Hindi Katha: वैकुंठ में एक बार भगवती लक्ष्मी को चिंतित देखकर भगवान् विष्णु बोले “कल्याणी ! तुम चिंतित क्यों हो? तुम्हारा मुखमण्डल भी तेजहीन प्रतीत हो रहा है। क्या किसी ने तुम्हारा अपमान करने का दुःसाहस किया है अथवा हमसे अनजाने में कोई अपराध हो गया है। कृपया बताओ देवी ?”
भगवान् को प्रणाम कर देवी लक्ष्मी बोलीं’भगवन् ! आप समस्त लोकों के स्वामी हैं। आप ही अंश रूप में विद्यमान होकर सृष्टि की रचना, पालन और संहार करते हैं। आप देवगण, ऋषि, मुनि, नाग, यक्ष और मनुष्य – सभी के लिए पूजनीय हैं। आप ही समस्त विद्याओं और ज्ञान के जन्मदाता हैं। आपके चरण- कमलों के समक्ष तीनों लोकों का ऐश्वर्य भी तुच्छ है। प्रभु ! मेरे हृदय में एक संदेह उत्पन्न हो रहा है और उसी के कारण मैं चिंतित हूँ। कृपया आप उसका निवारण कीजिए। भगवन् ! पृथ्वी लोक, जो परम दुर्लभ कर्म भूमि है, लोभ और मोह से ग्रसित हो गई है। इसके फलस्वरूप वहाँ काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार का वास हो गया है। मनुष्य आपकी माया से मोहित होकर धर्म-कर्म से विरक्त हो गए हैं। फिर ऐसे में उन्हें अज्ञानरूपी अंधकार से मुक्ति कैसे मिल सकती है? भगवन् ! यह योगमाया आपके द्वारा ही रचित है, इसलिए मेरे इस संदेह का समाधान आपके अतिरिक्त कोई और नहीं कर सकता ।
लक्ष्मी का प्रश्न सुनकर भगवान् विष्णु प्रसन्न होकर बोले – “कल्याणी ! तुम्हारा यह प्रश्न समस्त प्राणियों के लिए कल्याणकारी है, इसलिए मैं इसका उत्तर अवश्य दूँगा। देवी ! समस्त तीर्थों में पुरुषोत्तम (पुरी) नामक तीर्थ सबसे श्रेष्ठ और पुण्यकारी है। वह अत्यंत सुंदर, रमणीय, सुखपूर्वक सेवन करने योग्य, अनायास- साध्य तथा उत्तम फल प्रदान करने वाला है। तीनों लोकों में उसके समान पुनीत अन्य कोई तीर्थ नहीं है। इस तीर्थ के नाम उच्चारण मात्र से ही मनुष्य के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। भगवती ! उस तीर्थ को मैंने अभी तक गुप्त रखा है। इसी कारण उसके बारे में देवता, दैत्य तथा मरीचि आदि प्रजापति भी भली-भाँति नहीं जानते । यद्यपि उस तीर्थ की महिमा इतनी अपार है कि शब्दों में उसका वर्णन नहीं किया जा सकता, फिर भी मैं तुम्हें उसके विषय में बताता हूँ। देवी ! दक्षिण समुद्र के तट पर एक विशाल वट का वृक्ष है। वह वटवृक्ष कल्प का संहार होने पर भी नष्ट नहीं होता। उस वृक्ष के दर्शन और उसकी छाया में जाने से ब्रह्म-हत्या जैसे घोर पाप भी नष्ट हो जाते हैं। जो प्राणी उसकी परिक्रमा कर मस्तक झुकाकर उसे प्रणाम करते हैं, वे पापरहित होकर मेरे धाम को प्राप्त करते हैं । उस वट-वृक्ष के निकट ही एक विशाल महल खड़ा है, वह धर्ममय स्थान है। वहाँ इन्द्रनील मणि से बनी मेरी प्रतिमा का दर्शन कर मनुष्य मेरे धाम में चले जाते हैं। इस प्रकार जब समस्त प्राणी मेरी प्रतिमा के दर्शन कर मेरे परमधाम पधारने लगे, तब विधि का विधान भंग होने लगा। पापी मनुष्य भी पापमुक्त होकर स्वर्ग के अधिकारी बनने लगे। तब एक दिन यमराज ने मुझसे उस इन्द्रनीलमयी प्रतिमा को अदृश्य करने की प्रार्थना की। उनकी प्रार्थना पर मैंने उस प्रतिमा को अदृश्य कर दिया और उन्हें दक्षिण दिशा का स्वामी नियुक्त कर दिया। इस प्रकार अब मनुष्य उस प्रतिमा को नहीं देख पाते ।
