panchtantra ki kahani सुनी जब गोरंभ की बात
panchtantra ki kahani

पूर्व दिशा में वर्द्धमान नगर में एक व्यापारी रहता था । उसका नाम था दंतिल । दंतिल का सोने-चाँदी, रत्न और आभूषणों का व्यापार था जो दूर-दूर तक फैला हुआ था । इसलिए उसकी गिनती राज्य के सबसे धनी और समृद्ध लोगों में होती थी । स्वयं राजा भी दंतिल से बहुत प्रेम करते थे और बहुत से राजदरबारी भी उससे मिलने आते थे ।

एक बार की बात, दंतिल की बेटी का विवाह था । उसने नगर के सभी धनी और प्रतिष्ठित लोगों को बुलाया था । राजा, दरबारी और राज्य के प्रमुख अधिकारी भी आमंत्रित थे । जब राजा आए तो उनके साथ उनका सेवक गोरंभ भी था । गोरंभ राजा का बड़ा मुँह लगा सेवक था । जिस जगह राज्य के विशिष्ट लोगों के लिए आसन लगे थे, गोरंभ भी ढिठाई से वहीं जाकर बैठ गया । इससे दूसरे लोगों को बड़ी परेशानी हो रही थी । खुद दंतिल भी गोरंभ की बदतमीजी देखकर कुछ परेशान था । उसने सोचा, गोरंभ खुद ही उठ जाए तो अच्छा है । पर वह तो ढीठ बनकर वहाँ बैठा हुआ था ।

कुछ लोग यह देखकर नाक-भौं सिकोड़ रहे थे । तब आखिर दंतिल खुद वहाँ गया और गोरंभ को वहाँ से उठाकर उसने किसी अन्य स्थान पर बैठने के लिए कहा ।

सुनकर गोरंभ को बहुत बुरा लगा । उसका मुंह फूल गया, जैसे कह रहा हो, “दंतिल, तुम मुझे जानते नहीं हो कि मैं क्या कर सकता है?”

इसके कुछ समय बाद की बात है । राजा अपने शयन-कक्ष में सो रहा था और गोरंभ कमरे की सफाई कर रहा था ।’ फर्श पर झाडू लगाते हुए उसने अपने होंठों में ही बुदबुदाते हुए कहा, “हद है, यह दंतिल भी अपने आपको जाने क्या समझता है? फिर राजा ने भी तो इसे इतनी खुली छूट दे दी है । तभी तो वह लोगों से कह रहा था कि मेरी हैसियत तो इस राज्य में राजा से भी बढ़कर है । मैं किसी राजा से कम थोड़े ही हूँ । और उसके कुछ काम तो ऐसे ओछे हैं कि राम-राम, कहते भी शर्म आती है । उसने तो महारानी तक को अपने प्रभाव में लेने की कोशिश की । पर क्या कहें, हमारे राजा ने ही उसे ऐसे सिर पर चढ़ा दिया है कि….. “

गोरंभ जब यह बुदबुदा रहा था, तो पलंग पर लेटे हुए राजा के कानों में भी उसकी बात पड़ गई । राजा कुछ सोए कुछ जागे हुए थे । गोरंभ को बुदबुदाते देख समझ गए कि दंतिल का घमंड बहुत बढ़ गया है । और उसने कोई ऐसा काम किया है जो बहुत बुरा है ।

उसी दिन से राजा ने अपने राज कर्मचारियों से कहा, “आज से हमारे राजदरबार के कपाट दंतिल के लिए बंद रहेंगे । खबरदार जो वह कभी यहां पैर भी रख पाया तो ।”

सुनकर सब हैरान थे, अरे, यह क्या हो गया?

कुछ समय बाद दंतिल राजा से मिलने आया, तो राज कर्मचारियों ने उसे बाहर से ही लौटा दिया । दंतिल गुहार करता रहा कि एक बार मुझे राजा से मिल तो लेने दो, पर किसी ने उसकी नहीं सुनी । ही, गोरंभ ने जरूर बड़े व्यंग्य से कहा, ‘’ अरे भई ये तो राजा के बड़े खासमखास हैं । अपने को न जाने क्या तीसमार खाँ समझते हैं और जब चाहे किसी का भी अपमान कर देते हैं । इन्हें तो एक बार राजा से मिल लेने दो । “

सुनकर दंतिल समझ गया, गोरंभ के मन में उसी दिन के अपमान का काँटा चुभा हुआ है और यह सब उसी का किया- धरा है ।

