samadhi lekh
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भारत कथा माला

उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़  साधुओं  और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं

संपत्ति के नाम पर, तीन नीम के पेड़ थे जो बाबू राजेंद्र प्रसाद के हिस्से आए थे। हिस्से आए ये कहना शायद गलत होगा बल्कि उन्हें दिए गए थे। हिस्सा तो तब होता जब कोई बांट-बखरा होता, पर मुकदमे की गुंजाइश बनती, पंचायत बैठती या गांव में बड़े-बुजुर्ग बीच-बचाव कर किसी मान्य निर्णय पर पहुंचने की कोशिश करते। राजेंद्र प्रसाद के मामले में भी यह सब हुआ, लेकिन उनके चाचाओं के बीच। दोनों चाचाओं के बीच संपत्ति में बांट को लेकर चाहे जितनी मार-फौजदारी हो, इस बात पर जबरदस्त एका थी कि राजेंद्र प्रसाद का मौरूसी में कोई हक नहीं बनता है।

हालांकि क्यों नहीं बनता, पर दोनों के अपने-अपने तर्क और दावे थे और उस पर दोनों में रा. र-तकरार भी था। और अपने कई अपने आपको छला हुआ भी महसूस करते थे। दरअसल राजेंद्र प्रसाद के पिताजी उनमें चाचाओं में बड़े भाई थे। अपने इंतजाम के बाद सौतेले बड़े भाई हो गए थे। यह हकीकत उनके जीते जी किसी के ध्यान में नहीं था बल्कि यदि कोई भूले से भी इसका जिक्र भर कर देता तो दोनों भाई मरने-मारने पर उतारू हो जाते थे लेकिन उनके मरते ही जैसे उनकी अच्छाईयों, अपने छोटे भाइयों के लिए उनका समर्पण उनका त्याग सब कुछ मर गया था, और रह गया था सिर्फ यह नंगा तथ्य कि वे सौतेले थे। हालांकि सिर्फ सौतेला होने से राजेंद्र को संपत्ति से बेदखल नहीं किया जा सकता था बल्कि इस तथ्य से तो उनको दोनों भाइयों के बराबर अकेले ही हिस्सेदारी मिलती थी लेकिन इस तथ्य से परे दोनों चाचाओं के पास अपनी-अपनी कहानियां थीं और इन कहानियों के हिसाब से राजेंद्र के पिताजी ने अपने हिस्से की जमीन भी अपने दोनों छोटे भाइयों के नाम लिख दी थी जिससे वे अपनी पत्नी और बाद में अपना इलाज करवा पाए। इन कहानियों में बहुत झोल थे, बहुत दरारें थीं लेकिन राजेंद्र ने कभी इन दरारों को चौड़ा करने की कोशिश नहीं की।

इस मामले में वे अपने पिता के ही खून थे और गांव वालों के कई बार उकसाने, आग लगाने और चढाने के बावजूद उन्होंने आँख मूंदकर अपने चाचाओं की कहानियों पर भरोसा किया। वे अपने उन्हें गांव वालों से ही लड़ते रहे कि जिन चाचाओं ने उनके पिता के गुजरने के बाद पाल-पोस कर बड़ा किया, पढ़ाया-लिखाया अपने पैरों पर खड़ा होने के काबिल बनाया उन्हीं चाचाओं से वे लोग लड़वाने पर तुले थे हालांकि राजेंद्र का यह दावा कई अतिश्योक्तियों से भरा था। पाले-पोसे तो सिर्फ वे अपने पिताजी के समय ही गये थे, बल्कि गांव भर की पढ़ाई भी उन्होंने ही अपने जीते-जी करवा दी थी। उनके बाद तो वे लगभग टुअर ही हो गये थे। चाचाओं के घर में उनको खाना-कपडा यदि मिलता भी था तो सिर्फ इस लिहाज से कि दूसरों के दरवाजे पर खाने की चर्चा से उनके खानदान की नाक कटती थी। और इस भरण-पोषण की जिम्मेवारी के एवज में उनसे जो हाड़-तोड़ मेहनत कराई जाती थी उसकी चर्चा ही बेमानी थी।

ये तो लगभग तय ही हो चुका था कि उनकी बाकी जिंदगी अपने चाचाओं के बंधुआ मजदूर के रूप में ही बीतनी है लेकिन उनके एक कुटुंब ने उनको बचा लिया। दरअसल उन्हें नाच देखने की बहुत तेज खुड़क थी। गांव के दस-बीस कोस के दायरे में भी कोई नाच हो तो राजेंद्र प्रसाद की उपस्थिति वहां अपरिहार्य थी। अपनी इस आदत के लिए उन्होंने कितनी मार खाई, कितनी गालियां सुनीं, चाचियों के ताने झेले, अपने छोटे चचेरे भाई-बहनों की हिकारत सही लेकिन यह आदत उनसे नहीं छुड़वाई जा सकी बल्कि दिन-ब-दिन उनकी यह आदत हवस की तरह बढ़ने लगी। वे न सिर्फ नाच देखने जाने लगे बल्कि स्टेज पर छोटा-मोटा काम भी करने लगे। नाच में तो उनके लिए कुछ खास नहीं था लेकिन कोई नाटक-नौटंकी हो तो उनके काम का जलवा बढ़ जाता। वे नाटक-नौटंकी वालों का कोई भी काम करने को एक पैर पर तैयार रहते। पर्दा बांधने, स्टेज तैयार करने, लाइट पकड़ने, मेक-अप में मदद करने, माइक पर नाटक का प्रचार करने जैसे मख्य काम से लेकर कलाकारों के लिए बाजार से सौदा-सुलुफ लाने, उनके लिए कुएं से पानी भर देने, पेट्रोमेक्स में पंप भरने जैसे टहलुआ कामों के लिए भी उनका उत्साह देखने बनता था।

