चंचल व निश्चल मन की काव्या की जिद के आगे उसे आखिर झुकना ही पड़ा, अपना फैसला बदलना पड़ा। एक दिन कोर्ट में जाकर सिविल मैरिज फिर एक छोटी सी पार्टी के बाद अब वो मिस नीरा दास से मिसेज नीरा दास बजाज बन गई।
आज नीरा का मन सुबह से ही न जाने क्यों उदास था। कालेज के गेट से बाहर निकलते ही कार से उतरते हुये व्यक्ति की ओर उसका ध्यान गया तो वह धक् से रह गई। कार रोक कर उसने अधेड़ उम्र के युवक को एक लम्बे अर्से बाद देखकर पहचानने की कोशिश की। वही पुराना अंदाज, चेक की शर्ट, गागल्स से झांकती हुई आंखें कुछ बयान कर रही थीं
कहीं ये उसका वहम तो नहीं, यह सोचते हुये उसने अपने मन को तसल्ली देने की कोशिश की। नहीं, ये दीप तो नहीं हो सकता। वह तो कनाडा में है। वो यहां कैसे हो सकता है।
कुछ पल के लिये तो अचानक ही आंखों से निकलती अविरल धारा ने अतीत के पन्नों को खोल कर रख दिया। उसने रिवर्स करते हुये कार को वापस कालेज की ओर मोड़ा। कार पाॄकग में खड़ी करते ही मिसेज कपूर मिलते ही बोल पड़ी, ‘अरे नीरा, तुम तो आज आंटी को हॉॅस्पिटल ले जाने वाली थी चैकअप के लिये।’
‘सारी। डाक्टर का अपाइमेन्ट कल का है। मैं भूल गई थी।’
‘नीरा तुम काम का टेंशन आजकल कुछ ज्यादा ही लेने लगी हो। मेरी मानो तो कुछ दिन मां को लेकर हिल स्टेशन चली जाओ।’ मिसेज कपूर ने नीरा को प्यार से डांटने के अंदाज से कहा।
‘ओ.के. मैडम। जो हुकूम मेरी आका’, कहते हुये नीरा ने व्हाइट कलर की कार की ओर नजर उठाई। तब तक दीप कालेज के गेट के अन्दर आ चुका था।
‘ये कपूर मैडम भी, बातों-बातों में कभी इतना उलझा लेती हैं’ मन-ही-मन बुदबुदाती हुई नीरा वापस अपने फाइन आर्ट डिर्पाटमेन्ट की ओर चली गई। देखा तो बरामदे में हाथ में फाइल लिये खड़ी लड़की ने ‘हलो मैडम’ कहकर हाथ जोड़कर अभिवादन करते हुये उससे कहा, ‘एक्सक्यूज मी, मुझे मैडम नीरा दास से मिलना है।’
‘मैं ही नीरा दास हूं। फाइन आर्ट में एडमिशन लेना है क्या?’
