मनहर ने अनुरक्त होकर कहा-यह सब तुम्हारी कुर्बानियां का फल है वागी, नहीं तो आज मैं भी किसी अँधेरी गली में किसी अंधे मकान के अंदर अपनी अँधेरी जिंदगी के दिन काटता होता। तुम्हारी सेवा और उपकार हमेशा याद रहेंगे। तुमने मेरा जीवन सुधार दिया-मुझे आदमी बना दिया।
वागेश्वरी ने सिर झुकाए हुए नम्रता से उत्तर दिया- यह तुम्हारी सज्जनता है मालू, मैं बेचारी भला तुम्हारी जिन्दगी क्या सुधारूंगीा? हां, तुम्हारे साथ मैं भी एक दिन आदमी बन जाऊंगी। तुमने परिश्रम किया, उसका पुरस्कार पाया। जो अपनी मदद आप करते हैं, उनकी मदद परमात्मा भी करते हैं, अगर मुझ जैसी गंवारिन किसी और के पल्ले पड़ती, तो अब तक न जाने क्या गत बनी होती।
मनहर मानो इस बहस में अपना पक्ष-समर्थन करने के लिए कमर बाँधता हुआ बोला- तुम जैसी गंवार पर मैं एक लाख सजी हुई गुड़ियों और रंगीन तितलियों को न्यौछावर कर सकता हूँ। तुमने मेहनत करने का वह अवसर और अवकाश दिया, जिसके बिना कोई सफल हो ही नहीं सकता। अगर तुमने अपनी अन्य विलास- प्रिय, रंगीन-मिज़ाज बहनों की तरह मुझे अपने तकाजों से दबा रखा होता, तो मुझे उन्नति करने का अवसर कहां मिलता? तुमने मुझे वह निश्चिंतता प्रदान की, जो स्कूल के दिनों में भी न मिली थी। अपने और सहकारियों को देखता हूँ तो मुझे उन पर दया आती है। किसी का खर्च पूरा नहीं पड़ता। आधा महीना भी नहीं जाने पाता और हाथ खाली हो जाता है। कोई दोस्तों से उधार माँगता है, कोई घरवालों को खत लिखता है। कोई गहनों की फिक्र में मरा जाता है, कोई कपड़ों की। कभी नौकर की टोह में हैरान, कभी वैद्य की टोह में परेशान। किसी को शान्ति नहीं। आए दिन स्त्री-पुरुष में जूते चलते रहते हैं। अपना जैसा भाग्यवान तो मुझे कोई दिखाई ही नहीं पड़ता, मुझे घर के सारे आनंद प्राप्त हैं और जिम्मेदारी एक भी नहीं। तुमने ही मेरे हौसले को उभारा। मुझे उत्तेजना दी। जब कभी मेरा उत्साह टूटने लगता था, तो तुम मुझे तसल्ली देती थी। मुझे मालूम ही नहीं हुआ कि तुम घर का प्रबंध कैसे करती हो? तुमने मोटे-से-मोटा काम अपने हाथों से किया, जिससे मुझे पुस्तकों के लिए रुपए की कमी न हो। तुम्हीं मेरी देवी हो और तुम्हारी बदौलत ही आज मुझे यह सौभाग्य प्राप्त हुआ है। मैं तुम्हारी इन सेवाओं की स्मृति को हृदय में सुरक्षित रखूंगा वागी, और एक दिन वह आएगा, जब तुम अपने त्याग और तप का आनंद उठाओगी।
वागेश्वरी ने गदगद होकर कहा- तुम्हारे ये शब्द मेरे लिए सबसे बड़े पुरस्कार हैं, मानू। मैं और किसी पुरस्कार की भूखी नहीं। मैंने जो कुछ तुम्हारी थोड़ी-बहुत सेवा की, उसका इतना यश मुझे मिलेगा, मुझे तो आशा भी न थी।
मनहरनाथ का हृदय इस समय उदार भावों से उमड़ा आ था। वह यों बहुत ही अल्पभाषी, कुछ रूखा आदमी था और शायद -वागेश्वरी को मन में उसकी शुष्कता पर दुःख भी हुआ हो, पर इस समय सफलता के नशे ने उसकी वाणी में पर-से लगा दिये थे। बोला- जिस समय मेरे विवाह की बातचीत हो रही थी।
