Hitopadesh ki Kahani : विशाल दक्षिणी समुद्र के तट पर एक टिटिहरी दम्पत्ति रहते थे। एक समय की बात है कि टिटिहरी गर्भवती थी। उसका जब प्रसवकाल समीप आया तो उसने अपने पति से कहा, “देव मेरा प्रसवकाल निकट है, इसलिए किसी सुरक्षित स्थान की व्यवस्था करनी चाहिये।”
उसके पति ने कहा, “यह स्थान क्या बुरा है? यहीं प्रसव करो। “
पत्नी ने कहा, “यह स्थान चारों ओर से समुद्र से घिरा होने के कारण उचित नहीं है । वह कभी भी हमारे अंडों को बहा कर ले जा सकता है।”
टिटिहरा बोला, “क्या हम इतने निर्बल हैं कि समुद्र हमको सताये ? “
टिटिहरी बोली, ” क्या बात करते हो? कहां समुद्र और कहां तुम?”
“जो मनुष्य योग्य-अयोग्य का निर्णय और शत्रु को परास्त करने की युक्ति जानता है वह कठिनाई पड़ने पर भी दुखी नहीं होता ।
” और भी कहा गया है कि मृत्यु के चार द्वार है। अनुचित काम करना, अपने जनों का विरोध करना, बलवान से स्पर्धा करना और स्त्रियों पर विश्वास करना ।’
किन्तु टिटिहरा स्थान बदलने को तैयार नहीं था । उसका स्वाभिमान उसे ऐसा नहीं करने देता था ।
विवश होकर टिटिहरी को वहीं प्रसव करना पड़ा।
पति-पत्नी में जब स्थान के विषय पर विवाद हो रहा था तो समुद्र यह सब सुन रहा था । उसने टिटिहरे की गर्वोक्ति सुनी थी। अतः उसने सोचा कि देखा जाये यह क्या करता है ।
यह विचार कर समुद्र ने उसके अंडे बहा लिए ।
टिटिहरी को इससे बड़ा दुख हुआ। शोकाकुल टिटिहरी ने अपने पति से कहा, “स्वामी ! समुद्र ने तो वह कर दिया जिसकी मुझे आशंका थी । “
टिटिहरा बोला, “प्रिये ! चिन्ता मत करो। मैं उससे अंडे वापस लाकर दूंगा।” टिटिहरी को आश्वासन देकर टिटिहरा अपने साथियों के पास गया। उनके सम्मुख उसने अपनी बात रखी और फिर सब पक्षी मिलकर अपने राजा के पास गये।
गरुड़ ने जब इतनी भीड़ देखी तो वह सावधान हो गया। टिटिहरे ने गरुड़ के पास पहुंच कर अपनी करुण कथा सुनाई। फिर कहा, “महाराज! मैं तो अपने घर पर शान्ति से रहता था। मैंने समुद्र के प्रति कोई अपराध भी नहीं किया, फिर उसने मेरे साथ ऐसा क्यों किया? उसने मुझे क्यों सताया ?”
गरुड़ ने उसको आश्वस्त करते हुए कहा, “तुम चिन्ता मत करो। मैं इसका उपाय करता हूं।”
गरुड़ ने पक्षियों के शिष्ठ मंडल को आश्वासन देकर बिदा किया और स्वयं विष्णु भगवान के समीप निवेदन करने चला गया।
विष्णु भगवान ने असमय में गरुड़ को आया देख पूछा, “कहो किस प्रकार आगमन हुआ है, पक्षीराज ?
“भगवन् ! आप मेरे स्वामी ही नहीं तीनों लोकों के अधिपति हैं। मुझे आपने पक्षियों का मुखिया बनाया हुआ है । किन्तु आपके इतने विशाल और गहन समुद्र ने उसके तट पर निवास करने वाले एक साधारण से टिटिहरी दम्पति के अंडों को स्वयं में समेट लिया है। जबकि उस दम्पति का कोई भी अपराध नहीं था । “
भगवान् बोले, “चलो हम चलते हैं समुद्र के समीप ।”
समुद्र ने जब देखा कि भगवान विष्णु स्वयं चले आ रहे हैं तो उसने उफन कर उनको प्रणाम किया। भगवान् ने उससे पूछा, “टिटिहरी दम्पति ने तुम्हारा क्या अपराध किया है ?”