आखिर अपने ‘कुटुंब’ के प्रति इसी उत्साह ने उन्हें अपने चाचाओं की गुलामगिरी से मुक्त किया और एक नाटक कंपनी के साथ भागकर उन्होंने अपने जीवन की नई दिया और राह खोजने की कोशिश की। हालांकि नाटक कंपनी के साथ चले जाने में ‘भागने’ जैसा कुछ नहीं था, लेकिन उनमें चाचाओं ने उनके चले जाने को ‘भागने’ जैसे बदनाम जुर्म जैसी क्रिया में बदलकर एक साथ ही अपने जिम्मेवार होने का स्वांग रचने और उनमें वापसी के रास्ते बंद करने की एक साथ कोशिश की। अपनी इन कोशिशों में वे बहुत हद तक सफल भी हुए। बहुत दिनों तक राजेंद्र प्रसाद का नाम गांव के बच्चों के बीच गाली की तरह लिया जाता था। किसी बच्चे में नाच, नाटक के प्रति थोड़ी भी उत्सुकता देखकर साला, घर में राजेंद्र पैदा हो गया है, जैसा वाक्य ‘आम-फहम’ इस्तेमाल होता रहा लेकिन लगभग, लगभग दस वर्षों बाद जब राजेंद्र अचानक अपने गांव लौटे, तो उनका नाम ‘गाली’ नहीं बल्कि कुछ-कुछ गर्व करने लायक हो गया था। दरअसल वे अकेले नहीं आए थे, बल्कि एक फिल्म बनाने की पूरी यूनिट उनके साथ आई थी। तब लोगों को पता चला कि ये नाटक-नौटंकी सिर्फ गरियाने की चीज नहीं है, बल्कि यदि यही सच्ची श्रद्धा और लगन से किया जाए, तो गांव का लतमरूआ राजेंद्र भी सूट-बूट पहनकर विदेशी जैसे दिखते लोगों के बीच ‘राजेंद्र बाबू’ कहला सकता है। लोगों को यह जानकर तो लगभग गश ही आ गया कि इसी नाटक-नौटंकी में राजेंद्र बाबू बी.ए., एम.ए. पास हो चुके हैं और अब पी-एच.डी. करने वाले हैं। मतलब, जो बात पहले अभी ताना मारने जैसे अंदाज में कही जाती थी- बड़ा डॉ. राजेंद्र प्रसाद बन रहे हो, वह अब हकीकत बनने वाली थी।

हालांकि उस फिल्म की यूनिट में कोई हीरो-हिरोइन जैसा तामझाम नहीं था वह कोई डाक्यूड्रामा जैसा ही प्रोजेक्ट था, लेकिन पांच-सात दिनों में ही अपने शिड्यूल में वह राजेंद्र प्रसाद के प्रति गांव वालों का नजरिया और नजर दोनों बदलने के लिए पर्याप्त था। इतना पर्याप्त कि शिड्यूल के आखिरी दिन गांव में सरपंच ने यूनिट ने सम्मान में भोज का आयोजन भी किया और लगे हाथों राजेंद्र प्रसाद का नागरिक अभिनंदन भी कर डाला। जब इस अवसर पर राजेंद्र से भी कुछ कहने को कहा गया तो उनकी आवाज भर्रा गई आँखें डबडबा आई और वे सिर्फ अपने चाचाओं का गुणगान करके बैठ गए कि आज वे जो कुछ भी हैं अपने इन्हीं चाचाओं की बदौलत हैं। गांव वाले खासकर सरपंच उनके संघर्टी की कहानी सुनने को उत्सुक थे लेकिन राजेंद्र प्रसाद अब इतने समझदार और दुनियादार हो चुके थे कि उन्हें पता था कि यदि अपने संघर्षों का दस प्रतिशत भी उन्होंने बखान कर दिया कि किस तरह उन्होंने रिक्शा चलाया, मेस के बर्तन मांजे, और कभी-कभी भीख भी मांगा, तो फिर से गांव वालों का नजरिया बदलते देर नहीं लगेगी। उन्होंने एक बार किसी कार्यक्रम में ‘ओमपुरी’ को बोलते सुना था कि उन्होंने भी ढाबे में कप-प्लेट धोए थे, बर्तन मांजे थे, लेकिन ये सब बातें वे ‘ओम पुरी’ बनने के बाद बता पा रहे थे। आदमी जब बड़ा हो जाता है तो उसके सारे छोटे काम महान और प्रेरणादायी हो जाते हैं। असफल आदमी द्वारा किए गए वही काम हिकारत और जुगुप्सा पैदा करते हैं।

