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भारत कथा माला

उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़  साधुओं  और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं

रास्ते में खराब हो जाने से बस छोटे से कस्बे के बस अड्डे पर शाम को आठ बजे की जगह रात बारह बजे पहुंची और दो सवारियों को वहां पर उतार कर आगे चली गई। उतरने वाले एक-दूसरे से अनजान महिला और पुरुष थे। महिला को वहां से आगे अपने गांव की ओर जाने वाली बस पकड़नी थी, जो कब की छूट चुकी थी। पुरुष स्थानीय निवासी था। ठंडी रात के सुनसान माहौल में स्थितिप्रज्ञ होते हुए पुरुष ने असमंजस में खड़ी महिला से कहा, “आप चाहें तो मेरे साथ आ सकती हैं। रात मेरे घर पर ठहरकर सुबह अपने सफर पर निकल जाइएगा।”

“किस आधार पर आपके साथ चलूं?” महिला ने हिचकिचाते हुए पूछा।

“मुझे अपना मित्र मानकर।” पुरुष ने तत्परता से कहा।

“हुं… मित्र! इस जमाने में मित्रता! वह भी मात्र एक ही स्टॉप पर उतरने के लिहाज से।” महिला ने मुंह बिचकाया।

“आप मुझे अपना भाई मान सकती हैं” पुरुष परेशान हो रहा था।

“भाई!” महिला विद्रूपता से मुस्कराई।

“यदि भाई के रिश्ते पर भी आपका विश्वास नहीं है तो मुझे अपना पिता मानकर मेरे साथ चलिए।” पुरुष व्याकुल होने लगा।

“देखिए इन सामाजिक रिश्तों का वास्ता मत दीजिए, मेरा इन पर से विश्वास उठ चुका है। क्या आप आए दिन अखबारों में, पिता द्वारा पुत्री के यौन शोषण के समाचार नहीं पढते!” महिला पूरी गंभीरता से उग्र थी।

“तो ठीक है, मुझे एक इनसान मानकर तो मेरे साथ चलिए।” पुरुष अधीर हो चुका था।

“महिला सहजता से उसके साथ चल दी। हल्का अंधेरा और चारों तरफ सन्नाटा।”

“घर में और कौन-कौन हैं?” महिला के स्वर में सरल जिज्ञासा थी।

“क्या आप घबरा रही हैं?” पुरुष के अंदाज में व्यंग्य का पुट था।

“नहीं, बस रास्ता काट रही हूं।” महिला ने तत्परता से प्रत्युत्तर दिया।

“घर में कोई नहीं हो तो!” पुरुष के स्वर में शरारत-सी टपक रही थी। महिला चुप रही तो वह थोड़ा और खुला- “क्या चिंतित हो रही हैं आप?”

“नहीं, यह सोचकर परेशान हो रही हूं कि तब तो मेरी आवभगत आपको ही करनी पड़ेगी। जबकि आप भी मेरी ही तरह सफर की थकान से भरे हैं।” महिला ने सहानुभूति घोलते हुए कहा।

“नहीं, इसके लिए परेशान होने की जरूरत नहीं। घर पर मेरी पत्नी है। और वह दिल खोलकर आपका स्वागत करेगी। बड़ी खुश मिजाज है। उदार और हंसोड़।” पुरुष ने कोई गहरा राज बताने वाले अंदाज में कहा। पत्नी की भरपूर प्रशंसा करके वह जता देना चाहता था कि महिलाओं को वह कितना मान देता है।

“तब तो मानना पड़ेगा कि आप इनसान है और पत्नी देवी।” महिला ने अनायास ही चुटकी ली।

“अरे नहीं! इसमें देवत्व की क्या बात? वह भी इनसान ही है। फिर भला देवत्व कोई इंसानियत से ऊपर की चीज थोड़े ही है।” पुरुष ने गंभीर होकर कहा, एकदम दार्शनिक की तरह। वह महिला के वाकचातुर्य से प्रभावित था और अब उसे खुद से प्रभावित देखना चाहता था।

