प्राचीन काल में किसी नगर में वर्द्धमान नाम का एक व्यापारी रहता था । उसके पास धन-धान्य सब कुछ था । किसी चीज की कमी नहीं थी । फिर भी उसके मन में आया कि अब अपने व्यापार को और बढ़ाना चाहिए । आखिर उसने व्यापार के सिलसिले में मथुरा नगरी जाने का निर्णय किया ।
पति को बाहर जाने की तैयारी करते देख, पत्नी ने कहा, “आखिर आपको यहाँ किस चीज की कमी है? अपने घर में सब कुछ है । फिर बाहर जाकर न जाने किस तरह का दुख झेलना पड़े, कौन सी विपत्ति पीछे पड़ जाए? मेरी समझ में नहीं आता, आपको घर छोड़कर बाहर जाने की जरूरत ही क्या है?”
व्यापारी वर्द्धमान ने पत्नी को समझाया, “जो लोग आगे का नहीं सोचते और सिर्फ आज से ही संतुष्ट हो जाते हैं, उनका कल कभी अच्छा नहीं हो सकता । आदमी को हमेशा अपने भविष्य के बारे में सोचना चाहिए । और उन्नति की कोशिश करते रहना चाहिए । “
इस पर सीधी-सरल पत्नी भला क्या कहती? वह चुप हो गई ।
वर्द्धमान ने बैलगाड़ियों पर ढेर सारा सामान लदवाया । फिर खुद भी एक अच्छी सी बैलगाड़ी पर बैठकर मथुरा की ओर चल पड़ा । उसकी बैलगाड़ी में दो बड़े ही सुंदर और पुष्ट बैल जुते हुए थे । उनमें एक था संजीवक और दूसरा नंदक । व्यापारी वर्द्धमान बड़े उत्साह से बैलगाड़ियों पर सामान लादे, भविष्य की सुंदर कल्पनाएँ करता हुआ मथुरा नगरी की ओर बढ़ा जा रहा था ।
अचानक एक जगह उसे कुछ धक्का सा लगा और वह लड़खड़ाकर बैलगाड़ी में ही गिर गया । तब उसे समझ में आया कि अरे, यह बैलगाड़ी तो दलदल में फँस गई है । सबसे बुरी हालत तो उसके सुंदर बैल संजीवक की थी, जो किसी भी तरह उस भीषण दलदल से निकल नहीं पा रहा था ।
वर्द्धमान ने संजीवक को दलदल से निकालने की बहुत कोशिश की, पर निकाल नहीं पाया । उसने सोचा, आसपास कोई पथिक नजर आए तो उसकी भी मदद ले लूँ । पर वह सुनसान रास्ता था । कहीं कोई व्यक्ति नजर ही नहीं आया । तब व्यापारी ने सोचा, ‘अब यहाँ रुके रहने की बजाय आगे चल देना ही अच्छा है अंधेरा हो जाने पर चोर-डाकुओं ने लूट लिया तो और आफत आ जाएगी । इसलिए अब झटपट यहाँ से चल देना चाहिए ।’
आखिर व्यापारी वर्द्धमान ने घायल संजीवक को वहीं छोड़ा और नंदक को साथ लेकर किसी तरह आगे की यात्रा पूरी करने लगा ।
संजीवक ने यह देखा तो उसे बड़ा दुख हुआ । वह सोचने लगा, आह यही मेरा मालिक है न, जो सुबह-शाम मेरी पीठ पर कितने प्यार से हाथ फेरता था । मुझे खिलाए बगैर कभी कुछ खाता नहीं था और सारे गांव वालों से कहता था कि देखो, संजीवक से सुंदर बैल पूरे गांव में कोई दूसरा है क्या? पर आज मैं विपत्ति में पड़ा हूं तो यही मेरा मालिक कितना निष्ठुर होकर मुझे छोड़कर आगे चला जा रहा है । शायद यही समय का फेर है ।’
फिर भी संजीवक ने किसी तरह खुद को धीरज बँधाया । इसे समय और भाग्य की लीला समझकर सोचने लगा, शायद आगे कुछ अच्छे दिन आएँ ।
और जैसा उसने सोचा था, हुआ भी वही । संजीवक जिस तालाब के गहरे दलदल में फँसा था, वहीं रहते हुए और आसपास की सुंदर, हरी-हरी घास खाते हुए धीरे-धीरे मजबूत होता चला गया । उसका शरीर भर गया और जंगल की खुली हवा में रहने के कारण उसमें पहले से कई गुनी ज्यादा ताकत आ गई । वह मजे में खाता और बड़े जोर की गर्जना करता था, जिससे पूरा जंगल काँप उठता था ।