“कुछ नहीं महाराज ।”
“फिर तुमने उनके अंडों को क्यों समेटा है ?
समुद्र क्या उत्तर देता! वह चुप ही रहा। उसने तो टिटिहरी का सामर्थ्य देखने के लिए यह तमाशा किया था । उसे क्या पता था कि भगवान् विष्णु तक यह बात पहुंच जायेगी। वह अपराधी सा खड़ा रहा।
भगवान् ने आज्ञा दी, “उन अंडों को तुरन्त वापस करो। “
“जो आज्ञा महाराज ।”
यह कह कर समुद्र ने टिटिहरी के अंडे वापस कर दिये। भगवान् गरुड़ पर आरूढ़ होकर अपने लोक को चले गये।
दमनक ने यह कथा सुना कर कहा, “महाराज ! इसलिए मैं कहता हूं कि अंगागी भाव का जान लेना परमावश्यक है।”
यह सुन पिंगलक ने कहा, “तो मैं यह किस प्रकार समझं कि वह मेरे साथ द्रोह करता है ?”
दमनक बोला, “इसमें समझने को है ही क्या। अगली बार जब संजीवक आपके समीप आये और आप देखें कि क्रोध से उसके नयन आरक्त हैं, उसकी ग्रीवा झुकना ही नहीं चाह रही है। उसके भाव में विस्मय झलकता हो तब आप स्वयं ही समझ लीजिये कि उसका हृदय निर्मल नहीं है।”
पिंगलक ने कहा, “अच्छा देखूंगा।”
दमनक ने अपने महाराज से आज्ञा ली और वहां से चला गया।
दमनक उसके बाद संजीवक के पास गया। उसके समीप पहुंचने से पूर्व दमनक ने अपनी गति को धीमा कर लिया था और अपना भाव कुछ इस प्रकार का बनाया कि मानो उसको विस्मय हो रहा हो।
संजीवक ने उसको इस भाव में देखा। उसने उसका स्वागत किया और फिर कहने लगा, “मित्र ! कुशल तो है न?”
दमनक कहने लगा, “सेवकों की कुशल भला किस प्रकार रह सकती है। क्योंकि राजसेवकों की सम्पत्तियां तो सदा परायों के हाथ में रहती हैं। मन चिन्ता में डूबा रहता है और अपने जीवन पर भी सदा संदेह बना ही रहता है।
” और भी कहा गया है कि इस संसार में ऐसा कौन प्राणी है जिसको धनप्राप्ति होने पर अभिमान न हुआ हो। ऐसा कौन विषयी है जिसकी विपत्तियां दूर हो गई हों। कौन ऐसा है कि जो राजा का प्रिय हो। ऐसा भी कौन है कि जो काल के हाथों में न पड़ा हो। ऐसा कौन है कि याचक होकर भी महत्व को प्राप्त हुआ हो, और ऐसा कौन है जो दुष्टों के जाल में रहकर सुख से रहता हो।”
यह सुनकर संजीवक कहने लगा, “मित्र ! कहो तो सही बात क्या है ?”
