महान सूफी संत कबीर दास, जिनके जन्म से लेकर मरण तक को लेकर अनेक मतभेद हैं, का जन्म 1398 इसवीं के आसपास माना जाता है। उनका जन्म ऐसे समय में हुआ जबकि सामाजिक द्वंद्व , भाई-चारे का अभाव और पाखंड अपनी चरम सीमा पर था। समाज में रहने वाले हिंदू- मुसलमान एक दूसरे से दूरी बनाए हुए थे। महात्मा कबीर ने अपने वीर उद्घोषों से जाति-पाति की खाई को भरने के लिए सार्थक कोशिश किया। एक ओर जहां उन्होंने ‘कंठी बांधे हरि मिले तो बंदा बांधे कुंदा—‘ लिखा तो दूसरी ओर ‘कांकर-पाथर जोरि के मस्जिद लई बनाए, ता चढ़ि मुल्लाह बांग दे क्या बहिरा भया खुदाय’ लिख डाला। जिन मुल्लाओं तथा पंड़ितों के विरुद्ध आज भी राजनेताओं को बोलने की सामर्थ्य नहीं है,कबीर ने 600 वर्ष से भी अधिक पूर्व ही बोल दिया था।
इतिहास साक्षी है कि जब कबीर के समय में हिंदू तथा मुसलमान दोनों अपने धर्मों की उपयोगिता को प्रतिपादित कर रहे थे। धार्मिक विवाद अक्सर हुआ करते थै। दोनों वर्गों में कट्टरता इतनी बढ़ गई थी, हिंदुओं को धर्म बदलाव कराकर मुसलमान बनाया जा रहा था। कबीर ने एक बड़े वर्ग को मुसलमान तथा मुसलमान से हिंदू होने से बचाया। उन्होंने दोनों ही वर्गों के धर्मों में फैला पाखंड तथा ढोंग को स्पष्ट किया।
कबीर सिकंदर लोदी के कार्यकाल के थे। सिकंदर एक कट्टर मुसलमान तथा युद्ध प्रिय शासक था। उस वक्त जन सामान्य की आर्थिक दशा अनिवार्य रुप से चिंतनीय रही होगी। यही नहीं सामाजिक जीवन में बेहद उथल-पुथल थी। वर्ण व्यवस्था तथा आश्रम व्यवस्था पर टिकी हिंदू संस्कृति का सामाजिक ढांचा मुसलानों के आने से ढहने लगा। हिंदूओं में तमाम जातियां और उपजातियां बन गई थीं। इसी आधार पर उनमें छोटे-बड़े विभेद भी चरम सीमा पर था। हिंदूओं की देखा-देखी मुसलमानों में भी यही दशा आ गई थी। धर्म के नाम पर बाह्याचार तथा आडंबर दोनों ही सम्प्रदायों में बढ़ रहा था। सामान्य जनता इन समस्त मान्यताओं का सम्मान करती थी, क्योंकि उनका बौद्धिक स्तर अति सामान्य था।
अंधविश्वासी होने के वजह जनता टोना-टोटका, शकुन-अपशकुन, भूत-प्रेत, झाड़-फूंक, तंत्र-मंत्र तथा जादू-मंतर के झमेलों में पड़ी रहती थी। तीर्थ-व्रत, नियम-संयम, उपवास और पर्व-त्योहार के साथ ही तमाम भांति के संस्कार जनता में प्रचलित हो गए थे। इनका नियमपूर्वक पालन करना ही धर्म समझा जाता था। समस्त धार्मिक मतों में व्यावहारिक स्तर पर खामियां आ गई थीं।
विकसित कमल काशीपुरी, लहर सरोवर तीर।
मगहर में सम्पुट भए, आमी नदी के तीर।
इस दोहे से कबीर की जन्मस्थली काशी और कर्मस्थली के मगहर में होने की पुष्टि होती है। हालांकि इस बारे में भी मनीषियों में मतभेद नहीं हैं। इतिहासकार डॉ. रामकुमार वर्मा तो तर्क देते हुए लिखते हैं कि ‘मृत्यु के समय कबीर का मगहर लौट आना मानव की उस नैसर्गिक प्रेरणा का परिचायक हो सकता है जिसे वह अपनी जन्म भूमि या उसके समीप ही आकर मरना चाहता है। इसलिए मेरे दृष्टिकोण से कबीर का मगहर में जन्म मानना ज्यादा युक्तसंगत है। ज्यादातर मनीषियों का मत है कि कबीर का उद्भव मगहर में नहीं हुआ फिर भी उनके मगहर में पैदा होने की आशंका से स्पष्टतः इंकार नहीं किया जा सकता। मनीषियों का एक दूसरा वर्ग भी है जो ‘मगहर’ को कबीर की निर्वाणस्थली के रुप में स्वीकार करता है।