“तब तो आप दोनों भाग्यशाली हैं। एक-दूसरे को पाने के लिए।” महिला को यही कहना सहज लगा। जबकि उसे देवत्व को इंसानियत के समकक्ष रखने जैसे अपने क्रांतिकारी दृष्टिकोण पर महिला से विशेष प्रतिक्रिया की अपेक्षा थी। और इसी विषय को आगे बढ़ाते हुए वह अपने तर्कों से महिला को चमत्कृत कर देना चाहता था। पर इस दिशा में बात नहीं बढ़ते देखकर उसने दूसरा प्रकरण उठाया- “हां भाग्यशाली तो हम हैं ही, क्योंकि एक प्यारी-सी बिटिया है हमारी, इकलौती संतान। उसे हम दोनों अपनी आंखों का तारा मानते हैं।”

“यह तो बहुत अच्छी बात है। वरना कई परिवारों में तो लड़कियां एहसान की तरह पाली जाती हैं और यदि कहीं इकलौती लड़की हुई तो माँ-बाप उस पर एहसान का दुगना बोझ लाद देते हैं। रिश्तेदारों और इष्ट मित्रों को गर्व से यह बता-बताकर कि भई हमने तो अपनी बेटी को बेटे की तरह पाला है।” महिला ने प्रसंगवश कहा किंतु पुरुष को खटका-सा लगा, कहीं यह मुझ पर कटाक्ष तो नहीं। सकपकाने के बावजूद उसने राहत की सांस ली। यह सोचते हुए कि अच्छा हुआ उसने यह नहीं कहा कि वह अपनी बेटी को बेटा ही समझता है। अपनी प्रगतिशीलता दर्शाने की प्रक्रिया में उसके मुंह से निकला, “बेटे और बेटी में भेद करना मूर्खता है। स्त्री और पुरुष को समाज से लेकर राजनीति तक हर कहीं समान अधिकार होने चाहिए।” दरअसल परुष महिला से वर्तमान राजनीति पर बात करना चाहता था। खासकर उसे यह बताकर प्रसन्न देखना चाहता था कि वह महिलाओं के राजनीति में आने का प्रबल पक्षधर है।

“हां, दोनों को समान अधिकार होने तो चाहिए, पर देता कौन है? अलबत्ता कई लोग देने की बात जरूर करते हैं, दिखावे के लिए।” महिला ने आम बात कही। लेकिन पुरुष को चुभी। पर उसने अपनी तिलमिलाहट दबाए रखी। वह उस वक्त महिला से बहस की तो कल्पना तक नहीं कर सकता था। उसने तय किया, वह महिला को यह जरूर दिखा देगा कि उसके घर में पति-पत्नी को वाकई समान अधिकार प्राप्त है।

“सब ऐसे नहीं होते।” कहने के बाद उसने मन में ही अपने आप से कहा, और मैं तो ऐसा कतई नहीं।

वह महिला को कस्बे में अपनी लोकप्रियता के कुछ किस्से भी सुनाना चाहता था। किंतु तब तक घर आ गया। उस छोटे से घर में महिला का स्वागत सचमुच बड़े दिल से हुआ। पुरुष ने जितना बताया था, पत्नी उससे बढ़कर थी। इतनी हंसमुख और आत्मीय कि महिला को जरा भी परायापन महसूस नहीं हुआ। उनकी बिटिया भी प्यारी थी। गुड़िया-सी सुंदर और समझदार। किंतु सबसे अधिक आकर्षित किया उसे पत्नी के प्रति पुरुष के सहयोग और समभाव ने। कई बार तो उसे सोचना पड़ा, ये दोनों पति-पत्नी हैं या गहरे मित्र। एक दूजे की भावना और आवश्यकता को खूब समझने वाले। मुग्ध भाव से उनके आदर्श गृहस्थ जीवन के बारे में वह लगातार सोचती रही। यहां तक कि उसे नींद ही नहीं आई। सुबह की पहली बस से उसे जाना था। पुरुष उसे बस अड्डे तक पहुंचाने गया। रवाना होने से पहले वह उसकी पत्नी से भावविभोर होकर गले मिली। जैसे दो पुरानी सखियां मिलकर तुरंत बिछुड़ रही हों। सुबह के धुंधलके में वह पुरुष के साथ-साथ चल रही थी। पूरी तरह गंभीर। शायद मन ही मन कुछ मथ रही थी। पुरुष उसे कस्बे के रास्तों और चौराहों के बारे में छोटी-मोटी जानकारी दे रहा था। और वह नपे तुले औपचारिक शब्दों में अपनी प्रतिक्रिया दे रही थी। जबकि पुरुष की अपेक्षा थी, अब तो वह उसकी भरपूर प्रशंसा करेगी ही। यू प्रशंसा शब्दों की मोहताज नहीं है। आंखें यह भाषा अच्छी तरह से बोल सकती हैं। किंतु उसका अनमनापन देखते हुए पुरुष उसकी आंखों में सीधे झांकने का साहस नहीं कर सका।