उसने समझ लिया कि अब गोरंभ को मनाए बिना बात नहीं बनने वाली ।

आखिर कुछ दिन बाद दंतिल ने गोरंभ को अपने घर भोजन पर आमंत्रित किया । उसके लिए भांति-भांति के पकवान बनवाए गए । दंतिल ने खुद बड़े प्यार से उन्हें परोसा । उसे बड़े सुंदर और बेशकीमती उपहार भी दिए । फिर बड़ी विनम्रता से कहा, ‘’ भाई गोरंभ, मैं जानता हूँ तुम्हारे प्रति उस दिन का व्यवहार मेरा ठीक नहीं था । खुद मुझे इस बात का बड़ा भारी दुख है । और आज तक मेरे मन में बड़ी अशांति है । फिर भी देखो भाई, समाज की एक मर्यादा होती है । उसके लिए कभी कोई अप्रिय काम करना पड़े तो मित्र और आत्मीय लोग बुरा नहीं मानते । तुम्हारे प्रति तो मेरा प्रेम इतना अधिक है कि मैं क्या कहूँ? तुम मुझे माफ कर दो तो मुझे कुछ चैन पड़े । “

सुनकर गोरंभ बोला, ‘’ नहीं, नहीं । आप कृपया ऐसा न कहें । बल्कि उलटा मुझे क्षमा कर दें । मुझे आप इतना शर्मिंदा न करें । मैं समझता हूं आपने उस दिन जो किया, उचित ही था । उसमें बुरा मानने की तो कोई बात नहीं थी । “

गोरंभ दंतिल के घर से लौटा तो उसका मन शांत था । उसका दुख और क्रोध खत्म हो चुका था । वह सोच रहा था, अब मुझे कोई ऐसा तरीका निकालना चाहिए कि राजा फिर से दंतिल के प्रति पहले जैसा व्यवहार करने लगें ।

और जल्दी ही उसे एक ऐसी बात सूझ गई कि वह, अकेले में ही मुसकरा दिया ।

अगले दिन गोरंभ राजा के शयन-कक्ष की सफाई कर रहा था और राजा पलंग पर लेटे हुए थे । उसी समय उन्होंने दंतिल की बड़बड़ाहट सुनी । वह फर्श पर झाडू लगाता हुआ धीरे-धीरे बुदबुदाकर कह रहा था, “हमारा राजा भी अजीब है । सच्ची-मुच्ची, बड़ा अजीब! कभी-कभी तो ऐसे काम कर देता है कि हँसी आती है । अब यही देखो कि वह ऐसे वक्त ककड़ी खाता है कि अगर मैं कह दूँ तो सारी दुनिया हंसेगी । पर मुझे क्या जरूरत है कहने की? मैं तो उसे रोज बेवक्त में ककड़ी खाते देखकर हँसता हूँ तो देर तक हँसता ही रहता हूँ और भैया रे, मेरी तो हँसी रुकने में ही नहीं आती ।”

कहकर गोरंभ अकेले में ही हँसने लगा ।

पलंग पर लेटे राजा ने भी गोरंभ की यह बड़बड़ाहट सुनी, तो उन्हें हँसी आ गई । सोचने लगे ‘यह गोरंभ भी बड़ा अजीब है! जाने कैसी-कैसी ऊटपटाँग बातें बोला करता है । और मैं हूँ कि मैंने बेवजह उसकी दंतिल के बारे में कही गई बात सही मान ली और उसे राजदरबार में घुसने तक नहीं दिया । भला गोरंभ की एकदम बेतुकी और बेसिर-पैर की बातों का भरोसा करके मुझे दंतिल जैसे भले शख्स का अपमान करने की क्या जरूरत थी? मैंने उन बेसिर- पैर की बातों को सच समझ लिया और तभी से…!’

“अरे, दंतिल भी जाने क्या सोचता होगा । उसने समय-समय पर मेरी इतनी मदद की और मैं…!” कहते-कहते राजा कुछ सोचने लगे ।

अगले दिन राजा ने दंतिल को खुद राजमहल में बुलवाया और कहा, “पिछली बातें भूल जाओ । अब हम फिर से मित्र हैं ।”

दंतिल को समझ में नहीं आया कि राजा का मन एकाएक बदल कैसे गया? उसने ईश्वर को लाख-लाख धन्यवाद दिया और फिर से राजदरबार में उसका पहले की तरह आना-जाना शुरू हो गया ।