बलदेव अपने माता-पिता की इकलौती संतान था। पिता ने बचपन में ही साथ छोड़ दिया और उसका पालन-पोषण मां के भरोसे हुआ। दूर-दूर तक स्कूल नहीं होने के कारण उस समय गांव का माहौल भी ऐसा नहीं था कि पढ़ाई-लिखाई के प्रति लोगों का रुझान हो। बलदेव के बचपन के समय कोई दो-चार कक्षा पढ़ लिए तो बहुत हो जाता था। मां बार-बार बलदेव को समझाती कि- देख बेटा… हमारे भाग्य में रोजी मजूरी कर कमाना लिखा है। पढ़-लिख कर क्या करेगा, तूने गांव के स्कूल में जितना जरूरत था उतना पढ़-लिख लिया अब आगे मेरे साथ हाथ बंटा।

बलदेव को मां समझाती, बेटा-लोगों के पास सब कुछ रहता है पर चैन से रहने के लिए छाया के लिए खुद का छत नहीं रहता। ऐसे लोग तो सुखी कम और दुखी ज्यादा रहते हैं। लेकिन ऊपर वाले की कृपा से चैन से छाया में रहने के लिए छत हमारे पास है, यही हमारे लिए बहुत बड़ी पूंजी है। बाकी हमारे पास हिम्मत और हाथ पैर सलामत हैं तो मानो सब कुछ है…। मेहनत मजदूरी करते कैसे भी करके दो जून की रोटी तो कमा ही लेंगे…! इससे ज्यादा और हमें कुछ नहीं चाहिए…।
बलदेव भी अब अपनी मां द्वारा मिली हिम्मत को आशीर्वाद मानकर मां की हां में हां मिलाकर उनके कामों में हाथ बंटाने लगा। देखते-देखते समय बीतता गया और बलदेव बड़ा हो गया। मां की उम्र अधिक होने के कारण बीमार भी रहती थी। इसलिए वह चाहती थी कि अब बेटे की शादी कर दूं। कुछ दिनों बाद मां की इच्छानुसार बलदेव की शादी पास ही के गांव में रूकमणी से हुई। विवाह के बाद बलदेव की पत्नी रूकमणी भी घर और बाहर के कामों में बराबर हाथ बंटाती। कुछ समय बाद बलदेव के घर एक बेटे का जन्म हुआ। उसने अपने बेटे का नाम किशोर रखा। इस समय तक चारों तरफ लोगों के रहन-सहन, खानपान में काफी बदलाव आ गया था। गांव हो या शहर, लड़का हो या लड़की, माता-पिता दोनों को बराबर मानकर पढ़ाने में ध्यान देने लगे थे। हर कोई बलदेव को भी यही कहते- तुम तो पढ़-लिख नहीं सके अब अपने बच्चों को अच्छे से पढ़ा-लिखाकर काबिल बनाना।

बलदेव और रूकमणी ने भी सोचा कि हम लोग तो पढ़-लिख नहीं सके, कम से कम बच्चों को पढ़ाकर अपना फर्ज पूरा कर लें। वैसे भी रूकमणी का मायका शहर से लगा होने के कारण बलदेव से ज्यादा पढ़ी-लिखी होने के कारण पढ़ाई के महत्त्व को समझती थी। इसलिए वह चाहती थी कि उसका एक बेटा है उसे अच्छे से पढ़ा-लिखा ले।

जैसे ही किशोर स्कूल जाने लायक हुआ बलदेव के दूसरे लड़के का जन्म हुआ। उसने उसका नाम मनोज रखा। बलदेव और रूकमणी अब रात-दिन अपने दोनों बच्चों को पढ़ाने-लिखाने में ध्यान देने लगे। बच्चे भी पिता बलदेव और माता रूकमणी की बातों को ध्यान से सुनते और अमल भी करते। किशोर और मनोज भी दोस्तों की संगत से दूर अपने काम से काम रखते। थोड़ा-बहुत घर के बाहर खेल लेते और फिर घर में मां के कामों में हाथ बंटाकर पढ़ाई करने लगते। जैसे-जैसे बच्चे बड़े होने लगे वैसे-वैसे उनकी समझदारी बड़ों जैसी होती जा रही थी। स्कूली शिक्षा अच्छे अंकों से पास करने के बाद शहर के कॉलेज में दोनों को दाखिला मिला।