उस वन का राजा था पिंगलक । संजीवक की जोर की गर्जना सुनकर सबसे ज्यादा तो उसी का दिल बैठ जाता था । शेर डरकर सोचता था, शायद इस जंगल में कोई ऐसा भीषण जंतु आ गया है जो महा बलशाली है । अब तो मेरा इस जंगल में रहना ही कठिन है । लगता है, मुझे यह जंगल छोड़कर कहीं और जाना होगा ।’
शेर पिंगलक संजीवक की भीषण गर्जना से इस कदर दहल गया था कि अब वह उस तरफ जाकर झाँकता भी नहीं था, जिधर से यह गर्जना आती थी । उसका चेहरा पीला पड़ गया था, जैसे किसी ने उसकी सारी ताकत निचोड़ ली हो ।
पिंगलक के दरबार में दो सियार थे-दमनक और करटक । दोनों आपस में भाई थे । करकट बड़ा था और दमनक छोटा । उनके पिता कभी राजा पिंगलक के मंत्री रहे थे । पिंगलक के दरबार में करटक और दमनक को भी कभी ऊँचा स्थान हासिल था । लेकिन आजकल बेचारे उपेक्षित थे । इस बात से दोनों मन ही मन दुखी रहते थे ।
दमनक ने एक बार राजा पिंगलक की हालत देखकर अपने भाई करटक से कहा, ‘’ लगता है, हमारा राजा आजकल कुछ परेशान है । हमें उसकी कुछ मदद करनी चाहिए । “
करटक बोला, “हमें राज-काज के मामलों से क्या लेना? इन चीजों से हम जितना दूर रहें, उतना ही अच्छा है ।”
पर दमनक चतुर था । वह नहीं माना रजा पिंगलक के पास जाकर बोला, ‘’ महाराज, लगता है आप किसी बड़ी चिंता में हैं । अगर आप चाहें तो अपने इस सेवक को भी बताइए । हो सकता है मैं आपके किसी काम आ सकूँ ।”
सुनकर पिंगलक का चेहरा और भी पीला पड़ गया । उसने कहा, “बात यह है दमनक कि इस जंगल में कोई भयंकर प्राणी आ गया है, जिसकी गर्जना से पूरा जंगल दहल उठता है । लगता है, हमें इस वन को जल्दी ही छोड़ देना चाहिए । मैंने अपने मंत्रियों से भी सलाह की है । सबका यही कहना है कि संकट के समय अपना घर या स्थान छोड़ देने में कोई बुराई नहीं है ।”
दमनक बोला, “महाराज, पहले आप मुझे उस भयंकर जीव की एक बार शक्ल तो देख लेने दीजिए । फिर अगर वन को छोड़ना ही ठीक होगा तो फिर वैसा कर लेंगे ।” पिंगलक थोड़ी घबराहट के साथ बोला, “तो क्या तुम उस भयंकर गर्जना करने वाले जीव को देखने के लिए कछार की ओर जाओगे? यह तो बड़ा खतरनाक है, जरा अपना खयाल रखना ।”
दमनक उसी समय दलदल की ओर चल पड़ा, ताकि भयंकर गर्जना करने वाले जीव की शक्ल एक बार देख ले । वह उसके बारे में तरह-तरह की कल्पनाएँ कर रहा था । पर दूर घास खाते हुए संजीवक को उसने देखा तो उसे हँसी आ गई । सोचने लगा, ‘अरे, हमारे राजा पिंगलक क्या इसी बैल से डर रहे हैं? यह तो बड़ी अजीब बात है ।’
दमनक ने राजा पिंगलकके पास आकर कहा, “महाराज, मैंने उस जीव की शक्ल देख ली है । वह वाकई बलवान है और शिव का भक्त है । लेकिन अगर आप चाहें, तो मैं उसे आपके चरणों में लाकर बैठा सकता हूँ ।
सुनकर पिंगलक को यकीन नहीं हुआ । हैरान होकर बोला, ‘’ अच्छा! तुम ऐसा कर सकते हो? यह तो बड़ी अच्छी बात है । मैं तुम्हें वचन देता हूँ कि अगर तुम सफल हो गए तो मैं तुम्हें अपना मंत्री बना लूंगा ।”
“ठीक है महाराज ।” कहकर दमनक उसी समय संजीवक से मिलने चल दिया । घास चरते हुए संजीवक के पास आकर दमनक ने थोड़ी फटकारती हुई आवाज में कहा, “चल, चल रे ओ बैल! तुझे हमारे राजा पिंगलक ने बुलाया है । तूने पूरे जंगल की शांति खत्म कर दी है । आज तुझे मजा चखाया जाएगा ।” दमनक की बात सुनकर संजीवक हक्का-बक्का रह गया । बोला, “भाई, यह पिंगलक कौन है, तुम मुझे जिसके पास ले जाना चाहते हो?”