दमनक बोला, ” मित्र ! मैं ही अभागा हूं। देखो-
“जैसे कोई मनुष्य समुद्र में डूब रहा हो और सहसा उसको सर्प का आश्रय मिल जाये ।, उस समय वह न तो सर्प को पकड़ सकता है और न उसको छोड़ ही सकता है। ठीक वही दशा मेरी हो रही है।
“क्योंकि एक ओर तो राजा का विश्वास नष्ट हो रहा है, दूसरी ओर भाई का विनाश रूपी समुद्र दिखाई दे रहा है। ऐसी स्थिति में क्या करूं और कहां जाऊं? मैं तो भारी दुख में जा पड़ा हूं।”
ऐसा कहकर दमनक ने एक लम्बा सांस लिया और बैठ गया ।
संजीवक ने कहा, “बात क्या है, कुछ मुझे भी तो बताओ।”
दमनक ने बड़े धीरे से कहा, “राजा के भेद की कोई भी बात यद्यपि कहनी नहीं चाहिये किन्तु फिर भी आप तो मेरे विश्वास से आये थे । इसलिए अपने परलोक का ध्यान रखते हुए मुझे आपके हित की बात तो आपको बतानी ही चाहिए।
“कृपया ध्यान देकर सुनिये। मैं देख रहा हूं कि हमारे स्वामी पिंगलक की आज-कल “मैं आप पर अच्छी दृष्टि नहीं है। एक दिन तो उन्होंने एकांत में मुझसे कह ही दिया, तो संजीवक को मारकर ही अपने परिवार को तृप्त करूंगा। यह सुनकर मैं तो स्तब्ध रह गया।”
संजीवक ने जब यह सुना तो उसके होश उड़ गए।
दमनक फिर बोला, “अब शोक करना व्यर्थ है। समय की गति को पहचानकर उसका उपाय करो। “
संजीवक ने क्षण-भर मन में सोचा। वह मन ही मन विचार करने लगा कि यह तो ठीक ही है । किन्तु यह किसी दुष्ट की चाल होगी अन्यथा वह यों ही हमसे बिगड़ गया है । यह बात तो अब उसके व्यवहार से जानने का भी अवसर नहीं रहा ।
क्योंकि प्रायः स्त्रियां दुष्टों के पास पहुंचती हैं। अधिकांश राजा अयोग्यजनों पर ही विश्वास करते हैं। धन विशेषतया पर्वत अथवा समुद्र पर ही बरसता है ।
कोई-कोई दुष्ट तो अपने स्वामी के बल पर ही सुन्दर हो जाता है। जैसे रमणी की आंख में लगा काजल |
इस प्रकार विचार कर उसने कहा, यह कैसी बड़ी भारी विपत्ति आ पड़ी है ? क्योंकि बड़े यत्न के साथ आराधना करने पर भी राजा यदि प्रसन्न नहीं होता तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ? राजाओं की तो यह एक प्रकार की अपूर्व प्रतिभा होती है कि वे सेवा करने पर शत्रु हो जाते हैं।
“अब बात कहां तक पहुंच चुकी है। इसका अनुमान करने का भी समय नहीं रहा । क्योंकि जो मनुष्य किसी कारणवश अप्रसन्न होता है, वह उन कारणों के दूर हो जाने पर प्रसन्न भी हो जाता है । किन्तु जो बिना किसी कारण से व्यर्थ ही कुपित होता है, उसे भला कोई कैसे प्रसन्न करेगा ?
“आखिर मैंने राजा का बिगाड़ा ही क्या है? ठीक ही कहा है कि राजा तो बिना कारण के भी अपकारी हो जाया करते हैं । “
दमनक कहने लगा, “हां, आपकी बात ठीक है। “