निर्धन होने के कारण शासन से दोनों बच्चों को पढ़ाई के लिए छात्रवृत्ति भी मिलने लगी। दोनों बच्चों ने कॉलेज की पढ़ाई भी अच्छे अंकों के साथ पूरी कर ली। बच्चों की काबिलियत को देखकर मां-बाप खुश रहते थे। पढ़ाई पूरी होते ही शहर के अच्छे और बड़ी कंपनियों में दोनों बेटों की नौकरी दो साल के अंतराल में लग गई। माता- पिता बच्चों के साथ रहने लगे थे। माता-पिता चाहते थे कि अब गांव के कच्चे छोटे मकान को तोड़कर बड़ा मकान बना लें और बड़े बेटे की शादी कर अच्छी सी पढ़ी-लिखी बहू घर ले आएं…। बच्चों ने इस बात पर कहा कि हम लोग गांव से कोसों दूर शहर में रहने लगे हैं, किशोर कहीं और तो मनोज और कहीं…। मां और बाबूजी हम लोगों के साथ रह रहे हैं। आखिर मकान किसके लिए बनाएंगे? और बना लिए तो कौन रहेगा? मकान का कौन उपयोग करेगा? बिना देख-रेख के कितना भी अच्छा मकान हो खंडहर होने में देर नहीं लगेगी। ऐसे अनेक सवाल-जवाब के बीच सहमति बनी, जब गांव में हमें मकान की जरूरत होगी, कभी भी बना लेंगे अभी तो हमें इसकी आवश्यकता दूर-दूर तक नजर नहीं आ रही है। इस तरह विचार मंथन के बाद शादी के लिए, केवल शादी के लिए सहमति बनी।

किशोर का विवाह अच्छे घराने से तय होने के बाद गांव के मनोरंजन भवन में धूमधाम से शादी की रस्म पूरी हुई। बलदेव के चचेरे भाई ने गांव में विवाह की सारी जिम्मेदारी अच्छे से की थी। कुछ वर्षो बाद मनोज का भी विवाह हो गया। नियति ऐसी बनी कि नौकरी के दौरान रूकमणी के दोनों बेटों का तबादला दो-तीन वर्षों में होना तय रहता था, इसके साथ ही आए दिनों कंपनी के काम से दौरे पर ही रहना होता था। इसका परिणाम यह हो रहा था कि दोनों बेटों का किसी भी स्थान पर स्थाई ठिकाना नौकरी के दौरान होना असंभव-सा लग रहा था। दोनों बहुएं समझदार थीं। वे चाहती थीं कि उनके सास-ससुर भी साथ रहें। वे अपने सास-ससुर का माता-पिता के समान ही आदर सत्कार करती थीं और चाहती थीं कि उन्हें दूर-दूर तक गांव की याद न सताए। सास-ससुर भी बहुओं को बेटी जैसा सम्मान देते थे। इस तरह सुखपूर्वक सबका जीवन कटने लगा और किसी चीज की कमी महसूस नहीं होती थी।

किशोर और मनोज का तबादला होने के बाद जहां भी जाते अच्छा सा कमरा देखकर किराए पर लेना उनकी मजबूरी रहती थी। वह चाहते तो थे कि कहीं अच्छी-सी जगह देखकर मकान बना लें या मकान खरीद लें, लेकिन चाहकर भी ऐसा नहीं कर पा रहे थे। किशोर और मनोज तबादला होने के बाद दूसरे शहर के जिस मकान को किराए पर लेते उस मकान मालिक का व्यवहार भी घर के सदस्यों जैसा होता। घर को छोड़ते समय मालिकों की आंखें नम हो जाती और वे मन से उन्हें विदा करते। अपनी छाया में माता-पिता ने बच्चों को जो संस्कार दिए उन्हें बच्चे भूल नहीं पाए हैं। इस कारण परिवार के सभी सदस्य घर खाली करते समय वहां धरती को प्रणाम कर बाहर निकलते और कहते- हे धरती माता अपने इस गर्भ में हमें इतने दिनों तक बिना किसी तकलीफ के रहने दिया, हम लोग कितने भाग्यशाली हैं कि तुम्हारे पालने में कभी यहां… तो कभी वहां… रहने का सौभाग्य मिल रहा है। तेरे आंचल में यहां जितने भी दिन रहे उसके लिए हम आपके आभारी हैं।