“अच्छा, तो तुझे पिंगलक के बारे में ही नहीं पता? पिंगलक हैं हमारे राजा! इस जंगल के राजा । उनकी आज्ञा के बगैर इस जंगल में पता तक नहीं हिलता और तूने बेवजह शोर मचा-मचा करके इस सारे जंगल को परेशान कर रखा है । अब राजा पिंगलक तेरी अच्छी खबर लेंगे ।”
सुनकर संजीवक के तो होश उड़ गए सारी मस्ती गायब हो गई । उसने गिड़गिड़ाते हुए दमनक से कहा, “भाई, जैसा तुम कहते हो, मैं पिंगलक के पास चलने को तैयार हूँ । पर तुम्हें भी मेरी प्राण-रक्षा का वचन देना होगा, ताकि पिंगलक किसी तरह मुझे नुकसान न पहुंचाए ।”
दमनक बोला, “ठीक है । जब तुम ऐसी करुण प्रार्थना खर रहे हो, तो मुझे भी कुछ सोचना होगा । “
आखिर दमनक संजीवक को साथ लेकर राजा पिंगलक से मिलवाने चल दिया । कुछ दूर जाकर बोला, “तुम यहीं ठहरो । राजा पिंगलक तुमसे बहुत नाराज हैं । मैं उनका गुस्सा शांत करके आता हूँ । तब तुम मेरे साथ चलना ।”
फिर उसने पिंगलक के पास जाकर कहा, “महाराज, भयानक गर्जना करने वाला वह जंतु आ गया है । वह आपसे मित्रता चाहता है । पर उसने प्राण-रक्षा का वचन माँगा है ।”
पिंगलक हैरान होकर बोला, “अच्छा! तो तुम जल्दी से उसे यहां ले आओ ।”
अब दमनक झटपट संजीवक को साथ लेकर पिंगलक के पास गया । दोनों ने दूर से ही एक-दूसरे को देखकर पहचान लिया कि उनमें काफी बल है । संजीवक और पिंगलक दोनों खुशी-खुशी एक-दूसरे से मिले और दोस्ती का वादा किया ।
उस दिन के बाद से वे दोनों आदर्श दोस्तों की तरह रहने लगे । पिंगलक अपने मन की हर बात संजीवक को बताता और संजीवक था ज्ञानी । वह पिंगलक को ऐसी ज्ञानपूर्ण कहानियाँ सुनाता कि उसका मन खुश हो जाता । दोनों लंबे समय तक ज्ञान-चर्चा करते रहते । जंगल में खासी शांति का माहौल था । पिंगलक का स्वभाव भी अब काफी बदल गया था ।
लेकिन यह बात अगर किसी को सबसे बुरी लगती थी तो दमनक को । उसने संजीवक और पिंगलक को एक-दूसरे से मिला तो दिया था, पर वे दोनों रात-दिन जिस तरह की ज्ञान-चर्चा में लगे रहते थे, उससे दमनक को बड़ी परेशानी होती थी । सोचता था, ‘यह तो मैंने बड़ी आफत मोल ले ली । बेकार संजीवक को राजा पिंगलक से मिलवा दिया । खुद तो यह ज्ञानी- ध्यानी है ही, लगता है, हमारे राजा पिंगलक को भी पूरा वैरागी बनाकर छोड़ेगा । तब यह राज-काज क्या करेगा? किसी तरह संजीवक को रास्ते से हटाना चाहिए ।’