‘अरे वाह! सही पकड़ा आपने। पर मैम आपको कैसे पता चला कि मुझे फाइन आर्ट में एडमिशन चाहिये।’
‘बातें तो अच्छी कर लेती हो। मेरे पास कोई साइंस या कामर्स का तो स्टूडेन्ट आयेगा नहीं।’ नीरा ने कमरे का ताला खोलते हुये कहा।
तभी पीछे-पीछे अन्दर दीप भी आ गया और बेतकल्लुफ होकर बिना किसी दुआ सलाम के आकर कुर्सी पर बैठ गया। काव्या को पापा का ये व्यवहार अच्छा नहीं लगा। पर चाह कर भी वह कुछ नहीं बोल पाई। मन ही मन सोचने लगी कि पापा की तो बाद में घर पहुंच कर क्लास लूंगी।
उसने नीरा से कहा ‘मैडम, मैं फाइन आर्ट में एडमिशन लेना चाहती हूं। मैं उदयपुर से आई हूं।’
‘अरे झीलों की नगरी से। ब्यूटीफुल प्लेस।’
‘आप कभी गई हैं वहां पर।’
‘हां, एक बार कालेज टूर पर गई थी’ न चाहते हुये भी अचानक उसके मुंह से निकल ही गया।
‘अरे वाह तब तो मैं तो बहुत लकी हूं। आपको मेरा शहर पसन्द है। मेरे पापा कनाडा में रहते थे, पर अब जयपुर ही आ गये हैं, पर मैं बचपन से ही अपने नाना-नानी के पास उदयपुर में रह रही हूं।’
‘काव्या बेटा अपनी पूरी हिस्ट्री बाद में बता देना, पहले अपना फार्म तो फिलअप कर दो’, दीप ने अपनी चुप्पी तोड़ते हुये कहा।
नीरा ने संभलते हुये कहा- अरे आप बैठिये, मैं फार्म लेकर अभी आती हूं।
पास में ही पड़े हुये पानी की बोतल को मेज पर रखतेे हुये फोन से चाय का आर्डर देते हुये नीरा ने काव्या से कहा, ‘पहले काउन्टर नं. पांच पर जाकर फीस जमा कर दो।’
पापा के चश्मे से झंाकती हुई आंखों से काव्या ने पल भर में ही जान लिया कि जरूर नीरा मैडम व पापा के बीच कोई पुराना रिश्ता है।
‘पापा आप ठीक तो हैं?’ काव्या ने पापा के चेहरे पर छलकती पसीने की बूंदों को देखकर कहा।
‘डान्ट वरी। आई एम फाइन। दीप ने रूमाल से अपने चेहरे को पोंछते हुये कहा। तभी कैन्टीन का वेटर चाय लाकर टेबिल पर रख गया।
‘ओ.के. पापा। मैं काउन्टर से जब तक फार्म लेकर आती हूं।’ कहते हुये काव्या बाहर निकल गई।
‘सारी। काव्या कुछ ज्यादा ही बोलती है’, कहते हुये एक ही सांस में दीप पूरा गिलास पानी गटागट पी गया।
कलफ लगी गुलाबी रंग की साड़ी, माथे पर छोटी सी बिन्दी, होठों पर गुलाबी रंग की हल्की सी लिपिस्टिक, छोटा सा बालों का जूड़ा, कलाई में घड़ी सौम्यता व सादगी की वही पुरानी झलक आज बीस वर्षों के बाद भी नीरा को मूक दर्शक की तरह निहारते हुये कुछ देर बाद दीप ने चुप्पी तोड़ते हुये कहा, ‘नीरा, घर में सब कैसे हैं?’
‘तुम्हारे कनाडा जाने के बाद ही पापा का हार्ट फेल हो गया। सदमे में मां की हालत बिगड़ती चली गई। बस जिन्दगी जैसे तैसे गुजर रही है।’
‘अरे इतना कुछ हो गया और तुमने खबर तक नहीं की। क्या मैं इतना पराया हो गया।’
अपने भी तो नहीं रहे। तुम्हारी शादी के बारे में तो मुझे पता चल गया था। फिर मेरे पास तुम्हारा कोई पता-ठिकाना भी तो नहीं था।’ नीरा ने साड़ी के पल्लू से आसुंओं को छिपाने की कोशिश की।
‘तुम्हारी अपनी फैमिली?’
‘मैंने शादी नहीं की।’
‘क्यो?’
‘क्या शादी के बिना इन्सान जी नहीं सकता?’
‘अरे! मेरा ये मतलब नहीं था।’
‘अब कूची और केनवास ही मेरे हमसफर साथी हैं, जिनमें जब चाहे जिन्दगी के मनचाहे रंग मैं भर सकती हूं। बिना किसी रोक टोक के।’
बात पूरी हो पाती, इससे पहले काव्या हाथों में फार्म लेकर आते ही चहकते हुई बोली- ‘मैडम, ये रहा फार्म प्लीज आप जल्दी से फिलअप करवा दीजिये।’
‘काव्या यहां बैठो मैं भरवा देती हूं। जब तक दीप तुम मेरी आर्ट गैलेरी देख सकते हो।’ नीरा मैडम के मुंह से पापा का नाम सुनकर काव्या ने चौंकते हुये कहा- ‘अरे आप एक दूसरे को जानते हैं क्या?’
