vritrasur
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Bhagwan Vishnu Katha: देवराज इन्द्र ने पहले विश्वरूप मुनि को अपना गुरु बनाया फिर उनका वध कर दिया । यह कहानी आपने पीछे के पृष्ठों पर पड़ी । पुत्र की मृत्यु के समाचार से त्वष्टा मुनि के क्रोध की कोई सीमा न रही । उन्होंने अथर्ववेद के मंत्रों का उच्चारण कर हवन करना आरम्भ कर दिया । आठ रात्रियों तक हवन निरंतर चलता रहा । यज्ञ पूर्ण होने पर वेदी में से एक भयंकर पुरुष प्रकट हुआ । अग्नि से उत्पन्न वह पुरुष तेजस्वी और बलवान प्रतीत होता था । उसके विशालकाय शरीर से दिव्य प्रकाश निकल रहा था ।

त्वष्टा मुनि उस पुरुष से बोले -“हे पुत्र ! जगत् में तुम ‘वृत्र’ नाम से प्रसिद्ध होगे । विश्वरूप नाम का तुम्हारा एक भाई था । वह परम तेजस्वी और तपस्वी था । दुष्ट इन्द्र ने ईर्ष्यावश उसका वध कर दिया । अब तुम तपस्या कर ब्रह्माजी से वरदान प्राप्त करो । फिर पापी इन्द्र का अंत कर भाई की मृत्यु का प्रतिशोध लो ।” पिताज्ञा मानकर वृत्रासुर तप करने के लिए वन में चला गया । वह हिमालय पर्वत पर पहुँचा । वहाँ गंगा नदी के तट पर तपस्या में लीन हो गया ।

सौ वर्ष पूर्ण हुए, तब उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी प्रकट हुए और उसे अभीष्ट वर माँगने के लिए कहा । वृत्रासुर स्तुति करते हुए बोला -“ भगवन् ! आपके दर्शन पाकर मैं धन्य हो गया । देव ! आप प्रसन्न हैं तो यह वरदान दें कि लोहे अथवा लकड़ी से बने हुए, सूखे या भीगे किसी अस्त्र-शस्त्र से मेरी मृत्यु न हो सके । मेरा पराक्रम सदा बढ़ता रहे । देवता मुझे पराजित न कर सकें ।” ब्रह्माजी ने वृत्रासुर को वरदान प्रदान कर दिया ।

कुछ समय बाद वृत्रासुर अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित होकर देवताओं से युद्ध के लिए चल पड़ा । देवताओं ने जिन दैत्यों को परास्त कर दिया था, वे भी उसके साथ चल पड़े । यह समाचार पाकर देवराज इन्द्र भी अन्य देवताओं के साथ युद्ध भूमि में आ डटे । दोनों सेनाओं का आमना-सामना होते ही उनमें घमासान युद्ध आरम्भ हो गया । वृत्रासुर के समक्ष देवता अधिक समय तक नहीं टिक सके और मैदान छोड़कर भाग खड़े हुए । पराजित देवता भगवान् विष्णु की स्तुति करने लगे । प्रसन्न होकर भगवान् विष्णु साक्षात् प्रकट हुए ।

देवगण प्रार्थना करते हुए बोले -“भगवन् ! दुष्ट वृत्रासुर हमारा नाश करने को उद्यत है । उसने ब्रह्माजी को प्रसन्न कर अमरत्व के समान वर प्राप्त कर लिया है । प्रभु ! उससे आप ही हमारी रक्षा कर सकते हैं ।”

उनकी प्रार्थना सुनकर भगवान् विष्णु बोले -“देवगण ! तुम महर्षि दधीचि की शरण में जाओ और उनसे उनका शरीर, जो विद्या, व्रत और तप के कारण अत्यंत दृढ़ हो गया है, माँग लो । महर्षि दधीचि को ब्रह्मज्ञान प्राप्त है । माँगने पर वे अपना शरीर तुम्हें प्रदान कर देंगे । इसके बाद विश्वकर्मा द्वारा उनकी अस्थियों से एक श्रेष्ठ वज्र तैयार करवाओ । मेरी शक्ति से युक्त वह शस्त्र वृत्रासुर का वध करेगा । इसलिए तुम अविलम्ब महर्षि दधीचि के आश्रम में जाओ ।” देवताओं को वृत्रासुर के वध का उपाय बताकर भगवान् विष्णु अंतर्धान हो गए । इन्द्र आदि समस्त देवगण उसी क्षण महर्षि दधीचि के आश्रम में गए और याचना करते हुए उनकी अस्थियाँ माँगी ।

