utaavalee ka ulata parinaam,hitopadesh ki kahani
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Hitopadesh ki Kahani : जब पुनः पाठ आरम्भ हुआ तो राजपुत्रों ने कहा, “गुरुदेव ! हमने विग्रह अर्थात् युद्ध की नीति सुनी। अब हमें सन्धि के विषय में बताइये ।

विष्णु शर्मा बोले, “सुनो मैं अब तुम्हें सन्धि की बात बताता हूं।

“बड़ा भारी संग्राम होने पर जब हिरण्यगर्भ और चित्रवर्ण की सेनाएं कट गईं तो गीध और चकवे ने बातचीत करके सन्धि कर ली।”

राजपुत्रों ने पूछा, “यह कैसे ?

“सुनाता हूं, सुनो।”

दुर्ग विजित होने पर राजहंस ने पूछा, “हमारे किले में किसने आग लगाई थी ? किसी पराये ने अथवा कि मेरे दुर्ग में ही निवास करने वाले किसी विपक्षी गुप्तचर ने?”

चकवा बोला, “महाराज आपका परम सखा मेघवर्ण और उसका परिवार कहीं दिखाई नहीं देता। इसलिए मैं समझता हूं कि यह उसी की करतूत है । “

राजा ने क्षण भर सोचा और फिर बोला, “यह मेरा दुर्भाग्य है। यह अपराध मेरे भाग्य का है मन्त्रियों का नहीं। कभी-कभी भली भांति किया हुआ काम भी दैवयोग से नष्ट हो जाता है । “

मन्त्री ने कहा, “हां महाराज। कहा भी है कि दुखद परिस्थिति में मनुष्य दैव को दोष देता है । वह मूर्ख अपने कर्मों का दोष नहीं देखता ।

“मनुष्य को चाहिए कि वह सदा अपनी बात की रक्षा करे। क्योंकि बात बिगड़ जाने पर विनाश हो जाता है। जिस प्रकार दो हंसों द्वारा ले जाता हुआ कछुआ यों ही गिरकर मर गया था।”

राजा ने पूछ, “यह किस प्रकार ?”

मन्त्री ने कहा, “सुनिये महाराज !”

मगध देश में फुल्लोत्पल नाम का एक सरोवर था. वहां बहुत दिनों से सकट और विकट नाम के दो हंस निवास करते थे। उसी तालब में एक कछुआ उनका मित्र बन गया था । उसका नाम कम्बुग्रीव था ।

एक दिन शाम के समय कुछ मछुआरे उधर से मछलियां मार कर निकले तो उन्होंने उस सरोवर को देखा। उसे देखकर वे कहने लगे कि यहां तो बहुत सारी और बहुत बड़ी- बड़ी मछलियां हैं। कल हम यहीं पर अपने जाल डाल कर इनका शिकार करेंगे।

कछुए ने जब यह सुना तो उसने हंसों से कहा, “मित्रो ! आपने उन मछुआरों की बात सुनी ?”

हंस बोले. “सुनी तो है। अभी विचार करते हैं। प्रातः काल जो उचित होगा कर लिया जायेगा ।”

कछुआ कहने लगा, “किन्तु मुझे तो यहां भय लगता है। कहा भी गया है कि अनागत विधाता और प्रत्युत्पन्नमति तो सुख से रहते हैं, किन्तु जो होगा देखा जायेगा ऐसा कहने वाला नष्ट हो जाया करता है।”

हंसों ने पूछा, “वह कैसे ?”

कछुआ बोला, “सुनाता हूं सुनिये।”