आधी रात का समय था। मगर लखनऊ की तंग गलियों में खूब चहल-पहल थी। ऐसा मालूम होता था कि अभी 9 बजे होंगे। सराफे में सबसे ज्यादा रौनक थी। मगर आश्चर्य यह था कि किसी दूकान पर जवाहरात या गहने नहीं दिखायी देते थे। केवल आदमियों के आने-जाने की भीड़ थी। जिसे देखो पाँचों शस्त्रों से सुसज्जित मूँछें खड़ी किये ऐंठता हुआ चला जाता था। बाजार के मामूली दूकानदार भी निःशस्त्र न थे।
सहसा एक आदमी भारी साफा बाँधे पैर की घुटनियों तक नीची कबा पहने कमर में पटका बाँधे आ कर एक सराफ की दूकान पर खड़ा हो गया। जान पड़ता था कोई ईरानी सौदागर है। उन दिनों ईरान के व्यापारी लखनऊ में बहुत आते-जाते थे। इस समय ऐसे आदमी का आ जाना असाधारण बात न थी।
सराफ का नाम माधोदास था। बोला-कहिए मीर साहब कुछ दिखाऊँ
सौदागर-सोने का क्या निर्ख है
माधो-(सौदागर के कान के पास मुँह ले जाकर) निर्ख की कुछ न पूछिए। आज करीब एक महीना से बाजार का निर्ख बिगड़ा हुआ है। माल बाजार में आता ही नहीं। लोग दबाये हुए हैं। बाजार में खौफ के मारे नहीं लाते। अगर आपको ज्यादा माल की दरकार हो तो मेरे साथ गरीबखाने तक तकलीफ कीजिए। जैसा माल चाहिए लीजिए। निर्ख मुनासिब ही होगा। इसका इतमीनान रखिए।
सौदागर-आजकल बाजार का निर्ख क्यों बिगड़ा हुआ है
माधो-क्या आप हाल ही में वारिद हुए हैं
सौदागर-हाँ मैं आज ही आया हूँ। कहीं पहले की-सी रौनक नहीं नजर आती। कपड़े का बाजार भी सुस्त था। ढाके का एक कीमती थान बहुत तलाश करने पर भी न मिला।
माधो-इसके बड़े किस्से हैं कुछ ऐसा ही मुआमला है।
सौदागर-डाकुओं का जोर तो नहीं है पहले तो यहाँ इस किस्म की वारदातें न होती थीं।
माधो-अब वह कैफियत नहीं है। दिनदहाड़े डाके पड़ते हैं। उन्हें कोतवाल क्या बादशाह-सलामत भी गिरफ्तार नहीं कर सकते। अब और क्या कहूँ। दीवार के भी कान होते हैं। कहीं कोई सुन ले तो लेने के देने पड़ जायँ।
सौदागर-सेठ जी आप तो पहेलियाँ बुझवाने लगे। मैं परदेसी आदमी हूँ यहाँ किससे कहने जाऊँगा। आखिर बात क्या है बाजार क्यों इतना बिगड़ा हुआ है नाज की मंडी की तरफ गया था। सन्नाटा छाया हुआ है। मोटी जिंस भी दूने दामों पर बिक रही थी।
माधो (इधर-उधर चौकन्नी आँखों से देख कर)-एक महीना हुआ रोशनुद्दौला के हाथ में सियाह-सफेद का अख्तियार आ गया है। यह सब उन्हीं की बदइंतजामी का फल है। उनके पहले राजा बख्तावरसिंह हमारे मालिक थे। उनके वक्त में किसी की मजाल न थी कि व्यापारियों को टेढ़ी आँख से देख सके। उनका रोब सभी पर छाया हुआ था। फिरंगियों पर उनकी कड़ी निगाह रहती थी। हुक्म था कि कोई फिरंगी बाजार में आवे तो थाने का सिपाही उसकी देखभाल करता रहे। इसी वजह से फिरंगी उनसे जला करते