भारत कथा माला
उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़ साधुओं और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं
‘अरे जनाब, यह क्या..?’ जिसको देखो उसकी जुबान यही फिकरा अपनी नोक पर रखे हुए है। ‘अरे जनाब, यह क्या..?’ सब देख रहे हैं प्लास्टर बँधा है फिर भी, ‘अरे जनाब, यह क्या..?’
यह क्या, मैं यह बताते-बताते थक गया हूँ कि क्या वाकया गुजरा, जबकि सबको मालूम है किसी हादसे के सबब हाथ पर पुख्ता कफन बँधा है। पर जब लोग पढेंगे तो कुछ तो कहना ही पडेगा। किसी से कहा कि गाड़ी लड़ गई थी, तो यह सुनने को मिला-‘अरे कैसे…?’ अब क्या बताऊँ कि कैसे?
खैर, कुछ लफ्जों और कुछ तखय्युल मंजरकशी (कल्पनात्मक वर्णन) का सहारा लेकर मुहक्किकीन (पूछनेवालों) को राम किया। अब जुस्तजू (जानने की इच्छा) बेदम हुई तो लोगों के जज्बे हमदर्दी ने टाँग ले ली- ‘अरे, बड़ी तकलीफ हुई होगी! हड्डी की चोट बड़ी खतरनाक होती है। प्लास्टर चढ़ाने में डॉक्टर जालिम बन जाते हैं।’ मैं ‘हूँ-हाँ’ ‘हूँ-हाँ’ कि रट लगाकर मेहरबानों से मुकाबला करता…और उसके अलावा कर भी क्या सकता था?
यह नौबत यहाँ तक पहुँची कि बेताल्लुक लोग भी पूछने लगे- ‘अरे यह क्या हुआ?’
जान न पहचान, लगे हमदर्दी दिखाने। मैं भी चढ़ गया। कह दिया‘जनाब बच्चे को ए बी सी डी सिखा रहा था। के तक तो उसने सीख ली। एल उसके समझ में नहीं आ रहा था। यह एल बनाया है।’ मेरा यह रंग देखकर उनकी त्योरियाँ तो चढ़ीं, शायद इस ख्याल से कि किसी एक शख्स के दोनों हाथों पर प्लास्टर मुनासिब नहीं है। वह अनजान मेहरबान अपने सब्र को दाँतों में दबाए जेरे लब (होठों ही होठों में) कुछ कहते हुए गुजर गए।
अभी तक बगैर चिढ़े जिन लोगों को मैंने प्लास्टर के असबाब (कारण) बयान किए थे। वे सब सही और हकीकी थे, लेकिन उनमें असलियत नहीं थी। हकीकत और असलियत दोनों एक साथ हों, यह जरा मुश्किल होता है। लोगों को असलियत जानने में शायद दिलचस्पी भी नहीं होती। असलियत जानकर कोई करेगा भी क्या? असलियतें इतनी होती है कि सुनने-सुनते आदमी पागल ना हो जाए तो कम है। हकीकत के साथ ऐसा नहीं है। अस्पताल में सबके प्लास्टर बँधा है, लेकिन किसके साथ यह हादसा क्यों पेश आया, अगर यह पूछने बैठ जाएँ तो सबकी असलियतें दिमाग खराब कर देंगी। एक मैं, अनेक काफिर, मौला ही ठीक है।
‘अरे, कैसे चोट लगी!’
