Bhagwan Vishnu Katha: प्राचीन समय की बात है, कान्यकुब्ज नामक नगर (वर्तमान कन्नौज) में एक ब्राह्मण रहता था । उसका नाम अजामिल था । वह बाल ब्रह्मचारी विनयी जितेन्द्रिय सत्यनिष्ठ मंत्रवेत्ता और शुद्ध हृदय का स्वामी था । वह सदा पिता गुरुजन और वृद्धों की सेवा में तत्पर रहता था ।
एक बार पिता की आज्ञा से वह वन में गया और वहाँ से फल-फूल एकत्रित कर घर की ओर चल पड़ा । मार्ग में उसकी दृष्टि एक शूद्र पर पड़ी जो शराब के नशे मैं चूर होकर एक वेश्या के साथ समागम कर रहा था । उसे इस अवस्था में देखकर अजामिल मोहित होकर काम के अधीन हो गया । उसने मन पर नियंत्रण रखने का बड़ा प्रयास किया, किंतु असफल रहा । उसकी सदाचार और ज्ञान-संबंधी चेतना नष्ट हो गई । मन-ही-मन उस वेश्या का चिंतन कर वह अपने धर्म से विमुख हो गया ।
अब वह उस वेश्या को प्रसन्न करने के लिए सुंदर-सुंदर वस्त्र और रत्नाभूषण ले जाने लगा । यहाँ तक कि उसने अपने पिता की सारी सम्पत्ति उस दुष्टा पर लुटा दी । अपने पुत्र का पतन देख उसका पिता भी अधिक दिनों तक जीवित नहीं रहा । पिता की मृत्यु के बाद अजामिल का साहस और भी बढ़ गया । उसने उस वेश्या के प्रेम में फँसकर अपनी सुंदर और पतिव्रता पत्नी का भी त्याग कर दिया ।
चरित्रहीन होने के कारण उसका सदाचार नष्ट हो गया । उसकी शास्त्र विद्या और ज्ञान समाप्त हो गया । जब उसके सामने धन का अभाव उत्पन्न हो गया तो धन का प्रबंध करने के लिए वह दुष्कर्म करने लगा । कभी वह यात्रियों को लूट लेता और कभी कपट द्वारा लोगों का धन हड़प लेता । धीरे-धीरे उसकी गिनती चोरों और डाकुओं में होने लगी । इस प्रकार दुष्कर्मों द्वारा वह अपने परिवार का पालन-पोषण करने लगा । उसकी आयु का अधिकांश भाग दुष्कर्म करते हुए बीत गया ।
अजामिल के दस पुत्र थे । उनमें सबसे छोटे का नाम नारायण था । वह उसे बड़ा प्रेम करता था । पुत्र के स्नेह बंधन में वह इतना बँध गया था कि अंत समय में भी वह ‘नारायण, नारायण’ पुकारता रहा ।
अंत समय में जब अजामिल ने देखा कि उसे ले जाने के लिए यमराज के तीन दूत आए हैं, उनके भयंकर एवं विकराल मुख विशालकाय शरीर और हाथों में पाश देखकर वह व्याकुल हो गया । यमदूतों ने उसे चारों ओर घेर लिया । उस समय बालक नारायण उसके निकट ही खेल रहा था । तब वह भयभीत होकर उसे पुकारते हुए ‘नारायण, नारायण’ चिल्लाने लगा ।
जब भगवान् विष्णु के पार्षदों ने देखा कि अजामिल मरते समय उनके स्वामी भगवान् नारायण का नाम ले रहा है, तो वे बड़ी शीघ्रता से वहाँ आ पहुँचे ।
विष्णु-पार्षदों के शरीर पर पीताम्बर और दिव्य आभूषण सुशोभित थे । उनके सिर पर मुकुट, कानों में कुण्डल और गले में सुंदर हार थे । भगवान् विष्णु के समान उनकी चार भुजाएँ थीं, जिनमें गदा शंख कमल पुष्प चक्र आदि सुशोभित थे । उनके मुख – तेज से आलोकित होकर अत्यंत सौम्य और मनोहारी प्रकट हो रहे थे । उस समय यमदूत अजामिल के शरीर से उसके प्राण खींच रहे थे । विष्णु पार्षदों ने उन्हें बलपूर्वक रोक दिया ।