“राजा किसी समझदार तथा प्रेमी सेवक के उपकार से भी प्रसन्न नहीं होता । और दूसरे प्रत्यक्ष अपकार करने वाले से भी प्रसन्न रहता है। चंचल चित्त वाले लोगों में इससे बड़े आश्चर्य की बात और क्या होगी ? इस सबका सारांश यही है कि सेवा धर्म बड़ी गहन वस्तु है, उसमें सफलता पाना तो योगियों के लिए भी अगम्य है।
” और भी कहा गया है कि दुष्ट मनुष्य के प्रति किये हुए सैकड़ों उपकार व्यर्थ हैं, मूर्ख मनुष्य के प्रति कहे गए सैकड़ों दुर्वचन व्यर्थ हैं, बात न मानने वाले के प्रति कहे गये सैकड़ों वाक्य व्यर्थ हैं और जड़ मनुष्य के सम्मुख सैकड़ों बुद्धियां व्यर्थ हैं।
“चन्दन के वृक्ष से सांप लिपटे रहते हैं, जल में कमल होता है तो ग्राह भी उसमें निवास करते हैं और भोग में गुणघाती दुष्ट विद्यमान रहते हैं । कहने का अभिप्राय यह है कि सुख विघ्न से रहित रहता ही नहीं ।
“चन्दन वृक्ष का कोई भी भाग ऐसा नहीं रहता कि जिसमें किसी भी स्थान पर कोई दुष्ट जन्तु विद्यमान न हो। उसके मूल में सर्प, पुष्पों पर भ्रमर, डालियों पर बन्दर, और उसके शिखरों पर भालू रहते हैं । “
इतनी बातें कहकर दमनक ने कहा, “यह स्वामी तो बात का मीठा और हृदय का विषैला सिद्ध हुआ है।
“क्योंकि कहा गया है कि दुर्जन दूर से देखते ही दोनों हाथ उठा कर और नेत्रों में आंसू भर कर अपने आधे आसन पर बैठाता है। भुजाओं में कस कर गाढ़ा आलिंगन करता है, बड़े आदर के साथ बातें कहता और सुनता है। किन्तु उसके भीतर तो विष भरा रहता है तदपि वह बाहर से शहद के समान मधुर और मायावी बना रहता है। विधाता ने ऐसी कौन सी नाटक की विधि की रचना की है जिसे दुर्जनों ने सीख लिया है।
‘और भी, सागर जैसी महान जलराशि को पार करने के लिए जहाज, अन्धकार में दीपक, वायुविहीन स्थान में पंखा, तथा मतवाले हाथियों का मद दूर करने के लिए भाला बनाया गया है। अभिप्राय यह कि संसार में कोई भी वस्तु ऐसी नहीं कि जिसके प्रतिकार के लिए विधाता ने कोई न कोई उपाय न सोचा हो, किन्तु मेरा विचार है कि दुष्टों की चित्तवृत्ति को ठीक करने में ब्रह्मा जी का भी उद्यम सफल नहीं हुआ ।”
यह सुनकर संजीवक ने एक बार फिर निश्वास छोड़ा और मन ही मन कहने लगा, “ओह, बड़ा कष्ट है, बड़ी विपत्ति है। क्या मुझ जैसे अहिंसक, घास खाने वाले प्राणी को भी पिंगलक मार देगा?
“कहा भी है कि जिनका धन समान हो, जिनका बल समान हो उनमें ही परस्पर झगड़ा होना उचित है। उत्तम और अधम की लड़ाई तो हो ही नहीं सकती।
फिर सोच कर कि किसने राजा को मुझ पर रुष्ट कर दिया है। यह तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है । किन्तु अब जब वह रुष्ट हो ही गया है तो उससे सावधान रहने में ही लाभ है।
कहते हैं कि यदि मन्त्री ने राजा के मन में भेदभाव उत्पन्न कर दिया तो स्फटिक और टूटी चूड़ी के समान उस चित्त को जोड़ने में कौन समर्थ हो सकता है?
