saralata kee takaneek
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भारत कथा माला

उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़  साधुओं  और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं

नये गुरुजी-आयुष्मान! जब विद्यालय में आये तो विद्यार्थियों में नया जोश आ गया था। परन्तु शीघ्र ही विद्यार्थियों एवं स्वयं गुरू जी का जोश ठंडा पड़ गया। क्योंकि गरूजी जो बताते थे, वह छात्रों को बिल्कल नया एवं अटपटा सा लगता। उधर गुरूजी भी सोचने पर मजबूर हो गये कि आखिर खोट कहाँ है? बच्चों मे नये ज्ञान के प्रति अरुचि क्यों हो रही है। उनके प्रति विद्यार्थियों की तटस्थता और बढ़ने लगी। वे सोचने लगे कि ये गुरूजी भी अन्य सभी की तरह पढ़ाने के नाम पर टाइम पास करने आये हैं। बस अपना रटा-रटाया पढ़ायेंगे और नोट लिखाकर चले जायेंगे।

किन्तु सच्चाई तो कुछ और थी। आयुष्मान गुरुजी केवल डिग्री लेकर जीविका कमाने के लिए अध्यापक नही बने थे। वह तो बच्चों का दिल जीतना चाहते थे। पढ़ाई-लिखाई के प्रति एक नया नजरिया पैदा करना चाहते थे। उनकी कक्षा में बच्चों की अनिच्छा उन्हें काँटे की तरह चुभ गई। वह अपने ही अन्दर कमी ढूँढ़ने लगे। ज्यादातर उनका समय अब चिन्तन-मनन में लगता। वह कभी-कभी दूने उत्साह से कक्षा में पढ़ाते । पर परिणाम शून्य रहा।

उन्होने सोंचा क्यों न अपने से अधिक अनुभवी सह-अध्यापकों से कुछ मदद लिया जाये। आखिर उन लोगों को उनसे अधिक तजुर्बा है। इतने दिनों से विद्यालय मे स्थापित हैं। उन्ही के पढ़ाये पाठ पढ़कर बच्चे हर साल बढ़िया से बढ़िया ग्रेड लाते हैं। किन्तु कुछ वरिष्ठ अध्यापकों के विचार सुनकर उन्हे बड़ी निराशा हुई। किसी ने उन्हे यह बताया कि बच्चे गुरु-गम्भीर भाषा मे पढ़ाने वाले अध्यापकों की कक्षा मे अधिक एकाग्र होते हैं। किसी ने कहा कि बच्चे तो केवल छड़ी की भाषा समझते हैं। अतः जब वे कक्षा में जाएं तो हाथ में एक डंडा जरूर ले जायं । उन्होने डंडे का नाम ‘चेतन-दास’ रख दिया था। उनका कहना था कि ‘चेतन-दास’ के डर से उनके बच्चों का काम हमेशा पूरा रहता है। कुछ लोग तो इनके भी आगे निकल गये थे। उनका कहना था कि क्लास में अपना लेक्चर झाड़ो और तनख्वाह लो। अनावश्यक बोझ लेने की जरूरत ही नहीं। यहाँ हम नौकरी करने आएं हैं या बच्चों की चिन्ता?

सबकी अपनी-अपनी सोच थी एवं अलग-अलग ढंग और उद्देश्य । आयुष्मान गुरुजी को लगा कि लोगों से पूछ-पूछकर वह काम नही कर सकते। उन्हे अगर कुछ करना है तो भीड़ से अलग हटकर कुछ नया तथा अलग सोचना ही पड़ेगा। अपनी सच्ची खुशी के लिए । अपने मन की शान्ति के लिए। क्योंकि जब हम अपने स्व के लिए कुछ करते हैं तो पूरे मनोयोग से करते हैं। आयुष्मान गुरुजी का मन बहुत उखड़ा-उखड़ा था। तब उन्होने निश्चय किया कि वह अब वह तरीका अपनाएंगे जिसमें उन्हें सच्चा आनन्द प्राप्त हो।

लेकिन यूँ अपने आप से यह कह देने से अचानक कोई नया मॉडल दिखाई नही पड़ जाता है। मन में केवल हाँव-हाँव मच जाता है। आयुष्मान गुरुजी के अन्दर कुछ नया करने की खलबली मची थी। कई नये तरीके उन्होंने अपनाये, पर उससे वे खुद ही सन्तुष्ट नही थे।

एक दिन की बात है। वे घर पर गुड़िया को गोद में लेकर लाड़ कर रहे थे। एकाएक गुड़िया मचल कर बोलने लगी- लोटी….ओटी।