गांव वाले चाहे जितना चढ़ाएं, राजेंद्र प्रसाद इस बात को भली-भांति समझते थे कि अभी अपने संघर्षों के बखान का समय नहीं आया है, इसलिए वे बार-बार अपने संघष्ठों में जवाब में अपने पिता के अच्छे कर्मों और अपने चाचाओं के द्वारा दिए गए हौसले और संस्कारों की ही दुहाई देते रहे।

अपने किए गए अन्यायों का ऐसा भला प्रतिदान मिलता देख आ. खिर उनके चाचाओं को भी रोना आ गया। उन्हें लगा जैसे राजेंद्र के रूप में साक्षात उनके बड़े भाई खड़े हैं, आखिर क्या कुछ नहीं किया था उन्होंने उन दोनों के लिए, और आखिर क्या कुछ नहीं उठा रखा उन दोनों ने भी राजेंद्र को बरबाद कर देने के लिए। अपने अपराध बोध और पाप के भार के नीचे दबे दोनों चाचा लगभग अंकवार में भरकर राजेंद्र को अपने घर ले गए, और उसी रात बड़े चाचा ने ऐलान किया कि घर के दरवाजे से लगे हुए दिन गछिया में तीनों नीम के पेड़ बाबू राजेंद्र प्रसाद की संपत्ति हैं।

अपने चाचा का यह ऐलानिया बयान सुनकर पहले तो राजेंद्र यह समझ ही नहीं पाए कि आखिर वे किस चीज को संपत्ति बता रहे हैं। वे तीनों पेड़ लगभग उनकी उम्र के दुगुने रहे होंगे। पिताजी बताते थे कि उन्होंने अपने लड़कपन में अपने पिता यानी राजेंद्र के दादाजी की स्मति में ये पेड लगाए थे। बचपन से ही राजेंद्र उन पेड़ों को अपने बाप-दादा की तरह ही देखते आए थे। इन्हीं पेड़ों पर छुपकर उन्होंने बीड़ी पीना सीखा था, रात में जब वे दूर-दराज से नाच देखकर लौटते थे तो चाचाओं के डर से यही पेड़ उनका रैनबसेरा होता था। चाचा के खेतों में दिन-रात हाड़-तोड़ मेहनत करने के बाद जब वे रूखा-सूखा खाकर इन पेड़ों के नीचे खाट डालकर सोते थे तो उन्हें मां की गोद जैसी अनुभूति होती। अपनी किस्मत को कोसते हुए अपने बाब को याद करते हए अपनी अम्मा के लिए बिलखते हए कई रातें उन्होंने इन पेड़ों से लिपटकर काटी थीं। ये पेड़ तो उनमें अपने सगे-संबंधियों से बढ़कर है, बल्कि यूं कहें कि सिर्फ यही पेड़ एक संबंधी हैं। तो फिर ये आज उनकी संपत्ति कैसे हो गए? वे उजबक सा अपने चाचा का मुंह देखने लगे।

बेटा, ये ठीक है कि तुम्हारे पिताजी यानी बड़के भैया तुम्हारे लिए कुछ नहीं जोड़ सके लेकिन हम सब जानते हैं कि ये पेड़ उन्होंने ही लगाए थे, इसलिए उनके वारिस होने के नाते अब तुम ही इन पेड़ों के मालिक हो। छोटे चाचा ने जैसे उनकी जिज्ञासा का समाधान करते हुए समझाया।

लेकिन, चाचा, ये पेड़ तो हम लोगों के घर का ही हिस्सा है, आखिर हमारे घर को तो गांव में तिनगछिया घर कहा जाता है, बल्कि ये तीनों पेड़ तो इतने प्रसिद्ध हैं कि दूर-दराज वाले कभी-कभी अपने गांव को भी तिनगछिया वाला गांव कहते हैं? राजेंद्र प्रसाद की आवाज में अब भी आश्चर्य बरकरार था।

बबुआ, हम तुम्हारे लिए कुछ कर नहीं पाए, लेकिन ये पेड़ अब तुम्हारे ही हैं, तुम जैसा चाहो इनका उपयोग कर लेना। बड़े चाचा ने जैसे अपने सीने से कोई भार उतारते हुए कहा।

दूसरे दिन, जब राजेंद्र प्रसाद गांव से वापस जा रहे थे तो यह भार वाकई उनके सीने पर सवार था। जब नाटक-कंपनी के साथ उन्होंने पहली बार गांव छोड़ा था, तो जैसे उनमें पांवों में पंख थे, उन्हें एकदम यकीन था कि आगे जो कुछ होना-हवाना है, उनके जिम्मेवार सिर्फ उनके हाथ-पैर हैं लेकिन उन पेड़ों को उनकी संपत्ति घोषित कर, उनके चाचाओं ने जैसे उनके पैरों में जंजीर डाल दी। इन पेड़ों से इतना लगाव रखने के बावजूद, इतने दिनों तक उन्हें वाकई उनकी कोई याद नहीं थी, वे भी गांवों की बाकी चीजों की तरह सिर्फ उनकी स्मृति का हिस्सा थे, लेकिन आज जाते समय वे उन पेड़ों को वैसे निहार रहे थे, जैसे अपने बाबू से जाने का आशीर्वाद मांग रहे हों।