थे। आखिर सबों ने रोशनुद्दौला को मिला कर बख्तावरसिंह को बेकसूर कैद करा दिया। बस तब से बाजार में लूट मची हुई है। सरकारी अमले अलग लूटते हैं। फिरंगी अलग नोचते-खसोटते हैं। जो चीज चाहते हैं उठा ले जाते हैं। दाम माँगो तो धमकियाँ देते हैं। शाही दरबार में फरियाद करो तो उलटे सजा होती है। अभी हाल ही में हम-सब मिल कर बादशाह-सलामत की खिदमत में हाजिर हुए थे। पहले तो वह बहुत नाराज हुए पर आखिर रहम आ गया। बादशाहों का मिजाज ही तो है। हमारी सब शिकायतें सुनीं और तसकीन दी कि हम तहकीकात करेंगे। मगर अभी तक वही लूट-खसोट जारी है।
इतने में तीन आदमी राजपूती ढंग की मिर्जई पहने आ कर दूकान के सामने खड़े हो गये। माधोदास उनका रंग-ढंग देख कर चौंका। शाही फौज के सिपाही बहुधा इसी सज-धज से निकलते थे। तीनों आदमी सौदागर को देख कर ठिठके पर उसने उन्हें कुछ ऐसी निगाहों से देखा कि तीनों आगे चले गये। तब सौदागर ने माधोदास से पूछा-इन्हें देख कर तुम क्यों चौंके
माधोदास ने कहा-ये फौज के सिपाही हैं। जब से राजा बख्तावरसिंह नजरबंद हुए हैं इन पर किसी की दाब ही नहीं रही। खुले साँड़ की तरह बाजारों में चक्कर लगाया करते हैं। सरकार से तलब मिलने का कुछ ठीक तो नहीं है। बस नोच-खसोट करके गुजर करते हैं। -हाँ तो फिर अगर मरजी हो तो मेरे साथ घर तक चलिए आपको माल दिखाऊँ।
सौदागर-नहीं भाई इस वक्त नहीं। सुबह आऊँगा। देर हो गयी है और मुझे भी यहाँ की हालत देख कर खौफ मालूम होने लगा है।
यह कह कर सौदागर उसी तरफ चला गया जिधर वे तीनों राजपूत गये थे। थोड़ी देर में तीन आदमी और सराफे में आये। एक तो पंडितों की तरह नीची चपकन पहने हुए था सिर पर गोल पगिया थी और कंधे पर जरी के काम का शाल। उसके दोनों साथी खिदमतगारों के-से कपड़े पहने हुए थे। तीनों इस तरह इधर-उधर ताक रहे थे मानो किसी को खोज रहे हों। यों ताकते हुए तीनों आगे चले गये। ईरानी सौदागर तीव्र नेत्रों से इधर-उधर देखता हुआ एक मील चला गया। वहाँ एक छोटा-सा बाग था। एक पुरानी मसजिद भी थी। सौदागर वहाँ ठहर गया। एकाएक तीनों राजपूत मसजिद से बाहर निकल आये और बोले-हुजूर तो बहुत देर तक सराफ की दूकान पर बैठे रहे। क्या बातें हुईं।
सौदागर ने अभी कुछ जवाब न दिया था कि पीछे से पंडित और उनके दोनों खिदमतगार भी आ पहुँचे। सौदागर ने पंडित को देखते ही भर्त्सनापूर्ण शब्दों में कहा-मियाँ रोशनुद्दौला मुझे इस वक्त तुम्हारे ऊपर इतना गुस्सा आ रहा है कि तुम्हें कुत्तों से नुचवा दूँ। नमकहराम कहीं का ! दगाबाज ! तूने मेरी सल्तनत को तबाह कर दिया ! सारा शहर तेरे जुल्म का रोना रो रहा है ! मुझे आज मालूम हुआ कि तूने क्यों राजा बख्तावरसिंह को कैद कराया। मेरी अकल पर न जाने क्यों पत्थर पड़ गये थे कि मैं तेरी चिकनी-चुपड़ी बातों में आ गया। इस नमकहरामी की तुझे वह सजा दूँगा कि देखनेवालों को भी इबरत (शिक्षा) हो।