उन्होने ध्यान से निरीक्षण किया। घर में रोटी बन रही थी। उनके मस्तिष्क में एक नये विचार ने चक्रवात की तरह प्रवेश किया। वह सोंचने लगे कि गुड़िया की तोतली बातों मे तो सबको रस भरा लगता है। पर कोई इस पर ध्यान क्यों नही देता कि जब हम उसे ‘रोटी’ सिखाते हैं, तो फिर वह बेझिझक ‘लोटी-ओटी’ क्यों बोलती है? गुड़िया तो किसी की परवाह ही नहीं करती कि कोई उसके बारे में क्या सोचेगा? या कहेगा? इससे तो यह बात निकल कर आती है कि गुडिया रोटी शब्द की जटिलता पर ध्यान न देकर अपनी सुगमता पर लक्ष्य किया और उसका परिणाम है-‘लोटी या ओटी’ ।

अब उनके समझ मे आ गया कि विषय को छात्रों के अनुरूप सरल एवं रोचक बना कर वे अपनी कक्षा की नीरवता को घटा सकते हैं तथा छात्रों की भागीदारी बढ़ा सकते हैं। उन्होंने इसी पर कार्य आरम्भ किया।

कक्षा में जाकर यह जानने का प्रयत्न किया कि किन-किन छात्रों को कहाँ–कहाँ कठिनाई महसूस हो रही है। उन्हाने एक घोषणा की कि जिस भी छात्र को कहीं भी पढ़ाई मुश्किल आ रही है, वे उसे तुरन्त दो मिनट में हल करेंगे और उसे कण्ठस्थ भी करवा देंगे।

एक छात्र अभिनव था। जिसे आठ का पहाड़ा याद नही हो रहा था। वह अपने आप को पढ़ने में कमजोर समझता था एवं पीछे बैठता था। पहाड़ा सुनाते वक्त बार-बार गिचपिचा जाता था और याद न होने के डर से उसे दोहराना ही छोड़ दिया था। आयुष्मान ने उस बालक को अपने पास बुलाया और कहा-“तुम आठ का पहाड़ा सुनाओ।”

जैसा कि अपेक्षा थी उसने तपाक से कहा – “मुझे नही आता।”

गुरुजी ने प्यार से कहा- “तुम्हे आता है केवल तुम घबरा रहे हो। चलो सुनाओ।”

अभिनव– “नही आता गुरुजी, सच में।”

आयुष्मान ने सभी बच्चों को सम्बोधित कर कहा- “मै दावा करके कहता हूँ कि अभिनव को यह टेबल आता है। पर इसे यह बात भी नही पता । अभी देखिएगा अभिनव यही टेबल सभी को यहीं सुनाएगा।” फिर उन्हाने अभिनव से कहा- “एक बार फिर तुम सोच लो, तुम्हें विश्वास है या मै उसे जगाऊँ?”

अभिनव तो अटल था- “मैने पहले ही बता दिया, गुरूजी! आप कहें तो मै कल याद कर के आपको सुना दूँगा।”

छात्रों ने बाहर झाँकना-ताकना बन्द कर दिया था। सभी की निगाहें अभिनव एवं सर पर केंद्रित हो गयी थी। सभी जिज्ञासु हो टक-टकी बाँधे देख रहे थे– “क्या होगा? कैसे होगा?” कक्षा आज पहली बार चेतनमय हो रही थी।

गुरुजी ने कहा- अगर मैं इससे यहीं-अभी यह पहाड़ा सुनवा , तो कैसा रहेगा?”

इस गतिविधि में सारे के सारे छात्र सहभागी हो रहे थे। एक आवाज में सबने कहा- “मजा आ जायेगा, गुरुजी!’

गुरुजी एक मदारी की तरह सभी छात्रो में कौतूहल जगाने में कामयाब हो गये थे। पर अभी बीच में थे। वे चाहते थे कि शुरूआत हो तो ठोस शुरूआत हो। उन्होने अभिनव से पूछा- ” आठ एकम?”

अभिनव ने बिना देर लगाए कहा- “आठ ।”

गुरुजी- ‘अब बताओ-आठ दहम ।’

अभिनव ने उमंग में आकर कहा- “ये तो आसान है-अस्सी।”

गुरुजी ने मन ही मन कहा- आसान ही तो बनाना चाहता हूँ, बेटे और पूछा- “जब तुम्हे एकम और दहम पता है, तो ये बताओ कि आठ दूनी?

