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Best Hindi Story: अपर्णा के प्रति सास-ससुर का यह प्रेम अकारण नहीं था। ब्याह कर आने के बाद अपर्णा ने इस घर के पोर-पोर में खुशियों के फूल जो खिला दिए थे। अपने व्यवहार से सभी का दिल जीत लिया था।

अपर्णा पूरे पांच साल बाद ससुराल आई थी आज। मायके से आते वक्त रास्ते भर सोचती रही थी कितना बदल गया होगा वह घर, जिसमें छह साल रहकर निकली थी। लेकिन जब ‘घर’ पहुंची
तो देखा दरवाजे, सांकल, पर्दे, पेंट सब कुछ बिल्कुल वैसे के वैसे। अपर्णा की नजर दीवार पर लगे उसके पैर के छाप पर पड़ी। पहली बार जब उसने इस घर में कदम रखे थे तो सासू मां ने उसे घर
की लक्ष्मी कहकर आरती उतारी और उसके पैरों को रंगों से भरी थाल में भिगो कर उसके छाप सफेद तख्त पर ले लिए थे। बाद में उन्हें वहीं सामने के हॉल में खूंटी पर मेढ़ा कर टांग दिया
था। कितना उल्लास, रौनक और चहलपहल से भरा हुआ था वह दिन। और आज! घर में पसरे मातम भरे सन्नाटे में उसकी स्मृतियां तार-तार हो गई।

अपर्णा पर नजर पड़ते ही बलदेव पुरोहित हुलस कर लपके। जैसे कितने दिनों से उसकी ताक में चौखट पर नजरें गड़ाएं बैठे हों। बिना एक शब्द कहे उसे पकड़ अपने कमरे में ले गए। वहां पलंग पर उनकी धर्मपत्नी सवितादेवी निढाल पड़ी थीं। ‘आंखें खोलो विजय की मां, देखो तो कौन आया है?’ बलदेव ने सयास अपने चेहरे पर मुस्कान लाते हुए कहा। अपने भीतर की सारी ऊर्जा को खींच
चेहरे पर एकत्र करते हुए सविता देवी ने आंखें खोल दीं।
‘कौन? तुम आ गई बहू!’ सविता देवी के होठ बुदबुदाए तो अपर्णा ने भी अपना हाथ उनके हाथ में रखकर उसे कसकर पकड़ लिया।

‘जी, मां जी।’
मरते हुए को हाथों का संबल भी कई बार मौत के द्वार से वापस खींच लाता है। जैसे अभी-अभी सविता देवी अपनी बहू के स्पर्श से मौत के रास्ते पर बढ़ते-बढ़ते कुछ पल को ठहर सी गई
थी।
‘कब से तुम्हारी राह देख रही थी बहू।’ सविता देवी ने एक कराह के साथ अपर्णा की हथेलियों को दबा
दिया।
अपर्णा की ननद रीना कल ही दिल्ली से कानपुर आ गई थी। बेटा विजय कई दिनों से कामकाज छोड़ दिन-रात मां की सेवा में ही लगा रहता था। लेकिन सविता को तो जैसे अपर्णा के सिवा कोई नाम ही नहीं सूझता था। जब से बिस्तर पर पड़ी एक ही रट लगा लिया। ‘मेरी बहू को वापस लाओ। मुझे बहू से मिलना है।’
‘भाभी अब आप आ गई हो तो देखना मां कैसे ठीक होती हैं।’ रीना ने एक झूठी दिलासा अपर्णा की ओर लुढ़काकर बातचीत का सिलसिला आगे बढ़ाना चाहा।
अपर्णा ने भी एक संक्षिप्त मुस्कान से पिछले पांच वर्षों से पड़ी धुंध छांटने का प्रयत्न किया।
कुछ देर में रीना चाय बनाकर ले आई। अपर्णा को अजीब लग रहा था। जिस घर की वह लक्ष्मी थी उस घर को ही छोड़कर निकल गई थी।
कितने साल बीत गए उसे नाराज होकर यहां से गए मगर आज लौटी तो किसी के चेहरे पर उसके प्रति रत्ती भर नाराजगी न देखकर वह हैरान थी। उसे तो लगा था बाबूजी उलाहना देंगे, ननद मुंह बिचकाकर बात करेगी। सासु मां डांटेगी। मगर यहां तो सब ऐसे बोल रहे जैसे कुछ हुआ ही न हो। उसे चाय का कप उठाने में संकोच हो रहा था। फिर भी रीना के सहज स्नेह को वह नकार न सकी।