वज्र और राजा का तेज, ये दोनों ही बड़े भयानक होते हैं। तो भी वज्र तो केवल एक ही स्थान पर गिरेगा किन्तु राजा का तेज तो सब ओर एक साथ ही गिरता है ।
ऐसी स्थिति में तो उससे युद्ध करके उसमें मर जाना ही श्रेयस्कर है। अब उसकी आज्ञा का पालन करना उचित नहीं है।
कहा भी गया है कि वीर के लिए ये दोनों दुर्लभ गुण प्राप्य हैं। वह यह कि यदि वह संग्राम में मारा जाता है तो उसे स्वर्ग मिलता है और यदि वह शत्रुओं को मार डालता है तो उसे सुख की प्राप्ति होती है।
अब यह तो युद्ध का ही समय है ।
जब कि बिना लड़े भी मृत्यु निश्चित हो और लड़ने पर जीवन की क्षीण सी आशा हो तो ऐसे समय को ही विद्वानों ने युद्ध का समय बताया है।
क्योंकि तटस्थ रह जाने पर यदि कुछ भलाई न दिखाई देती हो तो समझदार मनुष्य शत्रु के साथ युद्ध करके मर मिटे । युद्ध में जीत जाने पर लक्ष्मी मिलती है और मरने पर देवांगनाएं प्राप्त होती हैं, तब इस क्षणभंगुर शरीर के संग्राम में नष्ट हो जाने की क्या चिन्ता है।
यह सब विचार करके संजीवक ने कहा, “मित्र ! यह तो बताओ कि मुझे यह किस प्रकार विदित हो कि वह मुझे मार डालने के लिए ही उद्यत है? “
दमनक ने कहा, “जब तुम उसके समीप पहुंचो और उस समय पिंगलक कान सिकोड़े, पूंछ फटकारे, पैर उठाये और मुंह बाए तुम्हारी ओर देखे तब समझ लो कि उसके मन में तुम्हारे प्रति द्वेष भाव है।
“उसी समय तुम भी अपना पराक्रम प्रकट करना । बलवान् हो कर भी जो निस्तेज हो वह सब लोगों का अनादर का पात्र बन जाता है। देखो न, संसार में लोग किस प्रकार निशंक हो कर राख के ढेर पर पैर रख देते हैं ?
” किन्तु यह सब तुम गुप्त रीति से करना । अन्यथा न तो तुम रह पाओगे और न मैं ही ।”
यह कह कर दमनक वहां से चला गया। करटक ने जब दमनक को आया देखा तो पूछने लगा, “क्या हुआ ?”
दमनक ने कहा, “बस, उन दोनों में परस्पर फूट के बीज बो दिये हैं । “
“तुम्हारी बुद्धि में किसको सन्देह हो सकता है?
“कहा भी है कि दुष्ट मनुष्य का कौन मित्र है? मांगने पर कौन कुपित नहीं होता? धन पाकर किसको अभिमान नहीं होता? कुकर्म में कौन चतुर नहीं होता ?
” और भी कहा गया है कि धूर्त जन अपने लाभ के लिए धनी लोगों को दुराचारी बना डालते हैं। अग्नि के समान ही दुष्ट का संसर्ग भी क्या-क्या नहीं कर सकता ? “
उसके बाद दमनक अपने राजा पिंगलक के समीप गया। वहां जा कर कहने लगा-
“स्वामिन्! वह पापी आ रहा है। आप तैयार हो जाइये।”
यह कह कर उसने पिंगलक को ठीक उस प्रकार बैठने के लिए कहा जिस प्रकार का उसका आकार उसने संजीवक को बताया था । अर्थात् कान सिकोड़ना और पूंछ फटकारना आदि ।
संजीवक जब आया तो उसने सिंह को ठीक उसी अवस्था में देखा जिस अवस्था में दमनक ने उसको बताया था। अतः वह समझ गया कि पिंगलक का मन शुद्ध नहीं है। अतः उसने सामर्थ्य के अनुसार उस पर अपना पराक्रम प्रकट कर दिया।
दोनों में परस्पर महान् युद्ध हुआ । संजीवक भी अपना पराक्रम दिखाने में पीछे नहीं रहा । किन्तु था तो घास खाने वाला ही, और सिंह का भोजन भी । अन्त में सिंह ने उसको मार ही डाला ।
संजीवक को मारने में पिंगलक को बड़ा परिश्रम करना पड़ा था। उसके सीगों से अनेक स्थानों पर घाव भी हो गये थे। पिंगलक क्लान्त सा एक ओर को बैठ गया। थकावट दूर होने पर जब वह कुछ स्थिर हुआ तो मन ही मन सोचने लगा, मैंने यह क्या दारुण कर्म कर दिया ?