महर्षि दधीचि मुस्कराते हुए बोले -“देवेन्द्र ! जब एक दिन यह शरीर मुझे छोड़ने वाला है तो फिर मैं इसे रखकर क्या करूँगा? जो मनुष्य प्राणियों की रक्षा के लिए अपना शरीर प्रदान नहीं कर सकता, वह जीवित भी मृत के समान होता है । सृष्टि कल्याण के लिए प्राण त्यागने से मुझे अवश्य भगवान् विष्णु के चरण-कमलों में स्थान मिलेगा । यह लीजिए, मैं इसी क्षण अपना शरीर त्यागता हूँ ।”

यह कहकर महर्षि दधीचि ने योग विद्या द्वारा प्राण त्याग दिए । उनकी प्राण-ज्योति भगवान् विष्णु में विलीन हो गई । तब विश्वकर्मा ने उनकी अस्थियों से एक शक्तिशाली वज्र तैयार किया । भगवान् विष्णु ने वज्र को अपनी शक्तियों से सम्पन्न कर दिया । उस वज्र को लेकर देवराज इन्द्र अपने ऐरावत हाथी पर सवार हुए और सेना के साथ वृत्रासुर से युद्ध करने चल पड़े । उन्होंने बड़े वेग से दैत्यों पर धावा बोला । दोनों पक्षों में भीषण युद्ध आरम्भ हो गया । इन्द्र हाथ में वज्र लेकर दैत्यों का वध करने लगे । धीरे-धीरे दैत्यों के प्रहार क्षीण पड़ गए । तब वृत्रासुर क्रोधित होकर स्वयं युद्ध करने लगा । वह बड़ा वीर और पराक्रमी था । उसका विशालकाय शरीर और भयंकर गर्जन सुनकर देवता भयभीत हो गए । वह मदमत्त पर्वत की भांति आतंक मचाते हुए देव-सेना को कुचलने लगा । उसके वेग से पृथ्वी काँपने लगी । जब वह इन्द्र की ओर झपटा, तब उन्होंने गदा प्रहार किया । किंतु उसने खेल-ही-खेल में उस गदा के टुकड़े-टुकड़े कर दिए ।

प्राण संकट में देख इन्द्र वज्र लेकर वृत्रासुर की ओर बड़े । तब क्रोधित वृत्रासुर बोला -“इन्द्र ! मेरे लिए आज बड़े सौभाग्य का दिन है कि जिसने मेरे भाई विश्वरूप का वध किया, वही शत्रु मेरे सामने खड़ा है । आज मैं तुझे मारकर भाई की हत्या का प्रतिशोध लूँगा । तूने उन्हें छलपूर्वक मारा था, इसलिए तेरे इस नीच कर्म के लिए मैं तुझे अवश्य दण्डित करूँगा ।” यह कहकर वह त्रिशूल लेकर इन्द्र की ओर झपटा ।

किंतु इन्द्र सतर्क थे । उन्होंने वज्र से उसका दायाँ हाथ काट दिया । तब वृत्रासुर ने दूसरे हाथ में गदा धारण कर इन्द्र पर प्रहार किया । इन्द्र ने बड़ी चतुराई से गदा प्रहार को प्रभावहीन कर उसका दूसरा हाथ भी काट दिया । दोनों हाथ कट जाने पर उसके शरीर से रक्त की धाराएँ बहने लगीं । शीघ्र ही वहाँ रक्त का एक विशाल सरोवर बन गया । फिर एक भीषण गर्जन करते हुए वृत्रासुर का विशालकाय शरीर पृथ्वी पर गिर पड़ा । उसे गिरते देख देवता प्रसन्नता से खिल उठे । तभी अट्टहास करते हुए वृत्रासुर ने अपना विशाल मुख खोल लिया । उसकी ठोड़ी पृथ्वी को और ऊपरी होंठ आकाश को स्पर्श करने लगे । तभी उसने जोर से साँस ली । उसकी साँस से चारों ओर प्रचण्ड वेग से वायु चलने लगी और देखते-ही-देखते इन्द्र ऐरावत के साथ उसके मुख में समा गए । चारों ओर हाहाकार मच गया । किंतु देवेन्द्र ने नारायण-कवच से स्वयं को सुरक्षित कर रखा था, अतः वे उसके पेट में पहुँचकर भी सुरक्षित रहे और उसका पेट फाड़ कर बाहर आ गए । फिर दधीचि की हड्डियों से निर्मित वज्र से उसका मस्तक काट दिया ।

इस प्रकार भगवान् विष्णु के आशीर्वाद से इन्द्र ने वृत्रासुर का अंत कर दिया । महर्षि दधीचि की अस्थियाँ न तो सूखी थीं और न ही गीलीं । वे लोहे अथवा लकड़ी से भी निर्मित नहीं थीं । इस प्रकार ब्रह्माजी का वर सत्य हुआ । कुछ धार्मिक ग्रंथों में वृत्रासुर की मृत्यु समुद्र के फेन से निर्मित वज्र से बताई गई है ।

ये कथा ‘पुराणों की कथाएं’ किताब से ली गई है, इसकी और कथाएं पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं Purano Ki Kathayen(पुराणों की कथाएं)