रोशनुद्दौला ने निर्भीकता से उत्तर दिया-आप मेरे बादशाह हैं इसलिए आपका अदब करता हूँ वरना इसी वक्त बदजबानी का मजा चखा देता। खुद आप तो महल में हसीनों के साथ ऐश किया करते हैं दूसरों को क्या गरज पड़ी है कि सल्तनत की फिक्र से दुबले हों खूब हम अपना खून जलायें और आप जशन मनायें ! ऐसे अहमक कहीं और रहते होंगे।
बादशाह (क्रोध से काँपते हुए)-मि…मैं तुम्हें हुक्म देता हूँ कि इस नमकहराम को अभी गोली मार दो। मैं इसकी सूरत नहीं देखना चाहता। और इसी वक्त जा कर इसकी सारी जायदाद जब्त कर लो। इसके खानदान का एक बच्चा भी जिंदा न रहने पाये।
रोशन-मि…मैं तुमको हुक्म देता हूँ कि इस मुल्क और कौम के दुश्मन रैयत के कातिल और बदकार आदमी को फौरन गिरफ्तार कर लो। यह इस काबिल नहीं कि ताज और तख्त का मालिक बने।
इतना सुनते ही पाँचों अँग्रेज मुसाहबों ने जो भेष बदले हुए साथ थे बादशाह के दोनों हाथ पकड़ लिये और खींचते हुए गोमती नदी की तरफ ले चले। तब बादशाह की आँखें खुलीं। समझ गये कि पहले ही से यह षड्यंत्र रचा गया था। इधर-उधर देखा कोई आदमी नहीं। शोर मचाना व्यर्थ था। बादशाही का नशा उतर गया। दुरवस्था ही वह परीक्षाग्नि है जो मुलम्मे और रोगन को उतार कर मनुष्य का यथार्थ रूप दिखा देती है। ऐसे ही अवसरों पर विदित होता है कि मानव-हृदय पर कृत्रिम भावों का कितना गहरा रंग चढ़ा होता है। एक क्षण में बादशाह की उद्दंडता और घमंड ने दीनता और विनयशीलता का आश्रय लिया। बोले-मैंने तो आप लोगों की मरजी के खिलाफ ऐसा कोई काम नहीं किया जिसकी यह सजा मिले। मैंने आप लोगों को हमेशा अपना दोस्त समझा है।
रोशन-तो हम लोग जो कुछ कर रहे हैं वह भी आपके फायदे ही के लिए कर रहे हैं। हम आपके सिर से सल्तनत का बोझ उतार कर आपको आजाद कर देंगे। तब आपके ऐश में खलल न पड़ेगा। आप बेफिक्र हो कर हसीनों के साथ जिंदगी की बहार लूटिएगा।
बादशाह-तो क्या आप लोग मुझे तख्त से उतारना चाहते हैं
रोशन-नहीं आपको बादशाही की जिम्मेदारियों से आजाद कर देना चाहते हैं।
बादशाह-हजरत इमाम की कसम मैं यह जिल्लत न बर्दाश्त करूँगा। मैं अपने बुजुर्गों का नाम न डुबाऊँगा।
रोशन-आपके बुजुर्गों के नाम की फिक्र हमें आपसे ज्यादा है। आपकी ऐश परस्ती बुजुर्गों का नाम रोशन नहीं कर रही है।
बादशाह (दीनता से)-वादा करता हूँ कि आइंदा से आप लोगों को शिकायत का कोई मौका न दूँगा।
रोशन-नशेबाजों के वादों पर कोई दीवाना ही यकीन कर सकता है।
बादशाह-तुम मुझे जबरदस्ती तख्त से नहीं उतार सकते।
