1.शिव जो समस्त कल्याणों के निधान हैं और भक्तों के समस्त पाप और त्रिताप का नाश करने में सदैव समर्थ हैं, उनको ‘शिव’ कहते हैं।

2.पशुपति-

ज्ञान शून्य अवस्था में भी सभी पशु माने गए हैं। दूसरे जो सबको अविशेष रूप में देखते हों, वे भी पशु कहलाते हैं। अतः ब्रह्मा से लेकर स्थावर पर्यंत सभी पशु माने जाते हैं और शिव सबको ज्ञान देने वाले तथा उनको अज्ञान से बचाने वाले हैं, इसलिए वह पशुपति कहलाते हैं।

3. मृत्युंजय-

यह सुप्रसिद्ध बात है कि मृत्यु को कोई जीत नहीं सकता। स्वयं ब्रह्मा भी युगातं में मृत्यु कन्या के द्वारा ब्रह्म में लीन होने पर शिव का एक बार निर्गुण में लय होता है, अन्यथा अनेक बार मृत्यु की ही पराजय होती है। समुन्द्र मंथन के दौरान शिव ने देव रक्षा के लिए विष का पान कर मृत्यु पर विजय प्राप्त की, इसलिए वह ‘मृत्युजंय’ कहलाते हैं।

4-त्रिनेत्र-

एक बार भगवान शिव शांत रूप में बैठे हुए थे। उसी अवसर में हिमद्रितनया भगवती पार्वती ने विनोद वश होकर पीछे से उनके दोनों नेत्र मूंद लिए। नेत्र क्या थे, शिव रूप त्रैलोक्य के चंद्र और सूर्य थे। ऐसे नेत्रों के बंद होते ही विश्व भर में अंधकार छा गया और संसार अकुलाने लगा। तब शिव जी के ललाट से युगांतकालीन अग्नि स्वरूप तीसरा नेत्र प्रकट हुआ। उसके प्रकट होते ही दसों दिशाएं प्रकाशित हो गई। अंधकार हट गया और हिमालय जैसे पर्वत भी जलने लग गए। यह देखकर जैसे पर्वत भी जलने लग गए। यह देखकर पार्वती घबरा गई और हाथ जोड़ कर स्तुति करने लगीं। तब शिव जी प्रसन्न हुए और उन्होंने संसार की परिस्थिति यथापूर्व बना दी। तभी से वह ‘चंद्रार्काग्नि विलोचन’ अर्थात् ‘त्रिनेत्र’ कहलाने लगे।

 

 

 

 

5. कृत्तिवासा-

वह होते हैं जिनके गज चर्म का वस्त्र हो। ऐसे वस्त्र वाले शिव हैं।  उनको इस प्रकार के वस्त्र रखने की क्या आवश्यकता हुई थी, इसकी स्कंद पुराण में एक कथा है। उसमें लिखा है कि जिस समय महादेव पार्वती को रत्नेश्वर का महात्म्य सुना रहे थे उस समय महिषासुर का पुत्र गजासुर अपने बल के मद से उत्मत्त होकर शिव के गणों को दुख देता हुआ शिव के समीप चला गया । ब्रह्मा के वर से वह इस बात से निडर था कि कंदर्प के वश में होने वाले किसी से भी मेरी मृत्यु नहीं होगी। किन्तु जब वह कंदर्प के दर्प का नाश करने वाले भगवान शिव के सामने गया तो उन्होनें उसके शरीर को त्रिशुल में टांगकर आकाश में लटका दिया। तब उसने वहीं से शिव की बड़ी भक्ति से स्तुति की, जिससे प्रसन्न होकर उन्होंने वर देना चाहा। इस पर गजासुर ने अति नम्र होकर प्रार्थना की कि है दिगबंर! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो कृपा कर मेरे चर्म को धारण कीजिए और कृत्तिवासा नाम रखिए, जिस पर शिव जी ने एवमस्तु कहा और वैसा ही किया।

 

6. पंचवक्त्र-

एक बार भगवान विष्णु ने किशोर अवस्था का अत्यंत मनोहर रूप धारण किया। उसको देखने के लिए ब्रह्मा जैसे चतुर्मुख तथा अनंत जैसे बहुमुख अनेक देवता आए और उन्होंने एकमुख वालों की उपेक्षा का लाभ उठाया। यह देखकर एकमुख वाले शिव जी को बहुत क्षोभ हुआ। वह सोचने लगे कि यदि मेरे भी अनेक मुख और अनेक नेत्र होते तो भगवान के इस किशोर रूप का सबसे अधिक दर्शन करता। बस, फिर क्या था, इस वासना के उदय होते ही वह पंचमुख हो गए और उनके प्रत्येक मुख में तीन-तीन नेत्र बन गए। तभी से इनकी ‘पंचवक्त्र’ कहते हैं।

