Hitopadesh ki Kahani : उज्जयिनी में माधव नाम का एक ब्राह्मण रहा करता था। जिन दिनों उसकी पत्नी ने उसके पुत्र को जन्म दिया उन्हीं दिनों उनको कहीं से एक नेवले का बच्चा मिल गया। ब्राह्मणी ने उसको भी अपने बच्चे के समान ही पाला-पोसा ।
एक दिन की बात है कि ब्राह्मणी नदी में स्नान करने के लिये चली गई और अपने पति को घर की रखवाली के लिये छोड़ गई।
संयोग की बात है कि उसी समय राजा के यहां से उसको दान लेने के लिये निमन्त्रण आ गया। एक तो राजा का निमन्त्रण और फिर उसकी अपनी दीन स्थिति । ब्राह्मण सोचता था कि यदि मैंने पत्नी के नदी से लौटने तक प्रतीक्षा की तो सम्भवतया तब तक महाराज द्वारा किया जाने वाला पार्वण श्राद्ध समाप्त हो जाए। और मेरे स्थान पर किसी अन्य ब्राह्मण को बुला लिया जाये।
किन्तु बच्चे को रक्षा का प्रश्न था । अन्त में उसने यही निश्चय किया कि उस नेवले पर ही उसकी रक्षा का भार छोड़ दिया जाये यही विचार कर वह राजदरबार में चला गया।
उसके जाने के कुछ ही देर बाद कहीं से एक काला सांप निकल कर आया और वह बालक की ओर जाने लगा। नेवले ने उसको देख लिया । नेवला क्रोध से उस पर झपटा और उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिये ।
ब्राह्मणी के आने से पूर्व ही ब्राह्मण दान दक्षिणा लेकर राज दरबार से लौट भी आया । नेवले को जब ब्राह्मण के आने की आहट मिली तो वह उसी प्रकार सर्प के रूधिर से सने अपने हाथ मुख को लेकर उसके समीप गया और उसके चरणों में लोट-पोट होने लगा ।
ब्राह्मण ने जब उसका मुख रुधिर से सना देखा तो उसने यही अनुमान लगाया कि उसने उसके पत्र को खा लिया है। इससे उसको क्रोध आ गया और उसने तत्काल उसको वहीं पर मार दिया।
उसको मार कर वह भीतर गया और सीधा अपने पुत्र के समीप पहुंच गया। उसका पुत्र आनन्दपूर्वक खेल रहा था और उसके समीप ही फर्श पर सांप मरा पड़ा था ।
यह देख कर ब्राह्मण को बड़ा दुख हुआ । किन्तु अब क्या हो सकता था। उसने स्वयं ही अपना अनिष्ट कर डाला था । वह पश्चात्ताप करता ही रह गया ।
गीध कहने लगा, “महाराज ! इसीलिए कहते हैं कि बात को समझे बिना कार्य नहीं कर लेना चाहिए। और फिर काम, क्रोधादि छः शत्रुओं को त्याग देने से तो मनुष्य राजा
के समान सुखी हो जाता है । “
राजा ने पूछा, “क्या यही आपका निश्चय है?” “हां महाराज! कहा भी है कि एकाएक कोई काम नहीं कर डालना चाहिए। अविवेक विपत्ति की जड़ होता है। जो विवेक से काम करता है उसके पास सर्व सम्पत्तियां स्वयंमेव आ जाया करती हैं।
“इसलिए महाराज ! इस समय यदि आप मेरी बात मानें तो यहां से लौटने से पूर्व हिरण्यगर्भ से सन्धि कर लीजिए। “
राजा बोला, “क्या इतनी जल्दी यह सम्भव है?”