बाहर आने पर राजेंद्र को एहसास हुआ कि वे पेड़ सिर्फ उसके पैरों की ही नहीं बल्कि उसकी चेतना की भी जंजीर बन चुके हैं। ‘संपत्ति’ शब्द की तासीर ही शायद ऐसी होती है। जब तक वे सिर्फ पेड़ थे, बहुत आत्मीय और प्रिय होने के बावजूद पेड़ ही थे, लेकिन उनके संपत्ति घोषित होते ही वे खास और अहम वस्तु जैसे हो गए थे, जिसकी खोज-खबर रखनी जरूरी थी और हिफाजत की जिम्मेवारी भी।

अब तक के अपने जीवन संघर्ष में राजेंद्र प्रसाद को जब भी चुनौ. तियों का सामना करना पड़ा था उन्होंने अपने हाथ-पैरों पर ही यकीन किया था। ज्यादा-से-ज्यादा भाग्य, भगवान, नियति और कभी-कभी लोगों की दयालुता और जरूरत पर भी। लेकिन, अब गाहे-ब-गाहे अपनी परेशानियों के हल के रूप में वे उन नीम के पेड़ों को भी सोचने लगे थे। न सिर्फ सोचने लगे थे बल्कि लोगों से जिक्र भी करने लगे थे कि गांव की संपत्ति बेचकर वे कुछ नया करने की सोच रहे हैं। वैसे, नया करने लायक, उनके पास बहुत अवसर नहीं थे, लेकिन उपलब्ध अवसरों में ही उन्हें इस बात का जबर्दस्त आकर्षण था कि काश, उनके पास अपना कोई नया कैमरा होता। ड्रामा विभाग जिसके वे शोध छात्रा होने वाले थे, में कैमरा था जरूर लेकिन वह विशिष्ट अवसरों पर विशिष्ट लोगों द्वारा ही छुआ जाता था। राजेंद्र बाबू की बड़ी हसरत थी कि वे अपना कैमरा लेकर बिलकुल फिल्मकार, फिल्ममेकर की चलें। ऐसा कैमरा, जिससे वे फोटो तो खींच ही सके, वीडियो भी बना सकें, और कभी-कभी यदि उसे ट्राइ पॉड, या स्टैंड पर लगाकर भी यदि काम करने का अवसर मिल जाए तो फिर अब इस जीवन से उन्हें हसरतें ही कितनी रह जानी थीं। अपने कैमरे की योजना और उससे पाली गई हसरतों के लिहाज से मरा से मरा कैमरा भी एक लाख से नीचे का नहीं आता था। भाग्य-भगवान, नियति और अपने हाथ-पैरों की तमाम कोशिशों से राजेंद्र प्रसाद की हैसियत तीस-चालीस हजार तक ही जुगाड़ कर सकने की थी, ऐसे में इन तीन पेड़ों के उनके संपत्ति घोषित हो जाने से, उन्हें एक दम से उस अदृश्य सष्टिकर्ता और उसके नियंता पर यकीन हो आया कि है वह है, जिसने सबके माथे पर अदृश्य लिखावट से उसकी नियति लिखी है, वही है, जिसके कारण तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद, माकइल जैक्सन, पेले, और ओमपुरी पैदा होते हैं। जमाना चाहे, उन्हें कैसी गजालत दे, लेकिन वे अपनी इन्हीं अदृश्य लिखावटों से उभर ही आते हैं। बस एक संकेत, एक इशारा, एक मौका चाहिए होता है राजेंद्र प्रसाद को वह इसी तरह, नीम के पेड़ों के रूप में मिलना था, मिल गया।

अपने नियति में इन्हीं इशारों को समझते हुए वे एक सुबह अपने गांव पहुंच ही गए। अपने चाचाओं की फितरत को जानते हुए उन्होंने अपनी तरफ से कोई ढिलाई नहीं बरती थी। सरपंच साहब खुद उनके साथ थे और वह खरीदार भी जो उनके पेड़ों को खरीदने वाला था।

चाचा तो पहले उनका मंतव्य समझ ही नहीं पाए और जब समझे तो जैसे हजार बिच्छओं ने डंक मारा हो इस तरह तिलमिला उठे- साले बड़ा अकलमंद बने फिरते हो। बाप-दादा की संपत्ति कोई इस तरह बेचता है? कल तो घर-डीह में, खेत-बखार में हिस्सा मिलेगा तो उसको भी बेच खाओगे? यही संस्कार मिला है तुमको। चाचा अनर्गल सा चिल्लाने लगे। छोटे चाचा भी लगभग उसी सुर में साथ दे रहे थे- अच्छा किया था बड़े भाई साहब ने जो इसके लिए कुछ नहीं छोड़ा था, नहीं तो आज देखते वे भी कि कितना बड़ा कुलबोरन पैदा किया था उन्होंने।