‘अरे, बस से गिर गए थे।’
‘ओह!…’
यह बात गलत भी नहीं। बगैर गिरे अब तक शायद किसी का हाथ-वाथ टूटा हो। अगर ऐसा हो जाए तो यह हादसा नहीं, चमत्कार हो जाए चमत्कार! और फिर प्लास्टर का रंग फूल और प्रसाद से कुछ का कुछ हो जाए। आपको बताऊँ कि हकीकत खारिजी (त्याज्य) चीज है। लिहाजा ऊपरी ताल्लुकात वालों से इसी हकीकत के बयान से काम निकल गया है। ऑफिस, अपार्टमेंट, खानदान के लोगों से तो ‘गिर गए!’ ‘गाड़ी लड़ गई’ वगैरह से काम चल गया लेकिन अंदर ही अंदर असलियत भी कुलबुला रही थी। मुझे लगा कि असलियत खुद चाहती है कि बाहर आए। यह बात मैंने अपने सीने पर हाथ रखकर महसूस कर ली। लेकिन क्यों चाहती है? इस सवाल का जवाब कोई मुश्किल नहीं था। पिछले वाकयात पर नजर डाली तो मालूम हो गया कि असलियत बयान करके चोट खानेवाले का दर्द कुछ कम हो जाता है। डॉक्टरों की दवाओं से चोटें बिलकुल ठीक हो जाती हैं। चोटों के निशान भी मिट जाते हैं। लेकिन असलियत का इजहार जिस अंदरूनी कर्ब (दर्द) का इलाज है, वह कायम रहता है।
अब मेरे प्लास्टर को कटे हुए कई महीने गुजर गए हैं। मेरे एक बचपन के दोस्त को खबर हई। वह दसरे शहर में रहता है। बात असलियत की हो रही है तो उसका नाम क्या बताएँ, आपका वक्त जाया होगा। यह हकीकत है कि जब दोस्त है, तो नाम भी होगा, दोस्ती के असबाब भी होंगे, उसमें खुसूसियत भी होंगी और बहुत से दोस्ती के लाजमी अवामिल (उचित कारण) भी होंगे।
खैर, उनको छोड़िए। वह आया और गाली बक के जोरदार आवाज में बोला, “अबे साले! हाथ तुड़वा लिया, बताया भी नहीं। हम दुश्मन थे जो खुश होते?”
मैं कुछ कहता तो उसने अपनी आवाज को बुलंद करके दबा दिया, “कोई बहाना-वहाना नहीं…! फोन तो कर ही सकते थे?”
अब मैं शर्मिंदा था लेकिन यह शर्मिंदगी फौरी (तत्कालिक) हालात की पैदा की हुई थी। वरना मैंने तो जान-बूझकर नहीं बताया था कि बेचारा परेशान होगा और वक्त और पैसा दोनों खराब करके चला आएगा। मुझको मालूम था कि हमारे दरमियान कुर्बत (सामीप्य) और शदीद कुर्बत है। लेकिन यह कुर्बत आम हालात में आराम करती है। अंदर से मेरी ख्वाहिश थी कि वह आए। लेकिन उसको बुलाने में खुदगरजी (स्वार्थ) का एहसास हो रहा था। लिहाजा प्लास्टर को कटने दिया। अब उसे खुद किसी से मालूम हो गया तो यूँ कहिए कि किसी ने मेरे एहसास-ए-खुदगरजी पर एहसान किया। अजीब मुहावरा जहन में आ रहा है। मुझे मालूम है यह बिल्कुल ना मुनासिब है और उसके बहुत से गैर हकीकी मानी निकाले जा सकते हैं। तो मुहावरा बयान न करके इशारा कर दूं तो खुद साँप भी मर जाएगा और लाठी भी सलामत रहेगी। अरे जाने दीजिए, ऐसी बात ही क्यों कहीं जाए जो बुत हजारशेवा (हजार अदाओं वाली मूर्ति) की सूरत गिरी (रूप-वर्णन) करे। बात आपको इतनी-सी बतानी थी कि प्लास्टर के पीछे की असलियत क्या है। …और लीजिए यह एक अफसाना बने जा रहा है। मुसीबत यह है कि हकीकत तो बेकैफी के साथ और सपाट अंदाज में बयान हो सकती है, लेकिन असलियत तो कमबख्त रंगीनी और पेचीदगी के बगैर जाहिर ही नहीं होती। मुझे डर है कि आप मेरे बिलकुल असली किस्से को अफसाना कहने लगेंगे और आप बीती पर जग बीती और जमानो-मकान (हालात और वाकयात) के कुयूद (बंदिशें) हमलावर हो जाएंगे। जो होना हो, हो, मैं आपके खौफ से अपने बातिनी (छिपे हुए) दर्द के इजाला (निवारण) को कैसे छोड़ सकता हूँ जो जाहिरी तकलीफें तिब्बी इमदाद (औषधीय मदद) से ठीक होने के बाद भी मौजूद हैं। मेरे बचपन का दोस्त मौजूद था। मैंने दुनिया की परवाह छोड़ी और उससे छेड़ दी अपनी असली कहानी।
