ikkees topon kee salaamee
ikkees topon kee salaamee

Hindi Immortal Story: “चलो, दिल्ली चलें। हम वहाँ मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर से प्रार्थना करेंगे कि वे आजादी की इस लड़ाई का नेतृत्व सँभालें। उन्हें हम विश्वास दिलाएँगे कि हमने देश को आजाद करने का संकल्प लिया है और हमारी वीरता और वफादारी में कोई कमी नहीं है। वे इस क्रांति का नेतृत्व सँभाल लें, तो हम पूरे देश से अंग्रेजों को खदेड़ने के लिए जगह-जगह लड़ाइयाँ लड़ेंगे और अंग्रेजों से लोहा लेंगे।”

मेरठ में क्रांति के बाद वहाँ से चला विद्रोहियाँ का काफिला अब दिल्ली की ओर बढ़ रहा था। सबके मन में देशभक्ति की भावनाएँ हिलोरें ले रही थीं और अब वे जल्दी से जल्दी दिल्ली के लाल किले में पहुँच जाना चाहते थे, जहाँ वे बहादुर शाह जफर से इस क्रांति-संघर्ष का नेतृत्व ग्रहण करने की गुजारिश करने वाले थे। रास्ते में जहाँ-जहाँ से विद्रोहियों का यह काफिला गुजरा, अंग्रेजों का सफाया होता चला गया। और ऐसा लगने लगा कि भारत का सोया हुआ स्वाभिमान फिर से जाग गया है।

और सचमुच क्रांतिकारियों की सेना दिल्ली पहुँची, तो मानो दिल्ली भी अँगड़ाई लेकर जाग गई। और बूढ़े बहादुर शाह जफर में फिर से नई जवानी का जोश और जज़्बा पैदा हो गया।

यों तो दिल्ली ने बहुत लड़ाइयाँ देखी हैं, पर 1857 के स्वाधीनता-संग्राम के समय दिल्ली की हलचलों ने पूरे देश और दुनिया का ध्यान खींचा। दिल्ली में मुगल शासक बहादुरशाह जफर बूढ़े और दुर्बल हो गए थे। उनकी सारी शक्तियाँ अंग्रेजों ने कब्जा ली थीं और कहा जाता था कि उनका शासन सिर्फ लाल किले तक चलचता है। पर जनता उन्हें बेहद चाहती थी।

मेरठ में क्रांति की आग भड़कने के बाद स्वाधीनता सेनानी दिल्ली की ओर कूच कर रहे थे। जल्दी ही वे दिल्ली पहुँचे। वहाँ पहुँचकर उन्होंने मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर को 21 तोपों की सलामी दी। बहादुर शाफ जफर ने भावुक होकर कहा कि मैं तो आप लोगों की तनखा तक नहीं दे सकता। इस पर सैनिकों का जोशभरा स्वर सुनाई दिया, “आप चिंता न करें। हम सारे भारत से लाकर ढेर सारे रत्न, हीरे और मोती आपके चरणों में ला रखेंगे।”

स्वाधीनता सेनानियों ने एक मत से बहादुर शाह जफर को अपना नेता चुन लिया। इसके बाद मुगल शासक ने एक के बाद एक तीन फरमान जारी किए, जिनमें जनता से अपील की गई कि वह पूरी तरह तन-मन-धन से स्वाधीनता सेनानियों का साथ दे और मुल्क को लूटने वाले अंग्रेजों को मार भगाए। जनता बहादरशाह जफर को बहुत प्यार करती थी। इसलिए उनके फरमानों का बहुत दूर-दूर तक असर हुआ। अंग्रेजी सेना दिल्ली के एक छोर पर मौजूद थी, पर इस समय लोगों के उबाल को देखते हुए उसकी कुछ करने की हिम्मत नहीं हो रही थी। क्रांतिकारी भी सीधी भिड़ंत से बचते हुए धीरे-धीरे अपनी शक्ति बढ़ा रहे थे।

आखिर अंग्रेज सेना ने क्रांतिकारियों पर धावा बोल दिया और लाल किले को चारों ओर से घेर लिया। युद्ध हुआ, पर बहादुरशाह जफर बूढ़े हो चुके थे और अभी तक ऐसा कोई व्यक्ति नहीं था, जो समूची सेना का नेतृत्व कर सके। इसलिए स्वाधीनता सेनानियों को पीछे हटना पड़ा।

उधर अंग्रेजों के जासूस अपना काम कर रहे थे। बहादुरशाह जफर का ही भरोसेमंद सलाहकार और रिश्तेदार इलाहीबख्श गद्दार बनकर भीतर ही भीतर अंग्रेजों से मिल गया। उसने चाल चलकर धोखे से उन्हें पकड़वा दिया। यही नहीं, बादशाह के तीनों बेटों को भी उसने विश्वासघात करते हुए पकड़वाया। अंग्रेजों ने उनके सिर काटकर बादशाह के सामने लाकर रखे, तो उनके मुँह से बड़ी ही करुण आह निकली।

बंदी हो चुके बादशाह को रंगून भेज दिया गया। पूरी दिल्ली में भीषण कत्लेआम शुरू हो गया। खुद अंग्रेज इतिहासकारों ने लिखा है कि दिल्ली में कुछ दिनों तक सिर्फ लाशें ही नजर आती थीं और बस, घोड़ों की टापों की आवाजें सुनाई देती रहीं। पर क्रांति की आग ऊपर से भले ही ठंडी हो गई, पर जनता के दिलों में वह सुलगती रही। बाद में कांग्रेस ने स्वाधीनता संग्राम शुरू किया, तो दिल्ली फिर रणभूमि बन गई। सुभाषचंद्र बोस के ‘दिल्ली चलो’ और ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा’ जैसे नारों ने जनता के भीतर विद्रोह की चिनगारियों को फिर से जगा दिया।

ये कहानी ‘शौर्य और बलिदान की अमर कहानियाँ’ किताब से ली गई है, इसकी और कहानी पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं Shaurya Aur Balidan Ki Amar Kahaniya(शौर्य और बलिदान की अमर कहानियाँ)