राजेंद्र प्रसाद इन स्थितियों के लिए तैयार होकर आए थे। इसलिए अपने साथ सरपंच को लेकर आए थे। बात बढ़ती देख सरपंच ने समाधान सुझाया कि यदि वे लोग चाहते हैं कि ये नीम के पेड़ न बिके तो पंद्रह हजार प्रति पेड़ के हिसाब से वे राजेंद्र प्रसाद को पैंतालिस हजार का भुगतान कर दें। पेड़ का खरीदार भी इस बात की गवाही दे रहा था कि वह तो साठ हजार तक में खरीदने को तैयार था। सरपंच ने यह भी कहा कि सारे गांव के सामने उन दोनों भाइयों ने कबूला था कि ये पेड़ राजेंद्र प्रसाद की संपत्ति हैं इसलिए अब इस बात से मकरने का कोई मतलब नहीं। साथ ही थोड़े चेतावनी भरे स्वर में उसने यह भी जोड़ा कि पहले भी इस बच्चे यानी राजेंद्र प्रसाद के साथ बहुत अन्याय हो चुका है, अब वे देखेंगे कि इस बार उसके साथ न्याय हो।

वे नीम के पेड़ बड़े अच्छे थे, घने थे, छायादार थे। दोनों चाचाओं के बच्चे, फिर उनके बच्चे सब उसी की छाया में खेलकर बड़े हुए थे। चाचियां, उनकी बहुएं, सब अपना ज्यादा समय, उन्हीं के नीचे बिताती थी। उसमें झूले डाले जाते थे, ओल्हा पाती खेला जाता था, गाय-गोरू बांधा जाता था, नीम की पत्तियां बुहारकर जलाया जाता था जिससे मक्खी, मच्छर भागते थे। निबौलियां चुनकर खायीं जातीं। छटवाने पर जलावन भी निकल आता था। ये सब कुछ था लेकिन उसके लिए कभी पैसा देना पड़ सकता है, ये बात दोनों चाचा कभी समझ ही नहीं सकते थे। लिहाजा उन्होंने सरपंच के न्याय के जवाब में ऊपर वाले के न्याय की दुहाई दी और राजेंद्र को जो करना है करे के अंदाज में इस प्रकरण से अलग हो गए।

राजेंद्र सब सोच के ही आए थे, लेकिन उन्हें कहीं अंदर से लगता था कि शायद उनके चाचा पैंतालिस नहीं तो तीस हजार तक में तो मान ही जाएंगे। वे भी कहां चाहते थे कि ये पेड़ इस तरह से उनकी संपत्ति में बदलें। आखिर ये पेड़ उनके बाबू की आखिरी निशानी थे। वे अच्छी तरह जानते थे कि इन पेड़ों के कटते ही इस गांव से उनका नाम भी उखड़ जाना था। रात में सोते वक्त जब उनकी आठ साल की भतीजी अपना गुल्लक लेकर उनके पास आई थी कि चाचा इतने पैसों में क्या वह एक पेड़ छोड़ सकते हैं, जिस पर उसका झूला टंगा है, और वहीं उसने अपनी गुड़िया का ब्याह करना भी तय कर रखा है तो राजेंद्र प्रसाद बुक्का फाड़कर रो पड़े लेकिन ये रूलाई थोड़ी देर तक ही रही। अगले ही पल उन्होंने अपने जी को कड़ा कर लिया। ये भावनात्मक बातें हैं, कोरी भावुकता। उन्हें यथार्थ और वास्तविक स्थितियों पर कायम रहना चाहिए। आखिर उनके चाचाओं ने उन्हें बरबाद करने के लिए क्या कुछ नहीं किया। आज जब उन्हें अपना भाग्य बदलने का अवसर मिला है तो वे इसे इस तरह की बकवास और भावुकता भरी बातों से जाया नहीं कर सकते थे। दुनिया में सारे विकास इसी तरह के विनाश से ही संभव हए हैं। वे तो मात्र तीन पेड बेच रहे हैं इस दुनिया में, इस देश में तो लोगों ने क्या कुछ नहीं बेच दिया है। यदि दुनिया में इसी तरह लोगों ने सोचा होता तो आज भी दुनिया प्राक् इतिहास के युग से आगे नहीं बढ़ पाती। वे भी इसी दुनिया के आदमी हैं और उनको भी विकास करने का पूरा हक है और अपने विकास की शर्त भी कितनी छोटी है- सिर्फ तीन पेड़। जितनी बड़ी योजनाएं हैं उनकी, जितने बड़े सपने हैं, उसके लिहाज से तो उन्हें एक जंगल भी कम पड़ना चाहिए था। इन बड़ी बातों के साथ-साथ कुछ व्यावहारिक और ठोस बातें भी थीं कि इस समूचे पचड़े में सरपंच भी शामिल हो गया था। पेड़ों के खरीदार भी उसी ने ढूंढे थे, और पेड़ कटाई का अनापत्ति की गारंटी भी वही ले रहा था। शायद इसके एवज में वह दस-पांच हजार अग्रिम भी ले चुका था, ऐसे में, अब इस मामले से साफ अलग हो जाने का मतलब था- सरपंच से रार मोल लेना। वैसे जिस जीवन की कल्पना राजेंद्र प्रसाद ने की थी वहां सरपंच से ‘रार’ का कोई मतलब नहीं था, लेकिन वो इस दुनिया में प्रवेश ही कैसे कर पाएंगे। उस दुनिया में ‘कैमरे’ की ताकत से ही पहुंचा जा सकता था, और कैमरे तक पहुंच बनाने के लिए अपने आपको इस मोह माया से मुक्त करना ही था।

