panchtantra ki kahani वह बहेलिया दयामय बन गया
panchtantra ki kahani वह बहेलिया दयामय बन गया

एक बहेलिया था । बड़ा ही क्रूर और कठोर दिल वाला । एक दिन वह किसी शिकार की तलाश में जंगल में भटक रहा था । तभी अचानक एक कबूतरी पर उसकी ध्यान गया । कबूतरी को असावधान जानकर बहेलिए ने झट से उसे पकड़ लिया और अपने पिंजरे में बंद कर लिया ।

इसके बाद बहेलिया वापस घर लौटने की बात सोच रहा था, पर इतने में ही खूब जोर से बारिश आ गई । तेज ओले भी पड़ने लग गए । सर्द हवाओं की ठिठुरन से बहेलिया खासा परेशान हो गया ।

आखिर बहेलिया सर्दी से अकुलाकर दुखी सा उसी पेड़ के नीचे आकर पड़ गया, जिस पर कबूतर बैठा था । बहेलिया बुरी तरह ठंड से ठिठुर रहा था और एकदम अशक्त था । उसमें उठकर बैठने की भी शक्ति नहीं थी ।

उधर कबूतर ने कुछ समय तक कबूतरी का इंतजार किया । वह बुरी तरह भयभीत और अकुलाया हुआ था । पर फिर उसका ध्यान पिंजरे में कैद कबूतरी की ओर गया । देखकर वह बेहद दुखी हुआ । बोला, “हाय कबूतरी! तुम तो बड़े भारी कष्ट में पड़ गई हो । देखो, मैं तुम्हारे पास पेड़ पर हूँ । पर कितना हत भाग्य हूँ मैं कि चाहते हुए भी कुछ नहीं कर पा रहा । मैं तुम्हें जीवन में कोई सुख नहीं दे पाया और अब जब तुम विपत्ति में पड़ गई हो, तब भी मैं कितना लाचार हूँ । उस पति को धिक्कार है जो पत्नी को पीड़ित और दुखी देखकर भी उसके लिए कुछ नहीं कर पाता ।”

कबूतर की बात सुनकर कबूतरी ने कहा, “हे प्राणप्रिय, तुमने मुझे हर तरह का सुख दिया है । जिस स्त्री को पति का प्रेम मिल जाता है, उसका एक दिन का सुख-सौभाग्य भी सौ वर्षों के बराबर है । इसलिए तुम दुखी मत होओ और न इस बहेलिए पर क्रोध करो । इसका काम तो पक्षियों को पकड़कर मारना ही है । मैं नहीं तो कोई और परिंदा इसके पिंजरे में आकर बंद हो जाता । यह तो हम सब प्राणियों का स्वभाव है । सब अपने अपने स्वभाव के अनुसार काम करते हैं । अतः दुख छोड़कर अब यह सोचो कि बहेलिया हमारे घर आया है, हमारा मेहमान है । हम भला कैसे इसका सत्कार करें?”

इस पर कबूतर गुस्से में आकर बोला, “तो क्या मैं इस क्रूर आदमी को अतिथि मानकर सत्कार करूं, जिसने मेरी प्राणप्रिया कबूतरी को हर लिया है और जिसे यह घर जाते ही मार डालने की बात सोच रहा है?”

पर कबूतरी के बार-बार जोर देने और अनुरोध करने पर कबूतर बोला, “ठीक है, इस आदमी के आतिथ्य के लिए मैं कुछ करता हूँ ।”

उसी समय कबूतर उड़कर गया । कहीं से जलती हुई लकड़ियाँ उठा लाया और उन्हें बहेलिए के निकट लाकर डाल दिया । इससे बहेलिए को थोड़ी गरमी महसूस हुई । थोड़ी ताकत भी आई । वह थोड़ा-थोड़ा हिलने डुलने लायक बन गया और उठकर बैठ गया ।

कबूतर बोला, “भाई माफ करना । घर आए अतिथि का जिस तरह स्वागत करना चाहिए मैं नहीं कर पा रहा हूँ । मैं साधनहीन हूँ । लिहाजा मुझे खाकर ही आप अपनी भूख मिटा लें ।” कहकर कबूतर उड़ता हुआ उस आग में आकर गिर गया ।

देखकर बहेलिया दुखी होकर आर्तनाद करने लगा । इसी दुख के आवेग में उसने पिंजरे को खोला और कबूतरी को मुक्त कर दिया, ताकि वह जहाँ चाहे, जा सके ।

कबूतरी ने अभी-अभी अपने पति को आग में कूदकर प्राणांत करते देखा था । वह आर्तनाद करते हुए बोली, “हे प्रिय, जब तुम ही नहीं तो भला मैं भी जीकर क्या करूँगी?”

कहते-कहते वह भी उसी आग में कूद पड़ी । देखते-देखते कबूतर और कबूतरी दोनों भस्म हो गए ।

बहेलिए ने अपनी आँखों से इतना भीषण दृश्य देखा था । वह समझ गया कि वह जो हिंसापूर्ण कर्म करता है, उसी का यह नतीजा है कि कबूतर और कबूतरी दोनों को अपने प्राण देने पड़ गए ।

इस बात से बहेलिया इतना दुखी हो गया कि वह उसी समय उठा और पागलों की तरह जंगल में भटकने लगा । उसका वेश अजीब सा हो गया । जगह-जगह कँटीली झाड़ियों से उसका शरीर घायल हो गया । लेकिन उसी तरह वह जंगल में यहाँ से वहाँ भटकता रहा । वह दीन-दुखियों का दुख देख, अपने आपको कष्ट देकर भी उनकी मदद करता ।

उसमें इतना बड़ा बदलाव देखकर सब उसकी जी भरकर तारीफ करते थे । लोगों ने अब उसका नाम रख दिया था, दयामय ।

दयामय बना बहेलिया जंगल में बहुत समय तक जिया । अब जंगल के सारे प्राणी भी उसे खूब प्यार करने लगे थे