प्रातःकाल था। आषाढ़ का पहला दांगड़ा निकल गया था। कीट-पतंग चारों तरफ रेंगते दिखाई देते थे। तिलोत्तमा ने वाटिका की ओर देखा तो वृक्ष और पौधे ऐसे निखर गए थे, जैसे साबुन से मैले कपड़े निखर जाते हैं। उन पर एक विचित्र आध्यात्मिक शोभा छाई हुई थी, मानो योगीवर आनंद में मग्न पड़े हों। चिड़ियों में असाधारण चंचलता थी। डाल-डाल, पात-पात चहकती फिरती थी। तिलोत्तमा बाग में निकल आई। वह भी इन्हीं पक्षियों की भांति चंचल हो गई थी। कभी किसी पौधे को देखती, कभी किसी फूल पर पड़ी हुई जल की बूंदों को हिलाकर अपने मुंह पर उसके शीतल छींटे डालती। लाल बीरबहूटियां रेंग रही थी। वह उन्हें चुनकर हथेली पर रखने लगी। सहसा उसे एक काला बृहतकाय सांप रेंगता दिखाई दिया। उसने चिल्लाकर कहा – अम्मा, अम्मा, नागजी जा रहे हैं। लाओ, थोड़ा-सा दूध उनके लिए कटोरे में रख दूं।
अम्मा ने कहा – जाने दो बेटा, हवा खाने निकले होंगे।
तिलोत्तमा – गर्मियों में कहां चले जाते हैं? दिखाई नहीं देते।
मां – कहीं नहीं बेटी, अपनी बॉबी में पड़े रहते हैं।
तिलोत्तमा – और कहीं नहीं जाते?
मां – बेटी, हमारे देवता हैं और कहीं क्यों जायेंगे? तुम्हारे जन्म के साल से ये बराबर यहां दिखाई देते है। किसी से नहीं बोलते। बच्चा पास से निकल जाये, पर जरा भी नहीं ताकते। आज तक कोई चुहिया भी नहीं पकड़ी।
तिलोत्तमा – तो खाते क्या होंगे।
मां – बेटी, यह लोग हवा पर रहते हैं। इसी से इनकी आत्मा दिव्य हो जाती है। अपने पूर्वजन्म की बातें इन्हें याद रहती हैं। आने वाली बातों को भी जानते हैं। कोई बड़ा योगी जब अहंकार करने लगता है तो उसे दंडस्वरूप इस योनि में जन्म लेना पड़ता है। जब तक प्रायश्चित्त पूरा नहीं होता तब तक वह इस योनि में रहता है। कोई-कोई तो सौ-सौ, दो-दो सौ वर्ष तक जीते रहते हैं।
तिलोत्तमा इनकी पूजा न करो तो क्या करें?
मां – बेटी, कैसी बच्चों की-सी बातें करती हो। नाराज हो जायें तो सिर पर न जाने क्या विपत्ति आ पड़े। तेरे जन्म के साल पहले-पहल दिखाई दिए थे। जब से साल में दस-पांच बार अवश्य दर्शन दे जाते हैं। इनका ऐसा प्रमाद है कि आज तक किसी के सिर में दर्द तक नहीं हुआ।
कई वर्ष हो गए। तिलोत्तमा बालिका से युवती हुई। विवाह का शुभ अवसर आ पहुंचा। बरात आई, विवाह हुआ, तिलोत्तमा के पति-गृह जाने का मुहूर्त आ पहुंचा।
नई वधू का श्रृंगार हो रहा था। भीतर-बाहर हलचल मची हुई थी, ऐसा जान पड़ता था, भगदड़ पड़ी हुई है। तिलोत्तमा के हृदय में वियोग, दुःख की तरंगें उठ रही है। वह एकांत में बैठकर रोना चाहती है। आज आता-पिता, भाई-बंद, सखियां-सहेलियां सब छूट जायेंगी। फिर मालूम नहीं, कब मिलने का संयोग हो। न जाने अब कैसे आदमियों से पाला पड़ेगा। न जाने उनका स्वभाव कैसा होगा। न जाने कैसा बर्ताव करेंगे। अम्मा की आंखें एक क्षण भी न थमेंगी। मैं एक दिन के लिये कहीं चली जाती थी, तो वो रो-रोकर व्यथित हो जाती थी। अब यह जीवन पर्यन्त का वियोग कैसे सहेंगी। उनके सिर में दर्द होता था तो जब तक मैं धीरे-धीरे न मलूं उन्हें किसी तरह कल-चैन ही न पड़ती थी। बाबूजी को पान बनाकर कौन