अंततः उन्होंने अपने सारे भ्रम सारे संदेह और मोह पर काबू पा लिया और अपने पेड़ अपनी संपत्ति सरपंच और ठेकेदार के हवाले कर ही दिया। केवल इतनी शर्त रखी उन्होंने कि ठेकेदार उन्हें पूरे पैसे एक साथ ही देगा और पेड़ की कटाई पंद्रह दिन बाद हो। उन्होंने सोच रखा था कि उन पैसों से वे तब तक कैमरा खरीद लेंगे और फिर उस कैमरे में वे कम से कम उन पेड़ों की फोटो तो सहेज ही लेंगे। मन ही मन उन्होंने एक डाक्यूमेंट्री का खांचा भी खींच लिया कि कैमरे के वीडियो वाले मोड़ से वे इन पेड़ों के इर्द-गिर्द भी घट रहे, जिए जा रहे जीवन की भी जीवंत वीडियो बना लेंगे। वे अपने चाचियों, भतीजियों से मनुहार करेंगे कि वे उन पेड़ों के नीचे उसी सहजता से जीवन जीने की एक्टिंग करें और उन्हें यकीन भी था कि थोड़े ना-नुकुर के बाद ‘फिलिम’ के नाम पर वे लोग मान भी जाएंगे। यदि ठीक से स्क्रिप्ट लिख ली गई तो ये पेड़ के वीडियो और उसकी कहानी ही उनको अपनी मनचाही दुनिया में धमाकेदार इंट्री दिला सकती है।

एकमुश्त अग्रिम रकम देने पर ठेकेदार आनाकानी कर रहा था ले. कन सरपंच की गारंटी पर तैयार हो गया। सरपंच ने यह भी समझाया कि पेड़ काटने का परमिशन लेने में ही पांच-सात दिन लग जाएंगे, और फिर बिक्री तो लिख ही रहा है राजेंद्र! सिर्फ पंद्रह दिन पेड़ न काटने की ही तो मोहलत मांग रहा है। सारा कुछ तय-तमाम करके राजेंद्र प्रसाद उत्फुलित मन से शहर रवाना हुए। उन्हें पक्का यकीन था कि एक सप्ताह के भीतर-भीतर ही वह अपने मनचाहे कैमरे के मालिक हो जाएंगे और फिर एक बार इन पेड़ों की तसवीर उतार लेने के बाद हमेशा-हमेशा के लिए अपने गांव को छोड़ देंगे। एक ख्याल तो यह भी आया कि उन पेड़ों के कटने का भी वीडियो वे शूट कर लेंगे लेकिन फिर उन्होंने इस ख्याल को झटक दिया अभी इतना कवरेज वे नहीं कर पायेंगे।

बाकी पैसों का इंतजाम करना उनके सोचे हुए से ज्यादा कठिन साबित हुआ लेकिन दस दिनों तक जोड़-जुगाड़ करके उन्होंने इसे जमा कर ही लिया और ठीक बारहवें दिन उनके हाथों में उनके भविष्य की तिलिस्मी दुनिया की चाबी थी-उनका कैमरा।

कैमरे की आँख से देखते ही उनको समूची दुनिया एक अदभुत रहस्य, रोमांच से भरी दिखाई देने लगी। यही धूप, यही पेड़, यही छांव, यही नहीं नंगी आँखों से कितनी साधारण और रोजमर्रा की चीज लगती है, लेकिन कैमरे की लैंस से देखते ही उसमें कितने रंग, कितनी चमक, कितने अर्थ भर जाते हैं। उनके हाथ बटन से उतर ही नहीं रहे थे। हर आम और साधारण चीज जो रोज उनकी आँखों के सामने नामालूम तरीके से गुजर जाते थे, वो सब उनको नायाब और असाधारण लग रहे थे। अपनी नई आँखों से इस नए संसार में ऊभ-चूभ कर रहे राजेंद्र प्रसाद को अचानक एक नया दृश्य सूझा। दरअसल वे मुगलसराय स्टेशन पर थे और गांव की तरफ जाने वाली ट्रेन का इंतजार कर रहे थे। ढलते दिन का समय था और प्लेटफार्म नं. बारह पर वैसी कोई भीड़ भी नहीं थी। वहां ‘मे आई हेल्प यू’ का एक कटरा जैसा बना था जिसमें एक महिला कांस्टेबल बैठी थी। कांस्टेबल वहां क्यों बैठी थी, इसे समझने के लिए थोड़ी दूर-दृष्टि की जरूरत थी, क्योंकि प्लेटफार्म के एक हिस्से में ‘फूट कार्नर’ की दुकान पर एक नौजवान हेड कांस्टेबल खड़ा था, जो कनखियों से उस ‘मे आई हेल्प यू’ के कटरा को देख रहा था। महिला कांस्टेबल को अपने देखे जाने का भान था, इसलिए वह बार-बार कई एंगल से अपना पहलू बदल रही थी। उन बदलते पहल. ओं पर उसके चेहरे का रंग भी बदल रहा था जो आम तौर पर पुलिस के चेहरों पर नहीं पाया जाता।