अपर्णा के प्रति सास-ससुर का यह प्रेम अकारण भी तो नहीं था। ब्याह कर आने के बाद अपर्णा ने इस घर के पोर-पोर में खुशियों के फूल जो खिला दिए थे। अपने व्यवहार से सभी का दिल जीत लिया था। रात को जब सब साथ खाना खाने बैठते तो बात-बात में अपर्णा बाबूजी की प्लेट में एक रोटी और रख देती। बाबूजी मना करते रहते। फिर भी थोड़ी और सब्जी परोस देती। बाबूजी कहते, ‘अपर्णा जैसी लक्ष्मी घर में आ जाए तो किसी को बुढ़ापे में रोना न पड़े।’ अचानक परिवार की खुशी पर मानो किसी की नजर लग गई। कोई पांच साल पहले एक दिन अपर्णा और विजय में किसी बात को लेकर कहासुनी हो गई। कई दिनों तक अनबन बनी रही। न विजय मानता था और न अपर्णा झुकने को तैयार हुई। खटपिट बढ़ती गई। आखिरकार एक दिन अपर्णा ने अपना सूटकेट बांधा और बेटी प्रियांशी को लेकर मायके चली गई।

Best Hindi Story
Shresth Kahani

अपर्णा को कुछ अपने परिवार वालों की हैसियत का दंभ था तो विजय को भी मर्द होने का गुमान। उसके जाने के बाद विजय ने अपनी मां से कह दिया, ‘अपर्णा अपनी मर्जी से गई है तो अपनी मर्जी से ही आएगी। मैं उसे बुलाने नहीं जाऊंगा।’ उधर अपर्णा ने भी ठान ली, ‘विजय जब तक आकर सॉरी नहीं
बोलते, वापस नहीं जाऊंगी।’ बेटी प्रियांशी छोटी थी बहुत, मगर नानानानी के घर अपने दादा-दादी को याद कर अक्सर ही रो पड़ती। सविता देवी भी पोती को यादकर तड़प उठती।
जब तक थी गौरैया की भांति पूरे बरामदे में फुदकती रहती थी। उसके अचानक चले जाने से जैसे सविता देवी की जिंदगी की रेल चलते-चलते ठहर सी गई थी। बलदेव भी घर की लक्ष्मी के इस तरह रूठने से आहत थे। जब तब विजय से कहते, ‘पति-पत्नी के बीच नोकझोंक तो होती रहती है लेकिन
रिश्तों में लाठी सी अकड़ नहीं, मूंज सी लचक होनी चाहिए।’ लेकिन विजय के ऊपर तो जैसे कोई जिद्दी साये का फेर हो गया था।

पिछले दो साल से दोनों परिवारों में कोई आना-जाना नहीं था। अपर्णा की अनुपस्थिति विजय को
शारीरिक और मानसिक तौर पर अखर रही थी। विजय दिनब- दिन कमजोर और चिड़चिड़ा
होने लगा था। काम में कम मन लगाता था। अक्सर सिगरेट फूंक कर अपनी फिक्र को
भुलाने की कोशिश करता।

तनातनी में पांच साल गुजर गए। बलदेव कई बार अपनी बहू को लिवाने गए लेकिन हर बार अपर्णा ने यह कह कर उन्हें लौटा दिया कि जब विजय आएंगे लेने, तभी चलूंगी। पिछले दो साल से दोनों परिवारों में कोई आना-जाना नहीं था। अपर्णा की अनुपस्थिति विजय को शारीरिक और मानसिक तौर पर अखर रही थी। विजय दिन-ब-दिन कमजोर और चिड़चिड़ा होने लगा था। काम में कम मन लगाता था। अक्सर सिगरेट फूंक कर अपनी फिक्र को भुलाने की कोशिश करता। अपर्णा मायके के दंभ में चली तो गई लेकिन कुछ दिन बाद ही वहां रहना उसे बोझ-सा लगने लगा था। अपर्णा के पिता को रिटायरमेंट के बाद पेंशन मिलता था मगर पेंशन के पैसों को खर्च करने का काम बड़े भाई दिवाकर का था। अपर्णा को जब-तब अपने व्यक्तिगत खर्चों और बेटी की पढ़ाई के लिए भाई से पैसे मांगने में झिझक होती, हालांकि दिवाकर उसे कुछ पैसे हर माह देता मगर उतने पूरे न पड़ते।
कभी-कभी अपर्णा को अपने किये पर पछतावा होता पर इस बात को वह कभी जाहिर न करती। दुनिया के सामने तो वह एक झूठे अभिमान को आड़े रखकर अपने सही-गलत फैसलों पर
अड़ी रही।