माता-पिता भी कभी-कभी सोचते- इससे तो अच्छा था, कि हम अपने गांव के छोटे से कवेलू के मकान में खुश रहते थे। हमें कोई यह तो नहीं कहता था कि यह तुम्हारा मकान नहीं हैं। अपना… आखिर, अपना… होता है। भले हमें यहां कोई कुछ नहीं कहता फिर भी कब कौन मकान खाली करने को कह दे… कब कौन मकान के अंदर हमारे अधिकारों के लिए लकीर खींच दे… ऐसे अनेक प्रश्न अनायास ही मन में घिर जाते। किशोर और मनोज दोनों मिलकर माता-पिता को समझाते, हमारे पास सब कुछ है। अच्छी नौकरी, अच्छा पैसा, शान-शौकत… अब रही बात मकान की तो, अगर किस्मत में रहेगा… तो समय आने पर वह भी हो जाएगा। आखिर मकान हमारे पहुंच में नहीं है ऐसा तो नहीं है। आज यहां तो कल वहां और परसों कहीं… जिंदगी ही भागदौड़ है… ऐसे में कर भी क्या सकते हैं? जैसा भी हो अपना मकान नहीं सही… पर रह तो चैन से रहे हैं…। धरती तो आखिर हम सबकी ही माता है। हम जब तक हैं हमारा अधिकार है…। आज किसी का इसमें अधिकार है कल किसी का हो जाएगा… परसों किसी और का…। ईट-गारा और पत्थर से मिट्टी पर बना मकान कितना भी मजबूत क्यों न हों? उसे अंत में मिट्टी में ही मिल जाना है। मेहनत से तिनका-तिनका जोड़कर बनाए मकान को छोड़कर हमें भी मिट्टी में ही मिल जाना है। इसलिए उस मां का सम्मान करें कि किराए का घर ही सही… अपने आंचल में हमें कभी दुखी तो नहीं होने दिया।

इधर माताजी कुछ दिनों तक अस्वस्थ रहने के बाद इस दुनिया को छोड़ कर चली गई। पिता अकेले से महसूस करने लगे। उसे अपने पुराने घर की याद आने लगती… पर क्या करें…! चाहकर भी वहां जा नहीं सकता। शरीर थक चुका है… जीवन संगिनी साथ छोड़ चुकी है… बेटे अपने कामों में लगे रहते हैं। जैसे-तैसे उनके दिन कटने लगे। पहले कम से कम साल में एक-दो बार घंटे दो घंटे गांव जाकर वहां की माटी को अपने माथे से लगाकर लौट आते। गांव का घर देखरेख के अभाव में जर्जर होकर टूटने लगा था। इधर बलदेव का शरीर जर्जर होना और उधर मकान का…। चाहकर भी कुछ करने की स्थिति में नहीं रहे, बेटा-बहू न पिता…। कुछ दिनों बाद मकान खंडहर में तबदील भी हो गया। यह बात बलदेव के बेटों को पता था लेकिन पिता की अवस्था को देखते हुए उसे बताना उचित नहीं समझ रहे थे।

बलदेव मानों अब टूट-सा गया था। खाली विचारों के उतार-चढ़ाव में अपने को समेट चुके थे। अंत में असहनीय होने पर अपने सभी परिवार के लोगों को बुलाकर अपने मन की बात रखना चाहा। बलदेव के कहने पर सभी एक जगह एकत्र हुए…। बलदेव रूंधे गले से कहने लगे… मेरे प्यारे बेटा-बेटी… पोते-पोती…। मुझे अंतिम समय में अब अपने घर की छाया में सुकून मिलेगा, मुझे वहां जाने दो… मेरा मन बहुत दिनों से गांव जाने का हो रहा है…। मुझे बेचैनी सी होने लगी है… मुझे यह महल नहीं… अपना छोटा सा आशियाना ही मेरे मन को शांति देगा… मैंने अपने मन की बात कह दी…। अब तुम लोग जैसा चाहो…। बेटों ने मिलकर कहा… बाबूजी हम आपको गांव छोड़ आएंगे तो लोग क्या कहेंगे…! बुढ़ापे में मरने के लिए पिता को अकेले छोड़ दिया…। कुछ रीति-रिवाज और धर्म भी हैं जिन्हें निभाना भी हमारी जिम्मेदारी है। अब आप ही बताएं… आखिर गांव के उस घर को बनाकर भी क्या करें? किसके लिए बनाएं… बना भी देंगे तो कौन रहेगा? बच्चों ने पिताजी को समझाते हुए कहा- बाबूजी और मां ने कितने कष्ट सहकर हमें पढ़ाया-लिखाया, अच्छी नौकरी के काबिल बनाया, इतने अच्छे पदों पर नौकरी कर रहे हैं। अब आपको अपने बच्चों के सहारे की जरूरत है।