राजेंद्र प्रसाद बहुत देर तक अपनी नंगी आँखों से ही इस अद्भुत प्रसंग का मजा लेते रहे। मन ही मन वे कोई स्क्रिप्ट भी सोच रहे थे कि यदि पुलिसवालों की प्रेम कहानी पर कोई फिल्म बनाई जाए तो वह शर्तिया हिट रहेगी। उन्हें आश्चर्य भी हुआ कि हिंदी सिनेमा में अब तक पुलिस पर जितनी फिल्में बनाई गई हैं, सब में पुलिस वाले की प्रेमिका या पत्नी गैर पुलिसिया बैक ग्राउंड से है। वैसे ही यदि कोई हीरोइन भी यदि गलती से पुलिसवाली है तो उसका हीरो गैर पुलिस हैं अपने इसी उधेड़बुन में वे इस दृश्य को अपने कैमरे से देखने लगे। कैमरे से देखते ही उन्हें वह महिला कांस्टेबल एक अलग ही चरित्र दिखने लगी। ढलते सूरज की आभा उसके आधे चेहरे पर आ रही थी जिससे उसकी नाक में फंसा लौंग अद्भुत दीप्ति से चमक रहा था। धूप-छांह का ऐसा फोटोजेनिक चेहरा और दृश्य वे कतई अपने हाथ से नहीं जाने देना चाह रहे थे। साथ ही वे इस बात पर भी चौकन्ने थे कि यदि उस पुलिसवाली ने उन्हें फोटो उतारते देख लिया, तो कहीं वह चौकन्नी न हो जाए और जिस धूप-छांही दृश्य की वे फोटोग्राफी करना चाह रहे थे वह फ्रेम ही न टूट जाए, इसलिए वे थोड़ी आड़ लेकर अपना फ्रेम सेट कर रहे थे। एकदम सटीक दृश्य मॉनिटर पर उभरते ही उन्होंने जैसे ही क्लिक किया एक वजनदार हाथ उनके कंधे पर लगभग कस सा गया। दरअसल अपने फ्रेम बनाने के चक्कर में राजेंद्र प्रसाद उस जवान-जहान हेड कांस्टेबल को लगभग भूल ही गए थे जिसके कारण उस महिला कांस्टेबल के चेहरे पर वैसे फोटोजेनिक भाव आ रहे थे। यह भारी हाथ उसी का था।

  • ‘क्या कर रहा है बे? फोटू क्यों खेंच रहा है?’ हाथ के साथ-साथ जब उसकी भारी आवाज भी राजेंद्र प्रसाद ने सुनी तो एकबारगी उनका सारा रूमान उतर गया।
  • ‘वइच तो : मैं तब्बी से इसको ताड़ रई थी। साला कुछ तो भी भारी लोचा है।’ ‘मे आई हेल्प यू’ वाले कटरे से निकल के वह पुलिसवाली भी उसके पास आ गई थी। उसकी फंसी-फंसी आवाज में भी सामने वाले की कंपकपी छुड़ा देने की ताकत थी। राजेंद्र प्रसाद को तत्काल यह बात समझ में आ गई कि क्यों आखिर फिल्म में हीरो-हीरोइन दोनों पुलिसवाले नहीं होते हैं।
  • ‘नहीं साहब, कोई लोचा-वोचा नहीं है।’ मैं तो बस इनकी एक तसवीर उतारना चाहता था बस?
  • ‘क्यों? क्या ये ऐश्वर्या राय लगती तेरे को’ उस हेडकांस्टेबल ने उसका कंधा जोर से दबाते हुए कहा।
  • लेकिन वह पुलिसवाली अपने को ऐश्वर्या राय न सही कुछ तो समझती ही थी। हेडकांस्टेबल का इस तरह बोलना शायद उसे नागवार गुजरा। उसने मामले को अपने हाथ में लेने की कोशिश करते हुए पूछा- सच-सच बोल, किसके लिए काम करता है?
  • सवाल इस तरह से पूछा गया था कि जवाब राजेंद्र प्रसाद के गले में बलगम बनकर फंस गया। उन्हें एहसास हो गया कि वे बैठे-बिठाए किसी बड़े चक्कर में फंस गए हैं। वे किसी भी तरह इस झंझट से निकल जाना चाह रहे थे। एक स्टार ज्यादा देखकर उन्हें लगा कि यह हेडकांस्टेबल ही उन पर कुछ दया दिखा सकता है। वे एकदम रिरियाने की मुद्रा में आ गएनहीं सर! मैं किसी का आदमी नहीं हूं। मैं एक आम आदमी हूं। मैं तो सिर्फ कैमरे के लाइट एंड शेड के नजरिए से वो लगभग रूआंसे से हो गए, उनकी ऐसी हालत देखकर वह पुलिसिया थोड़ा पिघलता सा दिखा लेकिन उस महिला कांस्टेबल को फिर से मामला अपने हाथ से निकलता दिखा। उसे झल्लाहट हो रही थी कि जब फोटू उसकी खींची जा रही थी तो यह हेडकांस्टेबल क्यों खा-म-खा फुटेज खा रहा है? कहीं यह अपने स्तर से मामले को रफा-दफा ही न कर दे। उसने झट से चौकी इंचार्ज को फोन लगा दिया। चौकी इंचार्ज को जोर-जोर से अपनी आपबीती सुनाते हुए वह लगभग हेडकांस्टेबल को हड़का भी रही थी कि वह इस मामले में ज्यादा न ही पड़े तो अच्छा है।
  • साली, कुतिया, आ गई अपनी औकात पर? हेड कांस्टेबल दांत पीसते हुए भुनभुनाया लेकिन यह भी समझ गया था कि मामला उसके हाथ से निकल गया है।

