murkh bandar, hitopadesh ki kahani
murkh bandar, hitopadesh ki kahani

Hitopadesh ki Kahani : मगध देश की बात है। वहां धर्मवन के निकट की भूमि पर शुभदत्त नाम के एक कायस्थ ने विहार बनवाना आरम्भ किया। उसी कार्य के लिए दो बढ़ई एक बहुत बड़ी लकड़ी को आरे से चीर रहे थे । मध्यान्ह के भोजन का जब समय हुआ तो जहां तक वह लकड़ी चीरी गई थी वहां पर एक लकड़ी की कील ठोक कर उन्होंने आरी को निकाल लिया और भोजन करने के लिए अपने घर को चल दिये।

सब श्रमिकों के चले जाने पर कहीं से वानरों का एक समूह उछलता कूदता उधर निकल आया। कोई कहीं बैठ गया तो कोई कहीं कूदने – फांदने लगा। भाग्य का मारा एक बन्दर उस लकड़ी पर ही बैठ गया जो अधचिरी थी और उसमें कील ठुकी हुई थी।

“बन्दर का एक भाग चीरी हुई लकड़ी के एक ओर को था तो दूसरा भाग दूसरी ओर को। उसके अण्डकोश उन दोनों के बीच में लटक गये। बन्दर उस कील से खेलता-खेलता उसको उखाड़ने लगा। थोड़ा प्रयत्न करने पर कील तो उखड़ गई किन्तु उसके अण्डकोश दब गये। लाख यत्न करने पर भी अण्डकोश निकल नहीं सके और थोड़ी देर बाद उस बन्दर का उसी अवस्था में प्राणान्त हो गया।

“इसीलिए मैंने कहा कि बिना प्रयोजन के काम करने से लाभ नहीं।”

यह सुनकर दमनक कहने लगा, “फिर भी सेवक को चाहिए कि वह अपने स्वामी की चेष्टाओं को अवश्य देखता रहे।”

करटक ने कहा, “जिसको सब अधिकार दिये गये हैं वह प्रधानमंत्री ही यह करे। हमें उसके अधिकार की चर्चा करने की आवश्यकता नहीं है।

“कहा भी गया है कि जो प्राणी स्वामी की भलाई के लिए पराये अधिकार का कार्य स्वयं करता है उसको बाद में उसी प्रकार दुखी होना पड़ता है जैसे कि चीत्कार करने से वह गधा मारा गया था।”

दमनक ने पूछा, ” वह किस प्रकार ?” करटक ने कहा, “सुनाता हूं, सुनो।”