आपको तो बच्चों की जरूरत है और बच्चों को बाबूजी की… ऐसे में हम लोग एक दूसरे से पास नहीं रहकर, दूर-दूर रहेंगे… तो किसे अच्छा लगेगा। बाबूजी भी बच्चों की भावनाओं का हमेशा सम्मान करते रहे हैं और इस समय बच्चे अभी जो कह रहे हैं वह जायज भी है…। अंत में काफी सोच विचार करने के बाद सभी ने मिलकर फैसला लिया कि हम लोग कुछ दिनों छुट्टी बिताने के लिए बाबूजी के साथ गांव जाकर अपनी यादों को ताजा करेंगे। इससे हमारे अंदर उठ रही जिज्ञासा भी शांत होगी, फिर उसके बाद सोचेंगे आगे क्या करना है? इस बात पर सभी की सहमति बनी। तय अनुसार बच्चों की गर्मियों की छुट्टियां हो गई। बच्चे भी अपने दादा और पिता की जन्मभूमि को देखने के लिए लालायित थे। बलदेव अपने गांव जाने के लिए काफी खुश नजर आ रहा था। हर दिन सुबह उठकर कैलेंडर देखकर समय काटता जाता, जैसे-जैसे दिन कटता जाता उसका दिन मानों गांव जाने के लिए नजदीक आता-जाता। गांव जाने से पहले गांव में बलदेव के भतीजे को आने की खबर दे दी गई। वह अपने घर में चाचा के परिवार को रहने-खाने का उचित व्यवस्था करने में जुट गया। वह अब गांव का सरपंच भी था। जिस दिन गांव जाने के लिए निकले, बलदेव अपने बच्चों का घर छोड़ने के पहले अच्छी तरह से निहारने लगे। मानो उस घर से कुछ कह रहे हों… बच्चे भी कुछ समझ नहीं पाए… और पहले की तरह उस घर की मिट्टी को माथे पर लगाकर निकल पड़े अपनी पैतृक छाया में सुकून पाने। रास्ते भर अपने पोते-पोतियों के साथ खूब मस्ती और हंसी मजाक में लगे रहे…। गांव पहुंचने पर लोगों ने बलदेव को रुकने का इशारा कर रोक लिया…। देखते-देखते गांव के लोग इकट्ठा हो गए…। गांव का सरंपच बलदेव का भतीजा अपने चाचा के परिवार को देखकर काफी खुश हुआ…। जैसे ही गाड़ी से बलदेव उतरा वह अपने गांव की पावन मिट्टी को माथे से लगाता इतना खुश हुआ कि मानों बरसों पहले की खोई हुई कोई अनमोल वस्तु मिल गई हो…। बलदेव का भतीजा परिवार के सभी सदस्यों को ससम्मान अपने घर लेकर गया। खाने-पीने के बाद बलदेव अपने घर जाने के लिए जिद करने लगा। बलदेव का परिवार और उसका भतीजा किसी तरह हिम्मत जुटाकर उस घर की ओर चल पड़े जहां कभी बलदेव सुकून से अपने घर की छाया में रहता था। बलदेव की याददाश्त भी इस समय कमजोर हो चुकी थी। सभी चाहते थे कि बलदेव को किसी कवेल वाले घर ले जाकर उसकी आत्मा को ठंडक पहुचाएं। पर वे इस मंशा में कामयाब नहीं हुए। लेकिन बलदेव की याददाश्त इतनी थी कि वह अपने उजड़े मकान की जगह को पहचान गया… बेबस… लाचार सा इधर-उधर टपकते आंसू से निहारते मानो कुछ न कहते हुए भी बहुत कुछ कहते जा रहे थे… वे सबको नजर उठाकर देख रहे थे पर सबकी नजरें झुकी हुई थी…। लाचार तन को लोगों ने अब तक तो रोक लिया… पर उसके मन को कोई रोक न सका… और वे बेबाक कहने लगे… मेरा घर… मेरी छाया… आज नहीं है…। ठीक है मेरा है ही नहीं तो कहां रहेगा…? खुले आसमान को एकटक निहारते हुए बोले, विधाता ने आज मेरी आंखें खोल दी। ऐसे घर का मालिक बनने का क्या जब शरीर ही मानों किराए का और चंद दिनों का मेहमान हो…। लोगों को लग रहा था कि बलदेव कुछ कह रहें है पर हम लोग सुन नहीं पा रहें हैं। पास जाकर देखे तो आंखें तो खुली थी पर आवाज हमेशा के लिए बंद…। बेटों ने अपने पिता की आंखें बंद कीं और ईश्वर के आगे नतमस्तक होकर जुट गए अंतिम संस्कार के लिए ।