एक घंटे के भीतर-भीतर राजेंद्र प्रसाद की भविष्य की दुनिया लगभग लुट चुकी थी। वे थाने ले जाए गए। हेड कांस्टेबल ने वहां थोड़ी वस्तुस्थिति स्पष्ट करने की कोशिश भी की, लेकिन यहां वह महिला कांस्टे. बल इस मामले को इस तरह सनसनीखेज और फाडू तरीके से बयान कर रही थी कि समूचा थाना उसे एक बड़ी घटना की तरह देख रहा था। थाना इंचार्ज ने डी.सी.पी. को फोन कर दिया और वो भी अपने दल-बल के साथ वहां पहुंच गए। वह महिला कांस्टेबल इतने बड़े-बड़े अधिकारियों के बीच अपने आपको केंद्र बिंदु मानकर फूले नहीं समा रही थी। वह सबके सामने शुरू से तफसील से बयान करने लगती कि कैसे वह ‘मे आई हेल्प यू’ वाले काउंटर पर बैठी थी और किस तरह उसने अपने जाल में फंसाकर इसको पकड़वाया। उसकी बातें सुनकर डी.एस.पी. ने हल्के से उसके गाल थपथपाए।

  • ‘तुम हो ही फंसने लायक! कोई भी फंस जाएगा।’

अपनी सफाई देते-देते राजेंद्र प्रसाद का गला फंस गया। इतनी बार वे अपनी स्थिति स्पष्ट कर चुके थे कि थाने में किसी भी नए आदमी को देखते ही अपनी सफाई देने लग जाते- ‘सर मैं तो सिर्फ लाइट एंड शेड में…’

दो दिन हो गए, राजेंद्र प्रसाद को थाने में। पुलिस अपनी छानबीन में कुछ भी पता नहीं कर पा रही थी। कैमरा छोड़कर राजेंद्र प्रसाद के पास से कुछ भी संदिग्ध बरामद भी नहीं हुआ था। फिर उनके पास उनके महा. विद्यालय का आइडेंटिटी कार्ड भी था। कैमरे के फोटोग्राफ भी बहुत अजीब थे। उसमें हरियाली, धूप, सड़क, नदी, नाला, और बच्चों की मुस्कुराहटें थीं : इससे राजेंद्र प्रसाद को नक्सली या आतंकवादी भी नहीं साबित किया जा सकता था। अंततः तीसरे दिन डी.एस.पी. ने एस.पी. के निर्देश पर उन्हें थाने से आजाद कर दिया लेकिन उसने उनका कैमरा रख लिया। उसका तर्क था कि इस कैमरे को ‘फोरेंसिक लैब’ भेजा जाएगा ताकि इस बात की तस्दीक हो सके कि इसमें कोई गुप्त चिप इत्यादि तो नहीं लगी है।

  • ‘सर, तब हमें क्यों छोड़ रहे हैं? कहीं इसमें कुछ निकल ही गया तो फिर आप हमें पकड़ेंगे कैसे?’
  • ‘साले, पकड़ तो तुम्हें हम पाताल से भी लेंगे, कहते हुए डी.एस.पी. ने उसके गाल थपथपाए। चल- अभी भाग यहां से।’

राजेंद्र प्रसाद भारी कदमों से थाने से बाहर आए। वे कहां जाएं ये तय नहीं कर पा रहे थे। रक्क-भक्क से वे फिर थाने में ही घस गए। डी. एस.पी. के हाथ पकड़कर लगभग गिड़गिड़ाने लगे- ‘सर, मेरा कैमरा मुझे दे दीजिए।’ मुझे नहीं दे सकते तो किसी को मेरे साथ भेजिए, मुझे एक बहुत जरूरी फोटो खींचनी है सर!

  • ‘भाग जा साले, शुक्र मनाओ कि सस्ते छूट गए, नहीं तो शक की बिनाह पे भी लोग जिंदगी भर एड़ियां रगड़ते रह जाते हैं, डी.एस.पी. ने अपनी तरफ से नरमी दिखाते हुए कहा। उसके इशारे पर एक सिपाही ने हाथ पकड़कर लगभग खींचते हुए थाने से बाहर निकाल दिया।

थाने के बाहर उस पुलिसिये ने ऐसे ही मजा लेते हुए पूछा- गुरु, इतना क्यों कौआ शोर मचा रहा है? आखिर किसकी फोटू खींचनी है कोई टंच माल है क्या? कह कर वह फिक्क से हँसा।

जवाब में राजेंद्र प्रसाद भी फिक्क से हँस दिए। वे चाहते भी तो क्या बता पाते और बता भी देते वह पुलिसिया क्या समझ पाता कि वह गांव में अपने पिता की स्मृति के आखिरी समाधि लेख वे नीम के पेड़ के फोटो क्यों खींचना चाहते थे? और यदि बाद में कैमरा मिल भी जाए तो वे समाधि लेख फिर से लिखे जा सकते हैं क्या?

भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’