‘हां, काव्या नीरा मेरी क्लासमेट रह चुकी हैं, पूरे तीन साल तक राजस्थान यूनिवर्सिटी में।’
‘वाउ। अरे कमाल है। आपने तो कभी बताया ही नहीं कि जयपुर में भी आप कभी रह चुके है?’
‘बेटा, हमें जयपुर छोड़े तो बीस-बाइस साल हो गये। कभी बताने का मौका ही नहीं मिला। एक के बाद एक परेशानियां जीवन में आती रही।’
फार्म में दीपक बजाज के बाद लेट जया बजाज लिखते ही नीरा ने काव्या के फार्म पर हाथ रखते हुये कहा, ‘तुम कहीं गलत तो नहीं हो? ये लेट क्यों लिखा है।’
‘नहीं मैम, मेेरी मम्मी अब इस दुनिया में नहीं है।’
‘ओह! आई एम वेरी सारी।’
‘नीरा, काव्या जब दो साल की ही थी तब ही बिजनिस मीटिंग के लिये जाते वक्त एक कार एक्सीडेन्ट में जया…’ दीप ने रूंघे गले से कहा।
‘मम्मी की मौत के बाद नाना नानी कनाडा छोड़ कर इंडिया आ गये, तब से मैं उदयपुर में हूं। पापा से तो बस कभी साल में एकाध बार ही मिल पाती थी। पर अब हमेशा पापा के साथ ही रहूंगी।’
काव्या की आंखों में डबडबाते आंसुओं को देखकर नीरा ने काव्या का हाथ पकड़ कर कहा- ‘सारी मैंने गलत टाइम पर ये बात की। चलो पहले ये फार्म भर कर जल्दी से जमा करो। आज लास्ट डेट है।’
‘मैम प्लीज, आपका मोबाइल नं. मिल जायेगा। कुछ जानकारी लेना हो तो।’
‘नो प्रोबलम।’ नीरा ने अपना विजिटिंग कार्ड काव्या को दे दिया। फार्म भर कर काव्या फार्म जमा करने चली गई तब दीप ने अपना कार्ड देते हुये कहा, ‘अब मैं भी परमानेन्टली फिर से जयपुर में ही आ गया हूं। कनाडा हमें रास नहीं आया।’
‘पहले जया फिर मम्मी-पापा को खो देने के बाद वहां अब बचा ही क्या है? इन बीस-बाइस सालों में मैंने सब कुछ खो दिया है। सिवा पुरानी यादों के।’
‘ओ.के. बाद में मिलते हैं।’
‘घर आकर नीरा की आंखों में वही पुरानी यादों की धुंधली तस्वीरें ताजा होने लगीं। न चाहते हुये भी उसके मुंह से निकल गया, ‘मां आज वह दीप मिले थे।’
‘कौन दीप, वह सेठ भंवर लाल जी का बेटा।’
‘हां मां।’
‘अब यहां क्या करने आया है?’