इसमें भी उसे कोई दिक्कत महसूस नही हुई। बोला- “सोलह।”

गुरुजी ने उसे समझाते हुए कहा- “देखो, किसी भी अंक के पहाडे में दस चरण होते हैं। उसमें से तुम्हें तीन चरण तुमने फटाफट बता दिए। अब बचा है सात चरण। यह ध्यान रखना कि तुम्हें दस नहीं केवल सात चरण बताना है।”

अभिनव तो परेशान था कि गुरू जी बीच-बीच से सवाल पूछेगे। उसकी कठिन परीक्षा होगी। लेकिन यहाँ परीक्षा नही हो रही थी। उसकी ही बात को उससे कहलवाया जा रहा था। इसलिए उसका तनाव कम होने लगा।

गुरुजी ने कहा- “अच्छा, सोचकर बताओ कि अगर आठ दूनी सोलह, तो तियां कितना हो सकता है।

अभिनव ने अंगुलियों पर कुछ गिना और बोला- “चौबीस ।’

गुरुजी ने कहा- तुम तो कहते थे- तुम्हें नहीं आता। लेकिन तुमने दस मे से चार चरण सुना दिए। अब केवल छ: बचे हैं। बच्चों, आप लोग भी ध्यान दो। विशेष रूप से वे लोग, जो यह समझते हैं कि उन्हें नही आता। आज के बाद मैं प्रतिदिन यह सिद्ध करने वाला हूँ कि आप लोगों को सब आता है। बस केवल आप लोग मानते नही हो।” फिर उन्होंने पहाड़े का एक चरण छोड़ कर अभिनव से पूछा- ” अब बताओ- आठ पंजे?”

अभिनव चौके एवं अठे के विषय में सोच रहा था। लेकिन गरूजी ने पंजे पूछकर उसका तनाव और कम कर दिया । क्योंकि उसे आठ पंजे दोनो तरह से मालूम था । एक आठ का सीधा पहाड़ा पढ़कर। दूसरा अस्सी का आधा करके। उसने बता दिया- चालीस।

गुरुजी ने कहा- “ठीक है, तो चौके भी बता दो।”

अभिनव को हँसी आ गयी। सारी कक्षा हँसने लगी। अभिनव शरमाकर बोला- “बत्तीस’।

गुरुजी ने कहा- “बेटे तुमने मना करते-करते छ: छलाँग लगा लिया। अब बचा चार। तो आप मुझे ये बताओ कि अभी भी तुम्हारे दिमाग पर बोझ है या सिर हल्का हुआ?” ।

अभिनव ने बड़ी मासूमियत से कहा- “हल्का हुआ।”

गुरुजी- “तो चलिए, कक्षा को ये बताइए कि आठ पंजे चालीस, तो आठ छक्के?”

अभिनव ने हौले से मुस्कराकर कहा- “चालीस और आठ – अड़तालीस ।’

गुरुजी– “बिल्कुल सही, कक्षा को बताओ कि अब कितने पायदान तुम्हे और चलने हैं? वह तुम खुद चलोगे या मेरे सहारे की जरूरत है?

अभिनव- “तीन ।” और उसने वह भी सुना दिए।

फिर गुरूजी ने उससे दो-दो बार उल्टे-सीधे वही पहाड़े सुने । और बताया कि अभिनव पहाड़े को एक ही बार में सीख जाना चाहता था। जब हम किसी समस्या को समग्र रूप से देखते हैं तो वह बड़ा लगता है। लेकिन जब हम उसके छोटे-छोटे भाग को हल करते चलते हैं तो वह आसान हो जाता है। इसके अलावा उन्होंने बताया कि दुनिया में ऐसे ही तमाम समस्याएं जिन्दगी में आती है। लोगों में उसे देखने का नजरिया अलग-अलग होता है। हमे अपने मन और मस्तिष्क को सही तरह प्रशिक्षित करते रहना चाहिए। ताकि हमारी बुद्धि किसी समस्या को मात्र तिनका समझने लगे। इस प्रकार समस्या खुद-ब-खुद बौनी हो जाती है। हमें जीवन की बाधाओं से विचलित नहीं होना चाहिए, वरन अपने ऊपर भरोसा करके आगे बढ़ते रहना चाहिए।

इस प्रकार अब नित्य-प्रति आयुष्मान गुरुजी अपने विषय को एक नये रूप में प्रस्तुत करते। जिससे छात्रों में विषय के प्रति अगाध रूचि उत्पन्न होने लगी। छात्रों के बौद्धिक स्तर की बोधगम्यता होने के कारण उनके हौसले बुलंद हो गये। अब उन्हें गुरुजी के पीरियड का इंतजार रहने लगा।

भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’