“हां महाराज ! सम्भव है। क्योंकि कहा गया है कि सर्वथा अज्ञ मनुष्य जो होता है वह बड़ी सरलता से मार्ग पर आ जाता है और जो विशेष अनुभवी होता है वह उससे भी सरलता से आ जाता है। किन्तु थोड़े ज्ञान से जिसका चित्त चंचल हुआ होता है उसे तो ब्रह्मा भी मार्ग नहीं दिखा सकते। राजा तो विशेषज्ञ ही है । “
राजा बोला, “अब तर्क-वितर्क करने का समय नहीं है। इस अवसर पर आप जो उचित समझें वह करिये।”
“महाराज मैं उचित कार्य ही करूंगा।”
चित्रवर्ण के मन्त्री ने ऐसा कहा और फिर वह हिरण्यगर्भ के दुर्ग के भीतर चला गया। हिरण्यगर्भ के गुप्तचर ने पहले ही जाकर उसको सूचना दी, “महाराज ! चित्रवर्ण का प्रधान मन्त्री गीध सन्धि के निमित्त हमारे दुर्ग में प्रविष्ट हो रहा है । “
हिरण्यगर्भ ने अपने मन्त्री से पूछा, “क्या वह किसी विशेष कार्य के निमित्त आ रहा है?”
चकवा बोला, “महाराज ! अब सन्देह करने की आवश्यकता नहीं है। वह एक दूरदर्शी उच्च विचार वाला व्यक्ति है।
“इसलिए महाराज उसका सत्कार करने के लिए रत्नों आदि की उपयुक्त सामग्री जुटाई जानी चाहिए।”
जब स्वागत सत्कार की सामग्री जुटा ली गई तो फिर चकवा गीध से मिलने के लिए दुर्ग के द्वार पर गया। उसे सत्कारपूर्वक भीतर लाया और फिर अपने राजा से उसकी भेट कराई ।
राजा द्वारा दिए गए आसन पर गीध के बैठ जाने पर चकवे ने कहा, “मित्र ! यह सारा राज्य आप लोगों द्वारा विजित है। आप स्वेच्छा से इसका उपभोग कीजिए।”
राजहंस ने उसके समर्थन में कहा, “हां, हमारे मन्त्री महोदय ठीक ही कह रहे हैं । ” यह सुन कर दूरदर्शी बोला, “इस समय मैं व्यर्थ के तर्क-वितर्क में पड़ना नहीं चाहता, क्योंकि बुद्धिमान मनुष्य का कर्तव्य है कि वह लोभी को धन दे कर, जड़ प्रकृति वाले के सम्मुख नतमस्तक हो कर, मूर्ख को समझा कर और पंडित को उचित सम्मान से वश में करे ।
“इसलिये इस समय तो हमें सन्धि करके चल देना है।”
चकवा बोला, “यदि सन्धि की ही बात है तो वह किस प्रकार हो सकती है कृपया उसका भी वर्णन कर दीजिये।”
उसी समय राजा ने पूछा, “सन्धि कितने प्रकार की होती है ?”
गीध बोला, “सुनाता हूं, सुनिये ।
“यदि कोई राजा अपने से बली राजा के पाश में फंस गया हो और उस विपत्ति से छूटने का कोई मार्ग न निकाल सके तो समय टालने के लिए उसके साथ सन्धि कर ले
” सन्धिशास्त्र के ज्ञाताओं ने सोलह प्रकार की सन्धियों का वर्णन किया है। समान बल मान कर सन्धि करने को कपाल सन्धि कहते हैं। कुछ दे कर सन्धि करने को उपहार सन्धि कहते हैं । कन्या समर्पित करके जाने वाली सन्धि सन्तान संधि कहलाती है । मित्रता करके सज्जनों के साथ की जाने वाली सन्धि को संगत सन्धि कहते हैं। इसे सुवर्ण सन्धि भी कहा गया है। यह आजीवन बनी रहती है, कभी नहीं टूटती ।
” अपना कार्य सिद्ध करने के लिए जो सन्धि की जाती है उसे उपन्यास सन्धि कहते हैं। प्रतिकार की भावना से जो सन्धि की जाती है उसको प्रतिकार सन्धि कहते हैं। राम और सुग्रीव की सन्धि इसी प्रकार की थी। कार्य के उद्धेश्य से की जाने वाली सन्धि संयोग सन्धि कही जाती है।