‘मां उसके साथ बहुत बड़ी ट्रेजडी हो गई। अंकल आंटी भी चल बसे। और पत्नी भी। बेटी का एडमिशन कराने आये थे।’
‘ऐसे खुदगर्ज इन्सान के साथ ऐसा ही होना चाहिये।’
‘अ’! मां ऐसा मत कहो। क्या पता कोई मजबूरी रही हो।’
बेमन से ही डाइनिंग टेबिल पर रखा खाना मां को परोसते हुये नीरा ने कहा, ‘मां, आप खाना खा लीजिये। मुझे भूख नहीं है। दवाई याद से ले लेना। आज मेरे सिर में दर्द है। मैं जल्दी सोने जा रही हूं।’
अपने कमरे में जाकर उसने अलमारी से पुराना एलबम निकाला। ब्लेक एन्ड वाइट फोटोज का रंग भी उसके जीवन की तरह धुंधला पड़ चुका था। उदयपुर में सहेलियों की बाड़ी में दीप के साथ की फोटो के अलावा एक नाटक हीर-रांझा को देख कर पुरानी यादें ताजा होती गई। उसी दौरान तो उसकी दीप से दोस्ती गहरी होती गई पर बी.ए. आनर्स पूरा होते ही दीप जल्दी आने का कह कर अपने पापा के अचानक बीमारी की खबर आते ही कनाडा चला गया। फिर लौट कर ही नहीं आया। हां, कुछ दिनों तक कुछ पत्र जरूर आये, पर बाद में वे भी बन्द। बाद में दोस्तों से पता चला कि उसने किसी बिजनिसमेन की बेटी से शादी कर ली है।
वे सोचने लगी, ‘उसे तो ऐसे खुदगर्ज इन्सान दीप से बात ही नहीं करना चाहिये थी ताकि उसे अपनी गलती का अहसास तो हो।’ पर मन कह रहा था नहीं दीप आज भी मैं तुम्हें नहीं भुला पाई हूं। तुम्हारे बिना पूरा जीवन मैंने यादों के सहारे बिता दिया। पूरी रात आंखों में पुरानी यादों की तस्वीरों को सहेजते देखते कब सवेरा हो गया उसे पता ही नहीं चला।
समय पंख लगाकर तेजी से बीत रहा था। न जाने क्यों न चाहते हुये भी क्लास में काव्या को देखते ही नीरा को उसमें दीप की ही छवि नजर आती। उसकी हंसी, बातचीत का पूरा अन्दाज उसे दीप जैसा ही लगता।
रविवार के दिन वह सुबह उठकर जैसे ही लान में चाय पीने बैठी ही थी कि बाहर हार्न की आवाज सुनाई दी। उसने माली को आवाज देकर कहा, ‘रामू काका, देखना कौन है?’
गेट खोलते ही देखा तो वह चौंक पड़ी। देखा कि दीप और काव्या हाथों में गुलाब का गुलदस्ता लेकर आ रहे हैं।
‘अरे आप लोग यूं अचानक।’
‘ढेर सी शुभकामनायें। हैप्पी बर्थ डे।’
‘थैंक्स। पर मैं तो कभी अपना बर्थ डे सेलिब्रेट नहीं करती।’ न चाहते हुये उसने गुलाब के फूलों का बुके ले ही लिया।
‘क्या करूं बहुत दिनों से अपने मन की बात करना चाहता था। तुमसे माफी मांगना चाहता था। आज रात भर काव्या ने मुझे सोने नहीं दिया। हमारे कालेज टाइम से अलग होने तक की कहानी पूछती रही। मैं तुम्हारा गुनहगार हूं। मेरी तो हिम्मत नहीं हो रही थी तुम्हारे घर आने की।’
‘नीरा मैम। आपकी मैं आज पूरी गलत फहमी दूर कर देती हूं। मेरे दादाजी के बिजनिस में घाटा लग जाने पर पापा को कनाडा अपनी बीमारी का बहाना बनाकर बुला लिया और वहां अपने बिजनिस पार्टनर की बेटी मेरी मम्मी से जबरन ही शादी करवा दी। ये सब इतनी जल्दी में हुआ कि पापा को सोचने का टाइम भी नहीं मिला। पापा की आंखों में मैं पछतावे की लकीरें कई सालों से महसूस कर रही हूं।