कार्य में विघ्न उत्पन्न होने पर यमदूत क्रोधित होकर बोले – “अरे दुष्टो ! तुम किसके दूत हो और कहाँ से आए हो? हमारे कार्य में विघ्न डालने का तुम्हारा साहस कैसे हुआ? क्या तुम्हें मृत्युरूपी यमराज का भय नहीं है? अपना भला चाहते हो तो शीघ्र यहाँ से लौट जाओ ।”
उनकी बात सुनकर विष्णु पार्षद मुस्कराते हुए बोले – “यमदूतो ! यदि तुम सचमुच यमराज के आज्ञाकारी हो तो हमें धर्म का लक्षण और धर्म का तत्त्व बताओ । दण्ड किस प्रकार दिया जाता है? दण्ड का पात्र कौन है? कौन-सा कर्म करने पर दण्ड देना चाहिए । मनुष्यों में सभी पापा दण्ड के योग्य हैं अथवा केवल कुछ ही?“
यमदूत बोले – “वेद स्वयं भगवान् के स्वरूप हैं, इसलिए उनमें जिन कर्मों को श्रेष्ठ बताया गया है, वे धर्म कहलाते हैं और जिन कर्मों को निषेध किया गया है, वे अधर्म कहलाते हैं । जीव अपने शरीर अथवा मनोवृत्तियों द्वारा जितने कर्म करता है, उनके साक्षी सूर्य, अग्नि, आकाश, दिशाएँ, जल, पृथ्वी, वायु, चन्द्रमा आदि होते हैं । इनके द्वारा अधर्म का पता चल जाता है, और तब दण्ड के पात्र का निर्णय होता है । मनुष्य अपने कर्मों द्वारा दण्डनीय होते हैं । इस लोक में जो मनुष्य जिस प्रकार का और जितना धर्म अथवा अधर्म करता है, परलोक में वह वैसा ही फल भोगता है । यह अजामिल बड़ा पापी और दुराचारी था । इसने काम के वशीभूत होकर अपने धर्म का त्याग कर दिया । अतः हम इसे भगवान् यमराज के पास ले जाएंगे, जहाँ अपने पापों का दण्ड भोगकर यह शुद्ध हो जाएगा ।”
तब विष्णु-पार्षद बोले – “यमदूतो ! यह ब्राह्मण अपने सभी जन्मों के पापों का प्रायश्चित्त कर कल्याण का पात्र बन गया है; क्योंकि इसने अनजाने में ही सही भगवान् नारायण के नाम का स्मरण किया है । भगवान् नारायण का नाम लेने वालों के सभी पाप समाप्त हो जाते हैं । भगवान् का नाम जपने से पुण्य-फल अवश्य प्राप्त होता है ।” यह कहकर विष्णु पार्षदों ने अजामिल को यमदूतों के पाश से मुक्त कर पुनर्जीवित कर दिया । वह पुन: स्वस्थ हो गया । उसकी सद्बुद्धि जागृत हो गई ।
अपने पापों को याद कर अजामिल को बड़ा पश्चात्ताप होने लगा । उसके मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया । वह अपना घर-परिवार त्याग कर हरिद्वार चला गया और स्वयं को विषय भोगों से हटाकर भगवान् के चरणों में लीन कर लिया ।
इस प्रकार कठोर तपस्या करते हुए अनेक वर्ष बीत गए । अंत में जीवन-मृत्यु के चक्र से मुक्त होकर वह भगवान् नारायण द्वारा भेजे गए दिव्य विमान में बैठकर उनके परमधाम को सिधार गया । यह था भगवान् विष्णु के नाम स्मरण का फल ।
ये कथा ‘पुराणों की कथाएं’ किताब से ली गई है, इसकी और कथाएं पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं – Purano Ki Kathayen(पुराणों की कथाएं)