7. शितिकंठ-

किसी समय बदरिकाश्रम में नर और नारायण तप कर रहे थे। उसी समय दक्ष यज्ञ का विध्वंस करने के लिए शिव ने त्रिशूल छोड़ा था। देवयोग से वह त्रिशुल यज्ञ विध्वंस कर नारायण की छाती को भी भेद गया और शिव के पास आ गया। इससे शिव क्रोधित हुए और आकाश मार्ग से नारायण के समीप गए, तब उन्होंने शिव का गला घोंट दिया। तभी से यह ‘शितिकंठ ‘ कहलाने लगे।

8. खंडपरशु-

उसी अवसर पर नर ने परशु के आकार के एक तृण खंड को ईषिकावस्त्र से अभिमंत्रित कर शिव जी पर छोड़ा था और शिव ने उसको अपने महत्प्रभाव से खंडित कर दिया। तब से वह ‘खंडपरशु’ भी कहलाते हैं।

9. प्रमथापित-

कालिका पुराण में लिखा हैं कि 36 कोटि प्रथमगण शिव की सदा सेवा किया करते हैं। उनमें 13 हजार तो भोग विमुख, योगी और ईष्यादि से रहित हैं। शेष कामुक और क्रीड़ा विषय में शिव की सहायता करते हैं। उनके द्वारा प्रकट में किसी का कुछ अनिष्ट न होने पर भी उनकी विकटता से लोग भय से कंपित रहते हैं।

10. गंगाधर-

संसार के हित और सागर पुत्रों के उपकार के लिए भगीरथ ने त्रिभुवन व्यापिनी गंगा का आह्वान किया, तब यह संदेह हुआ कि आकाश से अकस्मात् पृथ्वी पर प्रपात होने से अनेक अनिष्ट हो सकते हैं। अतः भगीरथ की प्रार्थना से गौरीशंकर ने उसे अपने जटामंडल में धारण कर लिया। इसी से इनको ‘गंगाधर’ कहते हैं।

11. महेश्वर- 

जो वेदों के आदि में ओंकार रूप से स्थित रहते हैं वह महेश्वर कहलाते हैं। संपूर्ण देवताओं में प्रधान होने के कारण भी इन्हें महेश्वर कहा जाता है।

12.रूद्र’-

दुख और उसके समस्त कारणों के नाश करने से तथा संहारादि में क्रूर रूप धारण करने से शिव को‘रूद्र’ कहते हैं।

13. विष्णु-

पृथ्वी, अप, तेज, वायु, आकाश इन पांच महाभूतों में तथा जड़ चैतन्यादि संपूर्ण सृष्टि में जो सदैव व्याप्त रहते हैं उन्हीं को विष्णु कहते हैं। यह गुण भगवान शिव में सर्वदा विद्यमान रहता है। अतः शिव को ‘विष्णु’ कहते हैं।

14. पितामह

अर्यमा आदि पितरों के तथा इंद्रादि देवों के पिता होने और ब्रह्मा के भी पूज्य होने से शिव जी ‘पितामह’ नाम से विख्यात हैं।

15. संसारवैद्य-

जिस प्रकार निदान और चिकित्सा के जानने वाले सवैद्य उत्तम प्रकार की महौषधियों और अनुभूत प्रयोगों से संसारियों के समस्त शारीरिक रोगों को दूर करते हैं उसी प्रकार शिव अपनी स्वभाविक दयालुता से संसारियों को भवरोग से छुड़ाते हैं। अन्य वेदादि शास्त्रों में यह भी सिद्ध किया गया है। कि भगवान शिव अनेक प्रकार की अद्भुत, आलौकिक और चमत्कृत औषधियों के ज्ञाता हैं। उनके पास से अनेक प्रकार की महौषधियां प्राप्त हो सकती हैं और वे मनुष्यों के सिवा पशु, पक्षी और कीट पतंगादि ही नहीं, स्थावर जंगमात्मक संपूर्ण सृष्टि के प्राणि मात्र की प्रत्येक व्याधि के ज्ञाता और उसको दूर करने वाले भी है। इसलिए वह ‘संसारवैद्य’ नाम से भी विख्यात हैं।

16. सर्वज्ञ-

तीनों लोकों और तीनों काल की संपूर्ण बातों को सदाशिव अनायास ही जान लेते हैं इसी से उनको ‘सर्वज्ञ’ कहते हैं।

17. परमात्मा-

उपर्युक्त संपूर्ण गुणों से संयुक्त होने और समस्त जीवों की आत्मा होने से श्रीशिव ‘परमात्मा’ कहलाते हैं।

18. कपाली-

ब्रह्मा के मस्तक को काटकर उसके कपाल को कई दिनों तक कर में धारण करने से आप ‘कपाली’ कहे जाते हैं।

आध्यात्मिक दृष्टि से ऐसे नामों तथा उनके तथ्य और कथाओं का कुछ और ही प्रयोजन है। संभवतः यह अन्य किसी लेख में विदित हो। इस प्रकार के विश्वव्यापी, विश्व रक्षक और विश्वेश्वर महादेव का प्राणीमात्र को स्मरण करना चाहिए। 

 

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