आधी रात थी। नदी का किनारा था। आकाश के तारे स्थिर थे और नदी में उनका प्रतिबिम्ब लहरों के साथ चंचल। एक स्वर्गीय संगीत की मनोहर और जीवनदायिनी, प्राणदायिनी ध्वनि इस निस्तब्ध और तमोमय दृश्य पर इस प्रकार छा रही थी, जैसे हृदय आशाएं छायी रहती हैं, या मुख-मंडल पर शोक।
रानी मनोरमा ने आज गुरु-दीक्षा ली थी। दिन भर दान और व्रत में व्यस्त रहने के बाद मीठी नींद की गोद में सो रही थी। अकस्मात् उसकी आंखें खुली और ये मनोहर ध्वनियां कानों में पहुंची। वह व्याकुल हो गई – जैसे दीपक को देखकर पतंग, वह अधीर हो उठी, जैसे खांड़ की गंध पाकर चींटी। वह उठी और द्वार पालों एवं चौकीदारों की दृष्टि बचाती हुई राजमहल से बाहर निकल आयीं जैसे वेदना पूर्ण क्रंदन सुनकर आंखों से आंसू निकल आते हैं।
सरिता-तट पर कंटीली झाड़ियां थी। ऊंचे कगारे थे। भयानक जंतु थे और उनकी डरावनी आवाजें। शव थे और उनसे भी अधिक भयंकर उनकी कल्पना। मनोरम कोमलता और सुकुमारता की मूर्ति थी। परंतु उस मधुर संगीत का आकर्षण उसे तन्मयता की अवस्था में खींचे लिये जाता था। उसे आपदाओं का ध्यान न था।
वह घंटों चलती रही, यहां तक कि मार्ग में नदी ने उसका गतिरोध किया।
मनोरमा ने विवश होकर इधर-उधर दृष्टि दौड़ायी। किनारे पर एक नौका दिखाई दी। निकट जाकर बोली – ‘मांझी,मैं उस पार जाऊंगी, इस मनोहर राग ने मुझे व्याकुल कर दिया है।’
मांझी – ‘रात को नाव नहीं खोल सकता। हवा तेज है और लहरें डरावनी। जान-जोखिम है।’
मनोरमा – ‘मैं रानी मनोरमा हूं। नाव खोल दे, मुंह मांगी मजदूरी दूंगी।’
मांझी – ‘तब तो नाव किसी तरह नहीं खोल सकता। रानियों का इस नदी में निबाह नहीं।’
मनोरमा – ‘चौधरी, तेरे पांव पड़ती हूं। शीघ्र नाव खोल दे। मेरे प्राण उस ओर खिंचे चले जाते हैं।’
मांझी – ‘क्या इनाम मिलेगा?’
मनोरमा – ‘जो तू मांगे।’
मांझी – ‘आप ही कह दें, मैं गंवार क्या जानूं, कि रानियों से क्या चीज मांगनी चाहिए। कहीं कोई ऐसी चीज न मांग बैठूं जो आपकी प्रतिष्ठ के विरुद्ध हो।
मनोरमा – ‘मेरा यह हार अत्यंत मूल्यवान् है। मैं इसे खेने में देती हूं। मनोरमा ने गले से हार निकाला, उसकी चमक से मांझी का मुख-मंडल प्रकाशित हो गया – वह कठोर और काला मुख, जिस पर झुर्रियां पड़ी हुई थीं।
अचानक मनोरमा को ऐसा प्रतीत हुआ, मानों संगीत की ध्वनि और निकट हो गई हो। कदाचित् कोई पूर्ण ज्ञानी पुरुष आत्मानंद के आवेश में उस सरिता-तट पर बैठा हुआ उस निस्तब्ध निशा को संगीतमय कर रहा है। रानी का हृदय उछलने लगा! आह! कितना मनोमुग्ध राग था! उसने अधीर होकर कहा – ‘मांझी, अब देर न कर, नाव खोल। मैं एक क्षण भी धीरज नहीं रख सकती।’
मांझी – ‘इस हार को लेकर मैं क्या करूंगा?’
मनोरमा – ‘सच्चे मोती हैं।’
मांझी – ‘यह और भी विपत्ति है। मांझिन गले में पहनकर पड़ोसियों को दिखाएगी, वह सब डाह से जलेंगी, उसे गालियां देंगी। कोई चोर देखेगा, तो उसकी छाती पर सांप लोटने लगेगा। मेरी सुनसान झोपड़ी पर दिन-दहाड़े डाका पड़ जायेगा। लोग चोरी का अपराध लगाएंगे। नहीं, मुझे यह हार न चाहिए।’
मनोरमा – ‘तो जो कुछ तू मांग, वही दूंगी लेकिन देर न कर। मुझे अब धैर्य नहीं है। प्रतीक्षा करने की तनिक भी शक्ति नहीं है। इस राग की एक एक तान मेरी आत्मा को तड़पा देती है।’
मांझी – ‘इससे भी अच्छी कोई चीज दीजिए।’
मनोरमा – ‘अरे निर्दयी! तू मुझे बातों में लगाए रखना चाहता है। मैं जो देती हूं वह लेता वहीं, स्वयं कुछ मांगता नहीं। तुझे क्या मालूम, मेरे हृदय की इस समय क्या दशा हो रही है। मैं इस आत्मिक पदार्थ पर अपना सर्वस्व न्यौछावर कर सकती हूं।’
मांझी – ‘और क्या दीजिएगा?’
