशन मास्टर इस अद्वितीय व्यक्तित्व से प्रभावित हुआ। तत्क्षण पानी की व्यवस्था हो गई। वह गाड़ी चलने तक स्वामी जी से वार्तालाप करता रहा। गाड़ी चलने पर उसने प्रणाम किया। सहयोगी यात्री स्वामी जी के धारा प्रवाह अंग्रेजी वार्तालाप और विद्वता को देख स्मित हो उठे। जिसे वे एक अनपढ़ साधु समझकर छींटाकशी कर रहे थे वह इतना विद्वान निकला। एक यात्री ने साहस कर पूछ ही लिया- आप हमारी सारी बातें समझ रहे थे फिर भी आपको क्रोध नहीं आया? स्वामी जी ने सहज भाव से उत्तर दिया-

‘मित्रों! मेरे साथ तो ऐसा होता ही रहता है। मूर्खों से मेरा पाला पड़ता ही रहता है।’ उत्तर सुन कर उन यात्रियों पर घड़ों पानी पड़ गया और उन्होंने सिर झुका लिया।

 

 

 

 

 

 

 

 

सामाजिक भेदभाव से परे

स्वामी विवेकानंद वृंदावन की यात्रा पर थे। गेरुए वस्त्र, हाथ में कमंडल और पुस्तकें, जहां थकते, वहां रुककर विश्राम कर लेते। कोई दयालु कुछ खाने को दे देता तो भोजन कर लेते। एक दिन चलते-चलते थक गए तो सड़क के किनारे बैठे व्यक्ति को चिलम पीते देखा। उससे चिलम लेने के लिए आगे बढ़े तो वह सकुचा कर पीछे हट गया- नहीं महाराज! मैं तो अछूत हूं- आप मेरी चिलम कैसे पीएंगे?

पारंपरिक संस्कारों के कारण स्वामी जी भी दो कदम पीछे हटे और अपने पथ पर चल पड़े। तभी उनके मस्तिस्क में विचार आया- यह मैं क्या कर रहा हूं? मैं तो संन्यासी हूं और संन्यासी मान-मर्यादा, छुआ-छूत और सभी भेद-भावों से परे होता है। मैं मेहतर के हाथ की चिलम क्यों नहीं पी सकता? उसमें और मुझमें क्या भेद है? एक ही ईश्वर ने हमारी रचना की है। हम एक ही पिता के पुत्र हैं।
यह विचार मस्तिष्क में आते ही स्वामी जी लौटे और उस मेहतर से कहा- भाई! मैं तुम्हारी चिलम पीना चाहता हूं।

मेहतर चिलम देने को तैयार नहीं था। भला वह जूठी चिलम एक साधु को कैसे दे सकता था परंतु स्वामी जी ने उसकी एक न मानी और चिलम के दो कश लगा कर ही आगे की यात्रा आरंभ की। इस घटना के बाद वह जाति-पांति और भेदभाव को भूल गए। उनके लिए छोटा-बड़ा, अमीर-गरीब सब एक समान बन गए। इसी भावना के वशीभूत होकर वे अपने अलवर प्रवास के दौरान राजमहल के शाही पकवान त्याग कर एक गरीब वृद्धा के घर भोजन करने जा पहुंचे और उन मोटी रोटियों को स्वाद से खाते हुए अपने शिष्यों से कहा था- ‘देखो! इन मोटी चपातियों में कैसी सात्विकता छिपी है। मां का वात्सल्य ही तो अपनी थाती है, देश का गौरव है।’

नारियों के प्रति दिल में सम्मान

स्वामी विवेकानंद नारी जाति को बहुत आदर की दृष्टि से देखते थे। उनके जीवनकाल में अनेक देसी-विदेशी स्त्रियां उनके वचनों से प्रभावित हुर्इं और उनकी शिष्याएं कहलार्इं। स्वामी जी ने विदेशी महिलाओं के सम्मुख भारत की गरिमा और महानता का ऐसा खाका खींचा कि वह आजीवन यहीं की होकर रह गर्इं। एक बार वे ‘मादाम काल’ और ‘कुमारी मैक्लीउड’ के साथ मिस्र भ्रमण पर थे। बातचीत करते-करते वे सब ऐसे स्थान पर पहुंच गए जहां वेश्याएं रहती थीं। यहां आधे-अधूरे वस्त्रों में महिलाएं खिड़कियों से झांक रही थीं और बेंचों पर बैठी थीं। यह देखकर मादाम काल सक-पका गर्इं और स्वामी जी से लौटने का अनुरोध किया। बेंच वाली महिलाएं इस भगवा वस्त्र वाले साधु को देख खिलखिला रही थीं और भद्दे-भद्दे इशारे कर रही थीं।

स्वामी जी उन्हीं के पास जा पहुंचे और दुखी स्वर में बोले- ‘जरा देखो तो सही, रूप की उपासना में इन अभागिनों ने ईश्वर को भी भुला दिया परंतु वह इनको नहीं भूला।’ स्वामी जी की आंखों से झर-झर आंसू बह रहे थे। उन स्त्रियों के अध:पतन को देख वे विचलित हो उठे थे। उन स्त्रियों में से कुछ ने लज्जित हो कर प्रणाम किया और कुछ ने लज्जा व ग्लानि से अपना मुख ढक लिया। पहली बार किसी पुरुष ने उनकी देह की बजाय हृदय को छू लिया था।

(साभार – साधना पथ)

 

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