मैं बहुत शंकित था। समझ गया कि मुझे जो कुछ होना था, हो चुका। अब सारी उम्र देवीजी की नाजबरदारी में गुजरेगी। बड़े-बड़े अंग्रेज़ विद्वानों की पुस्तकें पढ़ने से मुझे भी विवाह से घृणा हो गई थी। मैं इसे उम्र- कैद समझने लगा था, जो आत्मा और बुद्धि की उन्नति का द्वार बंद कर देती है, जो मनुष्य को स्वार्थ का भक्त बना देती है, जो जीवन के क्षेत्र को संकीर्ण कर देती है, मगर दो ही चार मास के बाद मुझे अपनी भूल मालूम हुई। मुझे मालूम हुआ कि सुभार्या स्वर्ग की सबसे बड़ी विभूति है, जो मनुष्य के चरित्र को उज्ज्वल और पूर्ण बना देती है, जो आत्मोन्नति का मूल-मंत्र है। मुझे मालूम हुआ कि विवाह का उद्देश्य भोग नहीं, आत्मा का विकास है।
वागेश्वरी की नम्रता और सहन न कर सकी। वह किसी बात के बहाने से उठकर चली गयी।
मनहर और वागेश्वरी का विवाह हुए तीन साल गुजरे थे। मनहर उस समय एक दफ्तर में क्लर्क था। सामान्य युवकों की भांति उसे भी जासूसी उपन्यासों से बहुत प्रेम था। धीरे-धीरे उसे जासूसी का शौक हुआ। इस विषय पर उसने बहुत- सा साहित्य जमा किया और बड़े मनोयोग से उसका अध्ययन किया। इसके बाद उसने इस विषय पर स्वयं एक किताब लिखी। इस रचना में उसने ऐसी विलक्षण विवेचन-शक्ति का परिचय दिया, उसकी शैली भी इतनी रोचक थी, कि जनता ने उसे हाथों-हाथ लिया। इस विषय पर वह सर्वोत्तम ग्रंथ था।
देश में धूम मच गई। यहाँ तक कि इटली और जर्मनी जैसे देशों से उसके पास प्रशंसा-पत्र आए, और इस विषय की पत्रिकाओं में अच्छी-अच्छी आलोचनाएँ निकलीं। अन्त में सरकार ने भी उसकी गुण-ग्राहकता का परिचय दिया-उसे इंग्लैंड जाकर इस कला का अभ्यास करने के लिए छात्रवृत्ति प्रदान की। और, यह सब कुछ वागेश्वरी की सत्प्रेरणा का शुभ फल था।
मनहर की इच्छा थी कि वागेश्वरी भी साथ चले, पर वागेश्वरी उसके पाँव की बेड़ी न बनना चाहती थी। उसने घर रहकर साख-ससुर की सेवा करना उचित समझा।
मनहर के लिए इंग्लैंड एक दूसरी ही दुनिया थी, जहाँ उन्नति के मुख्य साधनों में एक रूपवती पत्नी का होना भी था। अगर पत्नी रूपवती है, चपल है, चतुर है, वाणी-कुशल है, प्रगल्भ है, तो समझ लो कि उसके पति को सोने की खान मिल गई, अब वह उन्नति के शिखर पर पहुँच सकता है। मनोयोग और तपस्या के बूते पर नहीं, पत्नी के प्रभाव और आकर्षण के बूते पर। उस संसार में रूप और लावण्य, व्रत के बंधनों से मुक्त, एक अबोध सम्पत्ति थी। जिसने किसी रमणी को प्राप्त कर लिया, उसकी मानो तकदीर खुल गई। यदि कोई सुंदरी तुम्हारी सहधर्मिणी नहीं है, तो तुम्हारा सारा उद्योग, सारी कार्यपटुता निष्फल है, कोई तुम्हारा पुरसाहाल न होगा। अतएव वहाँ लोग रूप को व्यापारिक दृष्टि से देखते थे।
साल ही भर के अंग्रेजी समाज के संसर्ग ने मनहर की मनोवृत्तियों में क्रांति पैदा कर दी। उसके मिज़ाज में सांसारिकता का इतना प्राधान्य हो गया कि कोमल भावों के लिए यहाँ कोई स्थान ही न रहा।
