स्वामीजी कहते थे कि कर्म में ही सफलता का मंत्र छिपा होता है। गीता में भी कृष्ण ने अर्जुन को कर्म करते रहने की ही प्रेरणा दी है। प्रत्येक कर्म के अपने गुण व दोष होते हैं, इसके बावजूद हमें कर्म करने से पीछे नहीं हटना चाहिए। शास्त्र कहते हैं कि हमें सदैव कर्म करते रहना चाहिए।
विवेकानंदजी ने कर्म करने की प्रेरणा तो दी ही, साथ ही यह भी कहा कि हमें अपने कर्मों के लिए किसी तरह का मोह नहीं रखना चाहिए। हमें एक स्वामी की तरह कार्य करना चाहिए, किसी दास की तरह नहीं ! हमें काम का गुलाम बनने की बजाय उसका मालिक बनना चाहिए । अगर हम ऐसा कर सके तो धर्म पर किसी तरह का बंधन नहीं होगा।
समाज में हम जो भी कार्य करते हैं, उसका लाभ समाज के सभी वर्गों को होता है। स्वामी जी इस विषय में भगवान कृष्ण का उदाहरण देते थे। वे कहते थे- प्रभु ने अर्जुन से कहा – ‘हे पार्थ! यदि मैं कर्म न करूं तो यह सारा संसार एक पल में ही थम जाएगा। यह सब मेरे ही कर्म करने से चलता है । इस कर्म से मुझे कोई लाभ नहीं है। मैं जगत का एकमात्र प्रभु हूं। मैं कर्म इसलिए करता हूं क्योंकि मुझे इस जगत से प्रेम है । ‘

स्वामीजी ने हमें समझाया कि ईश्वर किसी में मोह नहीं रखता क्योंकि वह सच्चा प्रेमी है। वह कभी किसी में आसक्ति नहीं रखता। इसी तरह हमें भी कार्य के प्रति आसक्त नहीं होना चाहिए।
वे कहते थे कि जब भी कोई कार्य करना हो तो उसे किसी भी तरह की दासता समझकर नहीं करना चाहिए। यदि हम अपने मन का स्वामी बनकर कार्य करेंगे तो उसके लिए मोह नहीं पैदा होगा। इस तरह हम स्वार्थ से भी बचे रहेंगे । जिस तरह हम अपने बच्चों से सच्चा स्नेह रखते हुए उन्हें कुछ देते हैं, तो बदले में उनसे कुछ नहीं चाहते। उन्हें प्रेमपूर्वक भेंट देते हैं । उसी तरह हमें अपना कर्म भी करना चाहिए। कर्म के बदले में किसी तरह के फल की आशा नहीं रखनी चाहिए। प्रभु भी तो हमसे प्रेम करते हैं और बदले में हमसे कुछ नहीं चाहते। हमें भी स्वयं किए गए सभी कामों का फल प्रभु को अर्पित कर देना चाहिए।

स्वामीजी कहते थे कि मनुष्य अपने जीवन में जो कुछ भी होता है या बनता है; वह उसके अपने ही कर्मों का फल है। यदि वह चाहता है कि आने वाले समय में कुछ अच्छा पा सके, कुछ कल्याणकारी पा सके तो उसे उसके लिए शुरु से ही मेहनत करनी होगी और अपने वर्तमान कार्यों पर ध्यान देना होगा।