“अरे भाई, हुआ यूँ कि तुम तो जानते ही हो कि हमारा काम पढ़ने-लिखने का है। हम लोगों की आँखें तुलुअ आफताब (सूर्योदय) से ज्यादा गुरुब आफताब (सूर्यास्त) देखने की आदी हैं। तुलुअ-गुरुब के चक्कर में कहाँ फँसे? सीधी-सीधी बात सुनो। यह बीवियाँ भी अजीबो-गरीब मखलूक हैं। हकीकत तो उनकी फीमेल होना है। मैं अरबी नहीं जानता। मैंने माफी-अल-जमीर के इजहार के लिए अंग्रेजी का लफ्ज इस्तेमाल किया है। फीमेल जब बीवी की असलियत अख्तियार करती है तो रंगीनी और पेचीदगियाँ जिंदगी में दाखिल हो जाती हैं। …तुम्हारी मुस्कराहट बहुत कुछ कह रही है, दोस्त। मैं समझ रहा हूँ तुम जवानी की तरफ मेरा रुख मोड़ना चाहते हो। तुम जानते हो कि मैं गुफ्तगू में लोच नहीं रखता। ठीक है, बीवी से पहले यह मेरी जो कुछ भी रही हों, लेकिन अब तो बीवी ही है ना? ‘जो कुछ भी’ से इबहाम (संशय) पैदा हो सकता है और अच्छे बुरे-बुरे सब मानी पैदा हो सकते हैं। मैं किसी की किरदारकशी (चरित्र-वर्णन) नहीं कर सकता। लिहाजा अगर कोई मनफी (नकारात्मक) मानी निकालता है तो यह उसका अमल होगा। इससे मेरा कोई ताल्लुक नहीं। मेरा तजुर्बा है, अल्लाह करे यह फकत मेरा ही तजुर्बा हो, और मेरी ‘हाँ’ में ‘हाँ’ मिलानेवाला कोई ना हो, कि बीवियाँ इनहिमाके-शौहर (काम में डूबे रहनेवाले पति) को बर्दाश्त नहीं कर पातीं। शायद वह यह कहना चाहती हैं कि मैं खुद एक ऐसी किताब हूँ जिसमें माजी, हाल और मुस्तकबिल, सभी कुछ लिखा हुआ है। तो तुम टी.वी. क्यों देखते हो? किताबें क्यों पढ़ते हो? …और अखबार से क्यों चिपके रहते हो? आप सही सोच रहे हैं कि मैंने पिछले जुमले में जमा (बहवचन) का सीगा (रूप) बीवियाँ इस्तेमाल किया है जो मनासिब नहीं था। मैं आपसे मुत्तफिक (सहमत) हूँ और अपनी बशरियत (मानवीयता) और गलती का एतिराफ (स्वीकार) करता हूँ।
“खैर, देर रात तकरीबन सुबह होते-होते सोया। तुम तो जिगरी दोस्त हो वरना कोई और होता तो इसमें थोड़ा-सा झूठ मिला लेता-यही बस कि नमाज पढकर सोया था। लीजिए अभी तक यह नहीं खला था कि यह किस मजहब का मामला है। नमाज ने राज फाश किया। जी, यह एक हकीकत है कि मैं मुसलमान हूँ। देखिए, आप इस तरह अगर असलियत बयान करेंगे तो कौन सुन सकेगा? यह आप किससे कह रहे हैं? वह तो बेचारा सफर की थकान के बावजद आपकी आवाज पर बिलकल खामोशी के साथ हमातन गोश (पूरी तल्लीनता के साथ) है। चलो, जल्दी से उसे किस्सा सुनाकर राहत की साँस लें। यह इस वक्त मेरा दोस्त भी है और मुआलिज (इलाज करनेवाला) भी। यह दोस्त तो रहेगा लेकिन तबीब (वैद्य) का किरदार बस हमारे किस्से तक है। जल्दी करो, जल्दी! तो हाँ, बीवी ने बिलकुल तड़के मुझे उठा दिया- ‘बच्चे को स्कूल जाना है। टिफिन तैयार होना है। अंडे खत्म हो चुके हैं।’ यह बात अगर उसने रात को ही बता दी होती तो मैं फ्रिज को अंडों की दुकान बना देता। लेकिन यह बात मेरे अब समझ में आ रही है। उस वक्त तो बीवी की आवाज कानों में मुनकर-नकीर (यमदूतों) की आवाज थी, जिससे मुर्दा भी उठ जाए। मुर्दा उठता होगा तो खूब सो-साकर, लेकिन यहाँ तो नींद घंटे-दो घंटे की थी। उठा तो, लेकिन ऐसा मालूम हुआ कि आँखें खोलने के लिए दोनों हाथों का इस्तेमाल करना होगा और दोनों दीदों को फाड़ने के लिए किसी और की मदद भी दरकार (अपेक्षित) होगी। मुसीबत में तो सुना है साया भी साथ छोड़ जाता है। अभी सूरज का नामोनिशान भी नहीं था। अंधेरे में कहाँ साया? सोचा कि बस स्टैंड के पास ही अंडे मिल सकते हैं। चलो बाइक निकालते हैं। पानी नींद का दुश्मन है। सोचा दो चुल्लू मुँह पर डाल लूँ। दो क्या, दस चुल्लू में भी आँख नहीं खुली। अब आप पान
ी और आँख खुलने को अलामत (विशेष संकेत) वगैरह ना समझ लीजिएगा। मैं असलियत बयान कर रहा हूँ। लेकिन मेरी आँखों में तजजिया निगारों (विश्लेषण करनेवालों) की नजरें घूम रही हैं। चलो होगा, जिसके जो समझ में आए करे, हम अपना किस्सा सुनाकर खत्म करें। तो हाँ, चुल्लू आँखों पर डाले लेकिन पलकें हैं कि दुनिया की तरफ खुलना ही नहीं चाहती हैं। आँखें फाड़-फाड़कर दीदों पर पानी डाला। पानी के कतरे अजब अंदाज से गिरे। मैंने अपने को टटोला कि कहीं मैं रो तो नहीं रहा हूँ। लेकिन हकीकत ने कुछ कहा और असलियत ने कुछ। मैं इस झगड़े में पड़ भी नहीं सकता था, क्योंकि किचन से पराठों की खुशबू और ‘गए नहीं…!’ की आवाज आ रही थी। मैंने जल्दी से गाड़ी की चाबी उठाई। चाबी तो मुझे दिख रही थी लेकिन मैं समझ नहीं पा रहा था कि यह ऑफिस की है या गाड़ी की। शायद पानी ने आँखें तो कुछ-कुछ खोल दी थीं लेकिन दिमाग को जगाने में यह पानी कारगर साबित नहीं हुआ था। मुझे डर था, लेकिन मैंने सोचा कि सोते में जिस्म अपने-आप मच्छर को मारकर अपनी हिफाजत कर लेता है, तो मैं तो अच्छा-खासा जाग रहा हूँ।
कई बार झटके खाकर गाड़ी निकाली और सेल्फ के बजाय कई बार हॉर्न दबाया। खैर, गाड़ी स्टार्ट हुई और हम चले। हमने देखा कि लोग नशे में भी खूब गाड़ी चला लेते हैं, लेकिन नींद शराब से ज्यादा ताकतवर है। नीम बेदारी… नीम क्या, न जाने कितनी बेदारी के साथ मैं गाड़ी चला रहा था। मैं अच्छी-खासी दूर भी निकल आया था। लेकिन अचानक मुझे लगा कि बीच में बिजली का खंभा आ गया है। स्ट्रीट लाइट के बारे में न पूछिएगा। मुझे कुछ याद नहीं है। टक्कर हुई या नहीं हुई, मुझे नहीं मालूम, क्योंकि आवाज मैंने सुनी नहीं। मुझे लगा मेरी नींद और गहरी हो गई और जब उठा तो अस्पताल में था। बीच का हाल मझे मालम नहीं। वह सब वही सना सकती हैं। अब अपने ऊपर गुजरे वाकये के उस हिस्से पर यकीन करने के अलावा हम लोगों के पास कोई चारा भी नहीं है। मुझे इतना मालूम है कि अंडे तो आए नहीं, अंडे के छिलके मेरे हाथ पर छः हफ्ते के लिए चिपके रहे।
भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’