वागेश्वरी उसके विद्याभ्यास में सहायक हो सकती थी, पर उसे अधिकार और पद की ऊँचाइयों पर न पहुँचा सकती थी। उसके त्याग और सेवा का महत्त्व भी अब मनहर की निगाहों में कम होता जाता था। वागेश्वरी अब उसको एक व्यर्थ-सी वस्तु मालूम होती थी, क्योंकि उसकी भौतिक दृष्टि में हर एक वस्तु का महत्त्व उससे होने वाले लाभ पर ही अवलम्बित था। अपना पूर्व जीवन अब उसे हास्यप्रद जान पड़ता था। चंचल, हँसमुख, विनोदिनी अंग्रेज युवतियों के सामने वागेश्वरी एक हलकी, तुच्छ-सी वस्तु जान पड़ती। इस विद्युत-प्रकाश में वह दीपक अब मलिन पड़ गया था। यहाँ तक कि शनैःशनैः उसका वह मलिन प्रकाश भी लुप्त हो गया। मनहर ने अपने भविष्य का निश्चय कर लिया। वह भी एक रमणी की रूप- नौका द्वारा ही अपने लक्ष्य पर पहुँचेगा। इसके सिवा और कोई उपाय न था।
रात के नौ बजे थे। मनहर लंदन के एक फैशनेबल रेस्तरां में बना-ठना बैठा था। उसका रंग-रूप और ठाट-बाट देखकर सहसा यह कोई नहीं कह सकता था कि वह अंग्रेज नहीं है। लंदन में भी उसके सौभाग्य ने उसका साथ दिया था। उसने चोरी के कई गहरे मामलों का पता लगा दिया था, इसलिए उसे धन और यश, दोनों ही मिल रहा था। वह अब वहाँ के भारतीय समाज का एक प्रमुख अंग बन गया था, जिसके आतिथ्य और सौजन्य की सभी सराहना करते थे। उसका लबो-लहजा भी अंग्रेजों से मिलता-जुलता था। उसके सामने मेज़ की दूसरी और एक रमणी बैठी हुई उसकी बातें बड़े ध्यान से सुन रही थी। उसके अंग-अंग से यौवन टपका पड़ता था। भारत के अद्भुत वृत्तान्त सुन-सुनकर उसकी आँखें खुशी से चमक रही थी। मनहर चिड़िया के सामने दाने बिखेर रहा था।
मनहर- विचित्र देश है जेनी, अत्यंत विचित्र। पाँव-पाँच साल के दूल्हे तुम्हें भारत के सिवा और कहीं देखने को न मिलेंगे। लाल रंग के कामदार कपड़े, सिर पर चमकता हुआ लम्बा टोप, चेहरे पर फूलों का झालरदार बुरका, घोड़े पर सवार चले जा रहे हैं। दो आदमी दोनों तरफ से छतरियाँ लगाए हुए हैं। हाथों में मेंहदी लगी हुई।
जेनी- मेंहदी क्यों लगाते हैं?
मनहर- जिससे हाथ लाल हो जाएं। पैरों में भी रंग भरा जाता है। उंगलियों के नाखून लाल रँग दिये जाते हैं। वह दृश्य देखते ही बनता है।
जेनी- यह तो दिल में सनसनी पैदा करने वाला दृश्य होगा। दुल्हन भी इसी तरह सजायी जाती होगी।
मनहर- इससे कई गुना अधिक। सिर से पाँव तक सोने-चाँदी के जेवरों से लदी हुई। ऐसा कोई अंग नहीं, जिसमें दो-दो, चार-चार गहने न हों।
जेनी- तुम्हारी शादी भी उसी तरह हुई होगी। तुम्हें तो बड़ा आनंद आया होगा?
मनहर- हां, वही आनंद आया था, जो तुम्हें मेरी- गो-राउण्ड पर चढ़ने में आता है। अच्छी-अच्छी चीजें खाने को मिलती हैं, अच्छे-अच्छे कपड़े पहनने को मिलते हैं। खूब नाच-तमाशे देखता था और शहनाइयों का गाना सुनता था। मजा तो तब आता है, जब दुल्हन अपने घर-से विदा होती है। सारे घर में कुहराम मच जाता है। दुल्हन हर एक से लिपट-लिपटकर रोती है, जैसे मातम कर रही हो।
जेनी- दुल्हन रोती क्यों है?
मनहर- रोने का रिवाज चला आ रहा है। हालांकि सभी जानते हैं कि वह हमेशा के लिए नहीं चली जा रही है, फिर भी सारा घर इस तरह फूट-फूटकर रोता है, मानो वह काले पानी भेजी जा रही हो।
जेनी-मैं तो इस तमाशे पर खूब हंसू।
अजहर- हंसने की बात ही है।
जेजी- तुम्हारी बीवी भी रोयी होगी?