देगा? मैं जब तक उनका भोजन न बनाऊं, कोई चीज उन्हें रचती ही न थी? अब उनका भोजन कौन बनाएगा? मुझसे इनको देखे बिना कैसे रहा जायेगा? यहां जरा सिर में दर्द भी होता था, तो अम्मा और बाबूजी घबरा जाते थे। तुरन्त वैद्य-हकीम आ जाते थे। वहां न जाने क्या हाल होगा। भगवान्, बंद घर में कैसे रहा जायेगा? न जाने वहां खुली छत है या नहीं। होगी भी तो मुझे कौन सोने देगा? भीतर घुट-घुट कर मरूंगी। जगने में जरा देर हो जायेगी तो ताने मिलेंगे। यहां सुबह को कोई जगाता था, तो अम्मा कहती थी, सोने दो। कच्ची नींद जाग जायेगी तो सिर में पीड़ा होने लगेगी। वहां व्यंग्य सुनने पड़ेंगे, बहू आलसी है, दिन-भर खाट पर पड़ी रहती है। वे पति तो बहुत सुशील मालूम होते हैं। हां, कुछ अभिमानी अवश्य हैं। कहीं उनका स्वभाव निष्ठुर हो तो…
सहसा उसकी माता ने आकर कहा – बेटी, तुझसे एक बात कहने की याद न रही। वहां नाग-पूजा अवश्य करती रहना। घर के और लोग चाहे मना करें, पर तुम इसे अपना कर्त्तव्य समझना। अभी मेरी आंखें जरा-जरा झपक गई थी। नाग बाबा ने स्वप्न में दर्शन दिए।
तिलोत्तमा – अम्मा, मुझे भी उनके दर्शन हुए है, पर मुझे तो उन्होंने बड़ा विकराल रूप दिखाया। बड़ा भयंकर स्वप्न था।
मां – देखना, तुम्हारे घर में कोई सांप न मारने पाए। यह मंत्र नित्य अपने पास रखना।
तिलोत्तमा – अभी कुछ जवाब न देने पाई थी कि अचानक बरात की ओर से रोने के शब्द सुनाई दिए, एक क्षण में हाहाकर मच गया। भयंकर शोक-घटना हो गयी। वर को सांप ने काट लिया। वह बहू की बिदा कराने आ रहा था। पालकी में मसनद के नीचे एक काला सांप छिपा हुआ था। वर ज्यों ही पालकी में बैठा, सांप ने काट लिया।
चारों ओर कुहराम मच गया। तिलोत्तमा पर तो मानो वज्रपात हो गया। उसकी मां सिर पीट-पीट कर रोने लगी। उनके पिता बाबू जगदीशचंद्र मूर्च्छित होकर गिर पड़े। हृदय रोग से पहले ही से ग्रस्त थे। झाड़-फूंक करने वाले आये, डॉक्टर बुलाए गए, पर विष घातक था। जरा देर में वर के होंठ नीले पड़ गये, नख काले हो गए, मूर्च्छा आने लगी। देखते-देखते शरीर ठंडा पड़ गया। इधर उषा की लालिमा ने प्रकृति को आलोकित किया, उधर टिमटिमाता हुआ दीपक बुझ गया।
जैसे कोई मनुष्य बोरों से लदी हुई नाव पर बैठा हुआ मन में झुंझलाता है कि यह और- तेज क्यों नहीं चलती, कहीं आराम से बैठने की जगह नहीं, यह इतनी हिल क्यों रही है, मैं व्यर्थ ही इसमें बैठा, पर अकस्मात नाव को भंवर में पड़ते देखकर उसके मसूल से चिपट जाता है, वही दशा तिलोत्तमा की हुई। अभी तक वह वियोग-दुःख में ही मग्न थी, ससुराल के कष्टों और दुर्व्यवस्था की चिंताओं में पड़ी हुई थी। पर, अब उसे होश आया जिस नाव के साथ मैं भी डूब रही हूं। एक क्षण पहले वह कदाचित् जिस पुरुष पर झुंझला रही थी, जिसे लुटेरा और डाकू समझ रही थी, वह अब कितना प्यारा था। उसके बिना जीवन एक दीपक था – बुझा हुआ। एक वृक्ष था – फल-फूल विहीन। अभी एक क्षण पहले वह दूसरों की ईर्ष्या का कारण थी, अब दया और करुणा की।
थोड़े ही दिनों में उसे ज्ञात हो गया कि मैं पति-विहीन होकर संसार के सब- सुखों से, वंचित हो गई।