सविता देवी के बीमार होने के बाद बलदेव ने कई बार अपनी बहू के पास वापस लौट आने का संदेशा भिजवाया।
अपर्णा ने सोचा जब इतने दिन मैं नहीं झुकी तो आगे भी नहीं झुकूंगी और हर बार वह दृढ़ता से इंकार कर देती। मगर आज बलदेव फोन पर अपर्णा से बात करते-करते रो पड़े, ‘बहू मरते हुए इंसान को तो दुश्मन भी देखने चला जाता है और फिर तुम्हारी मां ने तो तुमसे कोई झगड़ा नहीं किया। वह तुमको ही देखने की जिद करती है।
इसलिए तुमसे विनती कर रहा हूं कि कुछ घंटों के लिए ही आ जाओ।’

बाबूजी की आवाज सुनकर आज अपर्णा के भीतर वर्षों से जमा कोई पत्थर जैसे पिघल सा गया। वह फोन का रिसीवर थामे एकदम मौन हो अपने भीतर हो रहे बदलाव को मानो मूक सहमति देती रही। अगले ही पल जब बाबूजी ने अपनी आवाज से अपर्णा को पुन: झकझोरा तो पुरानी, हठी अपर्णा
टूटकर गिर चुकी थी। एक सिसकी के साथ तमाम पीड़ाओं की शिलाएं चटखकर बिखर गईं और अपर्णा ने तड़पकर बाबूजी को कहा, ‘मैं आ रही हूं बाबूजी।’
अपर्णा देर तक सासू मां के सिरहाने उनका हाथ थामे बैठी रही। उसकी ननद रीना ने उसे बीच-बीच में कुछ लाकर थमा देती। बाबूजी भी वहीं बैठे हुए थे। सब थे मगर विजय जाने कहां छिपा हुआ था। अपर्णा कई बार चोर नजरों से घर के दौरे कर चुकी थी। कहीं कोई हलचल होती तो उसकी
आंखें उस ओर ऐसे लपक पड़ती जैसे भूखा भोजन की ओर लपकता है। उसे पता था कि विजय जानबूझ कर बाहर नहीं आ रहा।

बातचीत करते कई घंटे गुजर चुके थे। सांझ का हिंडोला आसमान में पश्चिम दिशा की ओर झूलने लगा था। अपर्णा के आने से घर में छाई मनहूसियत दुपककर कहीं कोने बैठ गई थी। दो दिन से बंद सविता देवी की आंखें टुकुर-टुकुर देखने लगी थीं। बलदेव ने न जाने क्यों अपने बलहीन
शरीर में अजीब सी स्फूर्ति महसूस की।
रात का खाना रीना ने ही बनाया। अपर्णा ने गेस्ट रूम में जाकर कपड़े बदल लिये थे। आते-जाते एक दो बार विजय की हल्की सी झलक भी मिली। वह जितना विजय के कमरे की तरफ जाती उससे मिलने की तड़प उतनी ही बढ़ जाती। जाने विजय उसके बारे में क्या सोच रहा होगा। सामने पड़ेगा
तो कितना गुस्सा दिखायेगा। कान पकड़कर माफी मांग लूंगी। नहीं तो कसकर गले लग जाऊंगी।
सारी नाराजगी को एक चुम्बन देकर दूर कर दूंगी। मां के बिस्तर के पास से हटते ही
अपर्णा को विजय के ख्यालों ने पूरी तरह घेर लिया।

