माता पिता बड़े कष्ट उठाकर अपनी संतान को पालते पोसते हैं और समय समय पर उनकी हर ज़रूरत को पूरा करते हैं.उन्हें इस लायक बनाते है कि वो एक दिन अपने पैरों पर खड़े होकर समाज में अच्छा मुक़ाम हासिल करें.ऐसे में संतान का भी दायित्व है कि वो वृद्धावस्था में अपने परिजनों की हर ज़रूरत का ख्याल रखें. कोई भी संतान अपने माता पिता के प्रति इसे नैतिक दायित्व से भाग नहीं सकता.

विदेशों में तो वृद्ध माता माता को वृद्धाश्रम में भेजने की परम्परा  काफ़ी पुरानी है. वहाँ की सरकार भी इनकी देखभाल का दायित्व अपने ऊपर लेती है.कुछ दम्पत्ति तो स्वेच्छा से अपनी युवावस्था में ही अपना  बुढ़ापा वृद्धाश्रम में बिताने की योजना बना लेते हैं,लेकिन हमारे देश में अभी तक( अपवाद छोड़ कर) माता पिता के देखभाल की ज़िम्मेदारी उसकी संतान पर ही होती है,वो भी बेटे पर.

हमारे समाज में बेटों को ही इसके लिए ज़िम्मेदार बताया जाता है क्योंकि बेटों से वंश आगे बढ़ाता है.कुछ बेटे ख़ुशी से ये दायित्व ,अपने कंधों पर ओढ़ लेते हैं तो कुछ,मजबूरी से ,और कुछ समाज के डर से भी .यहाँ तक कि अदालत द्वारा निर्देश देने पर कुछ बेटों को अपने माँ-बाप को गुज़ारा भत्ता देते देखा गया है.

दूसरे ,इस सोच का कारण,हमारी संस्कृति,और रूढ़िवादी परम्पराएँ भी हैं जिनके तहत,लड़की का घर उसका ससुराल होता है,ना कि मायका.ब्याह के बाद उसे,सब पराया समझते हैं .माता पिता अपनी परेशनियाँ बेटी को बताने से कतराते हैं. सीमित समय तक ही बेटी अपने मायके में रह सकती है.माता पिता का भी बेटी के घर रहना,यहाँ तक कि पानी पीना तक वर्ज़ित माना गया है.शायद इसीलिए ही उसकी ज़िम्मेदारी कम बताई जाती है.

लेकिन ,यह बात कहाँ तक उचित है कि,चाहे बेटे की आर्थिक स्थिति सही न हो या,उसके घर का वातावरण माता पिता को सही लगता हो या न लगता हो फिर भी माँ बाप,घिसट घिसट कर ,मृत्यु पर्यन्तअपना बुढ़ापा बेटे के घर में ही काटे?क्या ये ज़रूरी नहीं है कि,माता पिता की ज़िम्मेदारी ,बेटा और बेटी मिलकर निभाएँ.बल्कि उचित मायनों में तो यह कहना चाहिए कि आज हर क्षेत्र और हर कार्य में ,लड़का लड़की दोनों एक दूसरे से कंधे से कंधा मिलाकर चल रहे हैं और लड़कियाँ किसी भी श्रेणी में लड़कों से कम नहीं हैं चाहे वो सफलता और उन्नति की बात हो या फिर माँ बाप की सेवा करने की.

 ये भी नहीं कि बेटियाँ इस दायित्व से दूर भाग रही हैं. ऐसे कई उदाहरण इस समाज में देखे जा सकते हैं,जिनकी इकलौती लड़कियाँ ही माता पिता के बुढ़ापे में उनके सभी काम करती हैं,बल्कि बेटों से बेहतर.यहाँ तक कि लड़कियाँ अपने माता पिता का ध्यान रखने के लिए विवाह तक नहीं करतीं तो फिर? ऐसी सोच क्यों रखी जाय कि माता पिता की सेवा सिर्फ़ बेटे को ही करनी चाहिए या माता पिता सिर्फ़ उसी की ही ज़िम्मेदारी हैं.?

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