कल्हण कश्मीर के बड़े विद्वान थे। उन्होंने कई टीकाएं लिखीं और कश्मीर का इतिहास भी। उनका जीवन एक साधक जैसा सहज और साधारण था। एक बार कुछ विद्वानों का दल उनसे मिलने आया। अपनी झोपड़ी के बाहर वे सबसे मिले।
नदी के किनारे हरी घास पर बैठकर सबने अनेक विषयों पर बातचीत की। सारे मेहमान काफी खुश हुए पर मन ही मन वे वहाँ के राजा से नाराज थे। उन्हें लगा कि कश्मीर के राजा, कल्हण का ख्याल नहीं रख रहे हैं। उन्होंने इतने नामी लेखक को उतना सम्मान नहीं दिया जितना उन्हें दिया जाना चाहिए था। राजा कम से कम इतनी व्यवस्था तो करते कि कल्हण का एक ढंग का मकान हो जाता।
ये बेचारे झोपड़ी में रह रहे हैं। सभी विद्वान राजा के पास गए और उन्होंने शिकायत की कि वे कल्हण पर ध्यान क्यों नहीं दे रहे हैं? राजा बोले, हम तो कह-कह कर थक गए। वे हमसे कुछ लेना ही नहीं चाहते। अब आप लोग कोशिश करके देखें। हमसे धन और सुविधाओं के सामान लेकर उनके पास जाइए। वे विद्वान सभी सामग्री के साथ कल्हण के पास पहुँचे। जब कल्हण को इसका पता चला तो वे अपनी पत्नी से बोले, सामान बांध लो। राजा को धन का घमंड हो गया है। हम इस राज्य में अब नहीं रहेंगे। सभी विद्वानों ने उनसे क्षमा याचना की और बोले, हमारे कहने पर राजा ने विवश होकर यह सब भेजा है। हमें क्षमा कर दें। अब समझ में आया कि त्याग ही आपकी सफलता का राज है।
सारः संग्रह न करने वाला ही असाधारण हो सकता है।
ये कहानी ‘इंद्रधनुषी प्रेरक प्रसंग’ किताब से ली गई है, इसकी और कहानियां पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं– Indradhanushi Prerak Prasang (इंद्रधनुषी प्रेरक प्रसंग)