मनोरमा मेरे पास इससे बहुमूल्य और कोई वस्तु नहीं है, लेकिन तू अभी नाव खोल दें, तो प्रतिज्ञा करती हूं कि तुझे अपना भवन दे दूंगी, जिसे देखने के लिए कदाचित तू भी कभी गया हो। विशुद्ध श्वेत पत्थर से बना है, भारत में इसकी तुलना नहीं। अब एक क्षण की भी देर न कर।’
मांझी हंसकर – ‘उस महल में रहकर मुझे क्या आनंद मिलेगा? उलटे मेरे भाई-बंधु शत्रु हो जायेंगे। इस नौका पर अंधेरी रात में भी मुझे भय नहीं लगता। आंधी चलती रहती है, और मैं इस पर पड़ा रहता हूं। किंतु वह महल तो दिन ही में फाड़ खायेगा। मेरे घर के आदमी तो उसके एक कोने में समा जायेंगे। और आदमी कहां से लाऊंगा, मेरे नौकर-चाकर कहां? इतना माल असबाब कहां? उसकी सफाई और मरम्मत कहां से कराऊंगा? उसकी फुलवारी सूख जायेंगी, उसकी क्यारियों में गीदड़ बोलेंगे और अटारियों पर कबूतर और अबाबीलें घोंसले बनाएगी?’
मनोरमा अचानक एक तन्मय अवस्था में उछल पड़ी। उसे प्रतीत हुआ कि संगीत निकटतर आ गया है। उसकी सुन्दरता और आनंद अधिक प्रखर हो गया था – जैसे बत्ती उकसा देने से दीपक अधिक प्रकाशमान हो जाता है। पहले चित्ताकर्षक था, तो अब आवेशजनक हो गया था। मनोरमा ने व्याकुल होकर कहा – ‘तू फिर अपने मुंह से क्यों कुछ नहीं मांगता? अहा कितना विरागजनक राग है, कितना विह्वल करने वाला। मैं अब तनिक भी धीरज नहीं धर सकती। पानी उतार में जाने के लिए जितना व्याकुल होता है, श्वास हवा के लिए जितनी विकल होती है, गंध उड़ जाने के लिए जितना व्याकुल होता है, मैं उस स्वर्गीय संगीत के लिए उतनी व्याकुल हूं। उस संगीत में कोयल की-सी मस्ती है, पपीहे की-सी वेदना है, श्यामा की-सी विह्वलता है। इसमें झरनों का-सा शोर है, और आधी का-सा बल! इसमें वह सब कुछ है, जिससे विवेकाग्नि प्रज्ज्वलित होती, जिससे आत्मा समाहित होती है और अंतःकरण पवित्र होता है। मांझी अब एक क्षण का भी विलम्ब मेरे लिए मृत्यु की यंत्रणा है। शीघ्र नौका खोल। जिस सुमन की यह सुगंध है, जिस दीपक की यह दीप्ति है, उस तक मुझे पहुंचा दे। मैं देख नहीं सकती, इस संगीत का रचयिता कहीं निकट ही बैठा हुआ है, बहुत निकट।’
मांझी – ‘आपका महल मेरे काम का नहीं है, मेरी झोपड़ी उससे कहीं सुहावनी है।’ मनोरमा – ‘हाय! तो अब तुझे क्या दूं? यह संगीत नहीं है, यह इस सुविशाल क्षेत्र की पवित्रता है, यह समस्त सुमन-समूह का सौरभ है, समस्त मधुरताओं की माधुरी है, समस्त अवस्थाओं का सार है। नौका खोल। मैं जब तक जिऊंगी तब तक तेरी सेवा करूंगी, तेरे लिए पानी भरूंगी, तेरी झोपड़ी बुहारूगीं, तेरी मांझिन के पैर मलूंगी। प्यारे मांझी, यदि मेरे पास सौ जानें होती, तो मैं इस संगीत के लिए अर्पण करती। ईश्वर के लिए मुझे निराश न कर। मेरे धैर्य का अंतिम बिन्दु शुष्क हो गया है। अब इस चाह में दाह है, अब यह सिर तेरे चरणों में है।’
यह कहते-कहते मनोरमा एक विक्षिप्त की अवस्था में मांझी के निकट जाकर उसके पैरों पर गिर पड़ी। उसे ऐसा प्रतीत हुआ, मानों वह संगीत आत्मा पर किसी प्रज्ज्वलित प्रदीप की तरह ज्योति बरसाता हुआ मेरी ओर आ रहा है। उसे रोमांच हो आया। वह मस्त होकर झूमने लगी। ऐसा ज्ञात हुआ कि मैं हवा में उड़ी जाती हूं। उसे अपने पार्श्व-देश में तारे झिलमिलाते हुए दिखाई देते थे। उस पर आत्मविस्मृत का भावावेश छा गया और अब वही मस्ताना संगीत, वही मनोहर राग उसके मुंह से निकलने लगा। वही अमृत की बूंदें, उसके अधरों से टपकने लगी। वह स्वयं इस संगीत की स्रोत थी। नदी के पार से आने वाली ध्वनियां, प्रतिपोषिणी ध्वनियां उसी के मुंह से निकल रही थी।
मनोरमा का मुख-मंडल चंद्रमा की तरह प्रकाशमान हो गया था और आंखों से प्रेम की किरणें निकल रही थीं।