आखिर एक दिन कुछ सोचकर दमनक राजा पिंगलक के पास गया । बोला, “महाराज, मैं कहना तो नहीं चाहता था, पर बात कुछ ऐसी है कि कहे बगैर रहा भी नहीं जाता । संजीवक को आप अपना सबसे अच्छा मित्र समझते हैं, पर वह आपको मारकर आपके राज्य को हड़पने की योजना बना रहा है ।”
सुनकर पिंगलक के मुख से दुख-भरा चीत्कार निकला । बोला, “संजीवक, हाय, यह तुमने क्या किया? तुम कहते तो यह पूरा राज्य मैं तुम्हें ऐसे ही दे देता । पर मित्रता की आड़ में इतना बड़ा धोखा?”
कुछ समय बाद दमनक संजीवक के पास गया और बोला, “भाई, राजा पिंगलक का विश्वास आप पर से उठ गया है । उसने मुझे खुद कहा है कि मैं संजीवक को मारकर खा जाऊँगा । मुझे राजा की गुप्त बातें कहनी तो नहीं चाहिए पर तुम मेरे भाई सरीखे हो तो कैसे न कहूँ? अब जैसे भी हो, अपने को बचाओ ।”
संजीवक के लिए यह बात कलेजा चीर देने वाली थी । वह जोर से आर्तनाद कर उठा । बोला, ‘’ हाथ पिंगलक मैंने तुम्हें मित्र समझा था, पर तुमने साबित कर दिया कि राजा के सत्ता-मोह और घमंड के आगे दोस्ती का कोई मोल नहीं । हाय, अब मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ? मुझे तो अपना जीवन ही व्यर्थ लग रहा है । “
अगले दिन संजीवक पिंगलक से मिलने गया, तो पिंगलक ने भीषण गर्जना की । जवाब में संजीवक ने भी माथा तानकर लाल-लाल आँखों से उसे देखा, जैसे कह देना चाहता हो कि तुम मुझ पर आक्रमण करोगे तो मैं भी कोई ऐसा गया-बीता नहीं हूँ कि तुम्हारा जवाब न दे सकूँ ।
उसी समय राजा पिंगलक ने गुस्से में आकर संजीवक पर छलाँग लगा दी । अब क्या था! दोनों में भीषण युद्ध होने लगा । दोनों ही बलवान थे इसलिए देर तक एक-दूसरे से जूझते रहे । फिर आखिर पिंगलक ने संजीवक को मार ही डाला ।
लेकिन संजीवक की मित्रता की बातें अब भी उसे याद आ रही थीं । संजीवक के मरते ही वह विलाप करता और फूट-फूटकर रोता हुआ उसकी बातों को याद करने लगा । उसके मुख से बार-बार ‘ हाय, मित्र !.. .हाय, मित्र, शब्द निकल रहे है ।’
तब चालाक दमनक ने ऊपरी ज्ञान बखारते हुए कहा, “महाराज, आप तो महान राजा हैं । संजीवक आपके सामने एक पिद्दी से ज्यादा क्या था? आपने ही उसे सिर चढ़ाया और उसका दिमाग खराब किया । फिर अगर आपने उसे मार डाला तो इसमें रोने और पश्चात्ताप करने की क्या बात है?”
सुनकर पिंगलक ने भी किसी तरह खुद को समझाया और फिर से राजकाज में रुचि लेने लगा ।
दमनक की अब पौ बारह थी । राजा शेर के बाद राज्य में अब सबसे ज्यादा उसी की तूती बोलती थी । यहाँ तक कि बड़े से बड़े बलवान तक भी अब उससे आँख मिलाने का साहस नहीं कर पाते थे ।