यह निर्विवाद सत्य है कि कबीर का संबंध ‘मगहर’ से निश्चित रुप से था। विचारणीय तथ्य है कि मगहर की ‘ऊसर’ भूमि ने कबीर को क्या दिया? काशी का पौराणिक, ऐतिहासिक और विद्वस्थली में विवादित कबीर संभवतः अपनी मान्यताओं की वजह से उपहास का पात्र बन रहे होंगे तथा यथेष्ट वातावरण न मिल पाने से व्यथित कबीर काशी छोड़कर मगहर चले आए।
कबीर मगहर में ऐसे जगह पर ध्यान करते थे जो भूमि के नीचे एक सुरंग (भूईदरा) के रुप में बना था। यहीं पर उनकी साधनास्थली गुफा है। ‘गोरख तलैया’ जहां गोरख योगी ने अंगूठे से जलधार बहाई थी। संत कबीर ने ‘धुनी’ के पास ध्यानस्त होकर अपार वृष्टि कराई थी, जिससे इलाका आबाद हुआ और सूखी अमोना ( अब आमी) नदी में जलापूर्ति हुई थी। मगहर के नामकरण को लेकर भी अलग-अलग मतैक्य है। साक्ष्यों के आधार पर मगहर करीब 1430 वर्ष पूर्व बसा था। गौतम बुद्ध के अनुयायी भिक्षुओं को इसी मगहर में लूट लिया गया था। अतः इस जगह को बौद्ध भिक्षुओं ने‘ मार्गहरण’ शब्द दिया जो कालांतर में मार्गहर (मगहर) नाम से विख्यात हुआ। एक दूसरी किंवदंती के आधार पर पुरातन समय में पाटलीपुत्र (मगध) के किसी राजा ने चंद्रिका आश्रम का दर्शन करने जाते समय बीमार हो जाने के वजह यहां विश्राम किया था। उनकी जरुरतों की पूर्ति हेतु इस कस्बे को बसाया गया था। मगह, मगध के राजा द्वारा बसाया गया था जो कालांतर में ‘मगहर’ नाम से प्रचलित हुआ। कबीर पंथियों ने ‘मगहर’ शब्द कीष्व्याख्या मग (रास्ता) हर(ज्ञान) से अर्थात् ज्ञान प्राप्ति के स्थान से किया है।
कहते हैं कि महात्मा कबीर अपने अंतिम दिनों में (1518 ई.) मगहर चले आए। उनके शिष्य कमल तथा महंत सुरति गोपाल साहेब ने सबसे पहले मगहर में ही उनका स्थान बनाया। इस प्रकार मगहर ही सर्वप्रथम कबीर अनुयायियों का केन्द्र बना। सन् 1567 ई. में संत कबीर की समाधि को रीवा राज्य के शासक वीर सिंह बघेल ने हिंदू रीति से बनवाया था तो मजार का निर्माण गाजीपुर के तत्कालीन शासक पहाड़ खां के दस्तक पुत्र बिजली खां द्वारा मुस्लिम ढंग से कराया गया, जो आज भी एक ही चबूतरे (32 गुणे 24 फीट) पर एकता की मिसाल के रुप में अवस्थित है।

लम्बी अवधि तक उपेक्षित पड़े रहने के बाद 1980 के दशक में यहां कुछ विकासोन्मुख योजनाएं लागू हुईं, जिसके तहत् 3.094 हेक्टेयर क्षेत्र में हरियाली लाने तथा विकास संबंधी योजनाएं सम्मिलित हैं, हालांकि वे सभी पूरी नहीं हो सकी हैंं। समाधि, मजार ,पार्क और पथ सब के सब जर्जर दशा में हैं। आमी अपवित्र हो चुकी है।
अलबत्ता संत कबीर के आदर्शों से संलग्न ‘मगहर महोत्सव’ गत 34 वर्षों से मनाया जा रहा है। प्रशासन की देख-रेख में जनवरी मास की 12 से 16 तारीख तक प्रतिवर्ष आयोजित पांच दिवसीय जनपद के इस एकमात्र महोत्सव की शुरुआत 1987 में तत्कालीन जिलाधिकारी और खलीलाबाद के परगना मजिस्टेट द्वारा किए गए कोशिशों के परिणाम स्वरुप संभव हो सकी, जो आज भी जारी है।
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