राज्य की वृद्धि के लिए अधर्म करके राजा स्वयं को पाप का भागी बनाता है जब कि अन्य जन उस राज्य का उपभोग करते हैं। यह तो ठीक वैसे ही है जैसे कि सिंह हाथी का वध कर डालता है, किन्तु उससे उसको कुछ लाभ तो होता नहीं ।
और भी कहा गया है कि भूमि के किसी भाग अथवा गुणी तथा बुद्धिमान सेवक का मरण तो राजा का ही मरण समझना चाहिये । तथापि नष्ट भूमि तो फिर भी प्राप्त की जा सकती है किन्तु जो सेवक मर गया है वह तो फिर प्राप्त नहीं हो सकता ।
दमनक देख रहा था कि उसका स्वामी सन्ताप से दुखी है। उसने उसको आश्वस्त करते हुए कहा, “स्वामी! यह आपकी कौन सी नीति है जो कि आप अपने शत्रु को मार कर अब उसका पश्चात्ताप कर रहे हैं ?
“कहा गया है कि पिता, भाई, पुत्र या मित्र जो कोई भी प्राणघातक शत्रुता करे उस समय अपना कल्याण चाहने वाले राजा को चाहिये कि वह उसको उसी समय मार डाले। ” और भी कहा गया है कि धर्म, अर्थ तथा काम के तत्व को जानने वाले को चाहिये कि वह सर्वथा दयालु न बन जाये। क्यों कि विशेष दयावान् मनुष्य हाथ में रखे हुए अन्न को भी नहीं खा सकता ।
” शत्रु अथवा मित्र इन दोनों पर समान रूप से दया करना तो संतों का ही काम है किन्तु राजा जब किसी अपराधी पर दया करता है तो यह उसका दोष है। इसमें उसकी किसी प्रकार भी शोभा की बात नहीं है ।
“जो मनुष्य राज्य के लोभ से अथवा अहंकार वश अपने स्वामी का पद चाहता है तो इस पाप का एकमात्र प्रायश्चित यह है कि वह अपने प्राण त्याग दे ।
” और भी कहा गया है कि दयालु राजा, सर्वभक्षी ब्राह्मण, स्वतन्त्र स्त्री, खोटे स्वभाव का सहायक, आज्ञा उल्लंघन करने वाला सेवक, भूल करने वाला अधिकारी और अकृतज्ञ इन सब को तो त्याग ही देना चाहिये ।
“विशेषतया तो कहीं सच, कहीं झूठ, कहीं कठोर कहीं नम्र, कहीं हिंसक, कहीं दयालु, कहीं कृपण, कहीं मुक्त हस्त से अपव्यय करने वाला, कहीं नित्यव्यय करना और कहीं अत्यधिक धन संग्रह करने वाली वेश्या जैसी राजनीति के तो एक नहीं अनेक रूप दिखाई देते हैं। “
इस प्रकार दमनक ने अपने राजा को अनेक प्रकार से समझाया। इससे पिंगलक का मन कुछ आश्वस्त हुआ और फिर वह अपने सिंहासन पर जाकर बैठ गया ।
दमनक ने जब यह देखा तो उसे बड़ी प्रसन्नता हुई। क्यों न हो, उसको उसका खोया अधिकार पुनः प्राप्त होने वाला था । महाराज की जय हो, इस घोष से उसने आसमान गुंजा दिया ।
इस प्रकार दमनक ने एक बार फिर अपनी धूर्तता अथवा चतुराई से अपना खोया हुआ अधिकार प्राप्त कर ही लिया। उस दिन से वे सुख और आनन्द से रहने लगे।
यह सब सुना कर विष्णु शर्मा ने राजकुमारों से पूछा, “आप लोगों ने ठीक प्रकार से सुहृदभेद सुना?”
राजकुमारों ने एक स्वर में उत्तर दिया, “जी सुना गुरुजी । हम सब इसे सुन कर बड़े आनन्दित हुए। “
विष्णु शर्मा ने उनको आशीर्वाद देते हुए कहा, “आपके शत्रुओं के घर में फूट हो, दुष्टजन नित्य प्रति प्रलय की ओर अग्रसर हों, आपकी प्रजा समस्त सुखों और सम्पत्तियों से भरपूर रहे और हमारी इस सुन्दर कथा में श्रोताओं का मन रमे । “
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