कुछ देर बाद सबने वहीं बरामदे में ही खाना खाया। रीना विजय की प्लेट उसके कमरे में थमाकर आ गई थी। अपर्णा चाहती थी कि कोई उसे कहे जाकर विजय को खाना दे आओ। मगर ऐसा न हुआ।
‘जानती हो बहू तुम्हारे आने से आज घर में ठीक से चूल्हा चल गया।’ बाबूजी ने अपर्णा की ओर उम्मीद से आंखें फैलाए कहा। अपर्णा कुछ बोल न सकी। बस मुस्करा दिया। अपर्णा की नजर विजय के कमरे की ओर ही टिकी थी। शायद खाना खाकर विजय बाहर निकले। मगर कुछ ही मिनट में

अपर्णा देर तक सासू मां के सिरहाने उनका हाथ थामे बैठी रही। उसकी ननद रीना ने उसे बीच-बीच में कुछ लाकर थमा देती। बाबूजी भी वहीं बैठे हुए थे। सब थे मगर विजय जाने कहां छिपा हुआ था।

रीना विजय की खाने की प्लेट वापस लेकर आ गई। ‘क्या हुआ रीना? प्लेट वापस क्यों ले
आई?’ बलदेव बुदबुदा। ‘भइया को भूख नहीं।’ रीना ने कुछ उदास होकर कहा। ‘तीन दिन हो गए। विजय ने ठीक से एक निवाला भी नहीं लिया है।’ बलदेव ने अपर्णा की ओर देखते हुए कहा तो
अपर्णा अपराधबोध से भर उठी। जैसे इस मुश्किल घड़ी में विजय के साथ न होने का उसे मलाल हो उठा। इसके बाद अपर्णा से भी रोटी नहीं खाई गई। रात अपर्णा और रीना गेस्ट रूम में साथ ही लेटे। न रीना की आंखों में नींद थी और न ही अपर्णा की आंखें झपकने को राजी थीं। बातों-बातों में रीना ने अपर्णा से कहा, ‘भइया से अब तक नाराज हो क्या भाभी?’
अपर्णा को इस सवाल का कोई जवाब नहीं सूझा तो उसने कह दिया, ‘नाराज तो तुम्हारे भइया हैं।’
‘भइया नाराज नहीं हैं। वो तो कब से तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं। अब आई हो तो उनके पास भी नहीं जाओगी क्या?’
रीना की बात सुनकर अपर्णा की आंखों में आंसू चुहचुहा पड़े, कंठ में कांटे उग गए और जुबान तालू से चिपक गई जैसे कितने दिनों का गम इक्कठा होकर आज आंखों के रास्ते निकल जाने को व्याकुल हो उठा हो। भाभी को देखकर रीना अपने बिस्तर से उठ बैठी। भाभी को कलेजे से लगाया
तो अपर्णा एक सिसकी के साथ रो पड़ी।

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‘मैंने भी उनको बहुत याद किया। बहुत-बहुत-बहुत।’ बस इतना ही कहा था अपर्णा ने कि रीना उसका हाथ पकड़ खींचती हुई उसे विजय के कमरे में ले गई। विजय बिस्तर पर औंधे मुंह पड़ा हुआ था जैसे अनगिनत त्रासदियों की चपेट में आया हुआ कोई हराभरा पेड़ जड़ से उखड़कर ढह गया हो। रीना
ने एक फीकी मुस्कान अपर्णा के चेहरे पर डाली और आंखों के इशारे से कुछ कह कर चली गई।
अपर्णा का सारा गुस्सा उसके रोमरोम को सिहराता हुआ काफूर हो गया था। जिस तरह विजय पड़ा था बिल्कुल वैसे ही अपर्णा भी उसकी बगल में ढह गई। विजय पलटा तो अपर्णा के आंसू न रुक सके। कैसा सूखकर कांटा हो गया था हट्टा-कट्टा विजय। आंखें धंसी, होठ पपड़ाए और गाल पिचक कर सूखा छुहारा हो गए थे। बस एक सॉरी की जिद ने क्या से क्या कर दिया। मेरे रहते हुए भी विजय की दशा विधुर जैसे हो गई है।
उसने अपनी दोनों हथेलियों को उसके गालों पर रखा तो विजय ने भी उसे अपने बाहों के घेरे में ले लिया। अब दोनों सुबक रहे थे। अपर्णा के दिल को चीरती हुई एक महीन सी आवाज विजय के कानों में गूंज उठी, ‘सॉरी।’