अड़े पर बस तैयार खडी थी। छटने में थोडी-सी देर थी। डाइवर-कंडक्टर होटल पर चाय सुड़क रहे थे और इनी-गिनी सवारियां इधर उधर खड़ी थीं। पुरुष को बस छूटने तक वहां ठहरना ही था। महिला की छोटी-सी अटैची वह बस में उसकी सीट पर रखकर नीचे आया तो उसने देखा महिला उदासीनता से स्टॉल पर कोई पत्रिका उलट-पलट रही थी। आखिर उससे रहा नहीं गया।

“आप इतनी गुमसुम क्यों हैं? क्या हमारे किसी व्यवहार से आपको ठेस लगी है?” पुरुष ने विनम्रता से पूछा।

महिला अकचचाई, “नहीं, ऐसी कोई बात नहीं। सचमुच आपके परिवार का साथ तो एक सुखद याद बनकर जिंदगी भर मेरे साथ रहेगा। दरअसल एक प्रश्न का उत्तर चाहती हूं आपसे। लेकिन बड़ी असमंजस में हूं कि पूछू या नहीं?

“अरे तो पूछिए ना। इसमें इतना विचार करने की क्या जरूरत है। बिल्कुल बिंदास होकर पूछिए।” अब पुरुष चहका।

“लेकिन एक शर्त है।” महिला ने संकोच के साथ कहा।

“कैसी शर्त?” पुरुष चौंका।

“शर्त ये है कि यदि आप उत्तर न दे पाएं तो ना दें। किंतु दें तो एकदम सही उत्तर दें।” महिला के स्वर में दृढ़ता थी।

“ठीक है, पूछिए।” पुरुष के स्वर में व्याकुलता थी।

“यदि इसी तरह आपकी पत्नी भी किसी अनजान पुरुष को साथ लिए आधी रात को घर चली आती तो क्या आप भी उस पुरुष का स्वागत इसी सहजता से करते जैसा आपकी पत्नी ने मेरा किया?” महिला ने मुस्कुराते हुए पूछा।

सुनते ही पुरुष को प्रश्न बड़ा बचकाना लगा। उसकी तमाम बौद्धिकता की बखिया उधेड़ता-सा। भला यह भी कोई पूछने की बात है! किसी ने ठीक ही कहा है कि औरत की बुद्धि उसके घुटनों में होती है। किंतु सही उत्तर के आग्रह का भार लिए जब वह गहरा उतरा तो एकदम हड़बड़ा गया।

आखिर पुरुष ने पाया कि ठीक इसी परिस्थिति से गुजरे बिना उसके लिए इस प्रश्न का उत्तर देना संभव नहीं। वह भौचक्का-सा मौन खड़ा ही था कि हार्न बजते ही महिला बस में चढ़ गई। खिड़की से झांकते हुए हाथ हिलाकर वह पुनः मुस्कुराई। उसे ध्यान ही नहीं रहा कि प्रत्युत्तर में उसने भी हाथ हिलाया था या नहीं। और बस चली गई। पीछे उड़ रही धूल को देखते हुए उसे लगा वह महिला उसका मुंह चिढ़ा रही है।

भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’