वह मन के तार से आपसे आज भी जुड़े हैं। आपसे उनका दर्द का रिश्ता जरूर है। प्लीज, आप उन्हें माफ कर दीजिये।’ काव्या ने एक नया रिश्ता जोड़ने की गरज से अपनी बात कही।
नीरा वहां बैठी मौन मूक सी आकाश में शून्य को निहारती रही। काव्या व दीप को विदा कर उसने चुपचाप अपनी कार निकाली। यूं अचानक ही दीप व काव्या के आ जाने से उसके जीवन में एक भूचाल सा आ गया था।
दूसरे दिन से फिर वही रूटीन, कालेज में क्लासेज, मीटिंग के साथ पेंटिंग प्रदर्शनियों की तैयारी में व्यस्तता। प्रदर्शनी में एक पूरी सीरीज काव्या की पेन्टिंग्स की थी। बेटी बचाओ बेटी पढाओ, नारी सशक्तीकरण व सीनियर सिटीजन थीम पर। उसकी अंगुलियों में सचमुच जादू था।
काव्या की पेन्टिंग के चर्चे पूरे कालेज में मशहूर होने लगे। तीन साल पलक झपकते ही कैसे गुजर गये, पता ही नहीं चला। इन तीन सालों में वह और दीप बमुश्किल पांच-छह बार ही मिले होंगे पर फोन परं अक्सर बात हो जाती थी फिर वह चाहे काव्या की पढाई को ही लेकर हो।
काव्या ने बी.ए. फाइनल ईयर फाइन आर्ट में पूरे क्लास में टॉप किया। काव्या ने पार्टी अपने घर पर रखी। दोस्तों के चले जाने के बाद बातों-ही-बातों में उसने आखिर अपने मन की बात कह ही दी।
‘नीरा आन्टी लगता है कि अब तक आपने पापा को माफ कर दिया होगा। कुछ दिनों बाद मेरी शादी भी हो जायेगी और पापा तो एकदम अकेले ही रह जायेंगे। मेरे दादाजी की गलतियों की सजा पापा ने बीस-बाइस सालों तक भुगत ली। फिर आपने भी तो पूरा जीवन अकेले ही गुजार दिया।’
जीवन के आखिरी दिनों में बुढ़ापे में एक दूजे की सहारे की जरूरत होती है। चाहे वो एक पति के रूप में हो या दोस्त के रूप में हो या फिर साथी के रूप में। अगर मैं इस अधूरी कहानी के पन्नों को पूरा कर सकूं और एक कोरे कैनवास में चंद लकीरे रंगों की भर सकूं तो मैं समझूंगी कि मेरी एक बेटी होने का मैंने अपना कर्तव्य पूरा कर लिया। काव्या की बातें सुनकर चाह कर भी नीरा कुछ बोल नहीं पाई। काव्या की बातों ने उसे सोचने को मजबूर कर दिया।
अब तो धीरे-धीरे कुछ ही दिनों में काव्या ने नीरा के मन को जीत लिया। नीरा के मन में भी काव्या के प्रति वात्सल्य, अपनेपन, प्यार का बीज प्रस्फुटित हो चुका था। चंचल व निश्चल मन की काव्या की जिद के आगे उसे आखिर झुकना ही पड़ा, अपना फैसला बदलना पड़ा।
एक दिन कोर्ट में जाकर सिविल मैरिज फिर एक छोटी सी पार्टी के बाद अब वो मिस नीरा दास से मिसेज नीरा दास बजाज बन गई। बुढ़ापे में नारी को एक पुरुष के सहारे की जरूरत होती है न चाहते हुए भी उसे अपनी धारणा बदलनी पड़ी। उसके सूने मन के किसी कोने में एक बेटी की चाहत थी वो आज पूरी हो गई थी। काव्या के रूप में उसे एक प्यारी सी बेटी मिल गई।
पुर्नमिलन की इस मधुर बेला में काव्या ने अटूट रिश्तों की डोर के बंधन में बांधते हुये विश्वास, प्रेम व त्याग की ज्योति जगमगा कर अपने पापा दीप व नीरा आन्टी के रंग हीन सूने जीवन को इन्द्रधनुषी रंगों से सराबोर कर दिया।