“मिलकर कार्य करने के उद्देश्य से की जाने वाली सन्धि पुरुषान्तर सन्धि कहलाती है। तुम्हें मेरा अमुक कार्य करना होगा, इस प्रकार की शर्त के आधार पर जो सन्धि की जाती है उसे दृष्टपुरुष सन्धि कहते हैं ।
” शत्रु को अपनी ओर मिलाने के लिए भूमि का टुकड़ा देकर जो सन्धि की जाती है उसे आदिष्ट सन्धि कहते हैं। अपनी सेना के साथ की जाने वाली सन्धि आत्मादिष्ट सन्धि कहलाती है । अपना सर्वस्व अर्पण कर प्राण रक्षा के लिए की जाने वाली सन्धि उपग्रह सन्धि कहलाती है।
” अपने कोष का कुछ अंश देकर शेष कोष की रक्षा के निमित्ति की जाने वाली सन्धि परिक्रम सन्धि कहलाती है। अपनी अच्छी भूमि देकर की जाने वाली सन्धि उच्छिन्न सन्धि कही जाती है। भूमि से उत्पन्न लाभ देकर की जाने वाली सन्धि परभूषण सन्धि कहलाती है।
“जिसमें कुछ निश्चित मात्रा घर पहुंचाने की शर्त रखी जाये उसे स्कन्धोपनेय सन्धि कहते हैं । “
गीध ने कहा, “हमें तो केवल उपहार सन्धि ही रुचिकर है। क्योंकि अन्य सब सन्धियां मित्रता रहित होती हैं । “
राजा ने कहा, “आप लोग महान् और विद्वान है। अतः जो आप लोग उचित समझें उसका हमें उपदेश कीजिए ।
मन्त्री कहने लगा, “नहीं, आप ऐसा क्यों कहते हैं? संसार तो मृगतृष्णा के समान क्षणभंगुर है, यह मानकर हमें सज्जनों का साथ करना चाहिए। इसी दृष्टि से मैंने उपहार सन्धि को उचित समझा है ।
“अतएव सत्य शपथ के साथ दोनों राजाओं में सन्धि की जानी चाहिए।”
सर्वज्ञ ने कहा, “आपका कहना उचित है।”
तदनन्तर राजा हिरण्यगर्भ ने वस्त्राभूषणों से दूरदर्शी गीध का स्वागत सत्कार किया और फिर प्रसन्न मन से अपने मन्त्री चक्रवाक को साथ ले कर मयूर राज चित्रवर्ण के समीप गया।
चित्रवर्ण ने भी अपने महामन्त्री गीध के कथनानुसार बहुत प्रकार का दान मान दे कर सर्वज्ञ मन्त्री से सन्धि की और फिर सम्मान के साथ उनको विदा किया।
दूरदर्शी ने अपने राजा से कहा, “महाराज ! हमारी कामना पूर्ण हुई। अब हमें यहां से विन्ध्याचल को लौट चलना चाहिए।”
तदनुसार सब अपने-अपने स्थान को लौट गये और उन सबको इच्छानुसार फल की प्राप्ति हुई ।
सन्धि का पाठ पढ़ा कर विष्णुशर्मा ने राजकुमारों से कहा, “अब क्या कहूं, बोलो?” राजकुमार बोले, “गुरु जी ! आपके कृपाप्रसाद से हम लोगों ने राज्य के व्यवहार- सम्बन्धी सब अंग जान लिये। इससे हमें आनन्द प्राप्त हुआ ।”
विष्णुशर्मा बोले, “मेरी कामना है कि सभी विजयी राजाओं में सन्धि हो कर आनन्द हो, सज्जन आपत्ति विहीन हों, पुण्यात्माओं की कीर्ति बढ़े, नीति सुन्दरी वेश्या बन कर सदा मन्त्रियों के वक्षस्थल में विराजमान रहती हुई दिनों दिन उनका मुख चूमती रहे और बड़े- बड़े उत्सव हों ।
“जितने दिन तक हिमालय की पुत्री पार्वती श्री शिवजी के साथ प्रेमपूर्वक रहें, जब तक मेघ में तड़पने वाली बिजली के समान भगवती लक्ष्मी विष्णु भगवान् के मन मानस में विहार करें और दावानल के समान भभकते हुए सूर्य रूपी चिनगारी से युक्त यह सुमेरू पर्वत जब तक विद्यमान रहे, उतने दिनों तक नारायण पण्डित द्वारा विरचित यह हितोपदेश नामक कथा संग्रह संसार में प्रचारित होता रहे।
“शत्रुओं पर शासन करने वाले श्रीमान राजा धवलचन्द्र चिरजीवी हों, जिन्होंने बड़े यत्न से लिखवा कर इस कथा संग्रह का प्रचार किया।”