panchtantra ki kahani शरारती बंदर की मुसीबत
panchtantra ki kahani

दक्षिण दिशा में किसी नगर में एक व्यापारी रहा था । व्यापारी धार्मिक स्वभाव का था । एक बार उसके मन में आया कि मुझे देव मंदिर का निर्माण करवाना चाहिए । उसने मित्रों और परिवार वालों से कहा, तो सबने खुशी प्रकट की । कहा कि यह नेक काम तो जितनी जल्दी हो जाए उतना अच्छा है ।

उसी समय व्यापारी ने उचित स्थान देखा और मंदिर का निर्माण-कार्य शुरू करवा दिया । वहाँ ईंटें, पत्थर, लकड़ी का सामान और निर्माण-कार्य में काम आने वाली दूसरी ढेर सारी चीजें पड़ी थीं । दर्जनों मजदूर और कारीगर बड़े उत्साह से मंदिर के निर्माण में जुटे थे । वे दिन भर काम करते, फिर दोपहर को खाना खाकर कुछ देर विश्राम करते ।

पर जिस स्थान पर मंदिर का निर्माण हो रहा था, वहीं आसपास बंदरों की एक टोली भी रहती थी । जिस समय कारीगर छाया में विश्राम कर रहे होते, शरारती बंदरों की टोली वहाँ आकर खूब उपद्रव करती । कुछ बंदर पत्थरों के ढेर पर चढ़कर कूदते तो कुछ वहाँ पहुँच जाते, जहाँ लकड़ी का काम चल रहा था । और फिर उनकी ऊधमबाजी और अजीबोगरीब शरारतें शुरू हो जातीं । एक दिन की बात, बंदरों की टोली इसी तरह अजीबोगरीब करतब और शरारतें कर रही थी । तभी अचानक एक बंदर का ध्यान लकड़ी के तख्ते की ओर गया । उस तख्ते को बीच से चीरकर उसमें एक बड़ी सी कील फँसा दी गई थी । शरारती बंदर को अब यह नया खेल सूझ गया । वह अब बीच से चीरे गए उस लकड़ी के तख्ते में से कील निकालने के काम में जुट गया । लेकिन कील भी अंदर तक फंसी हुई थी । वह भला इतनी आसानी से कैसे निकल जाती?

बंदरों के मुखिया ने उसे रोका । कहा, “भाई ऐसा न करो । इससे तुम्हें खामखा चोट लग सकती है । “

इस पर शरारती बंदर बोला, “असल में मैं देखना चाहता हूँ कि इस तख्ते में यह कील क्यों गाड़ी गई है । और इसे निकालने पर होता क्या है?”

इस पर बंदरों का मुखिया चुप हो गया ।

ऊधमी बंदर अपने काम में लगा रहा । आखिर उसने अपनी पूरी ताकत लगाकर उस कील को खींचा तो कील तो बाहर आ गई । लेकिन साथ ही उस चीरे हुए तख्ते के दोनों हिस्से एकाएक तेजी से मिले और बंदर के शरीर का पिछला हिस्सा उसमें आ गया । बंदर के अंग कुछ इस बुरी तरह कुचले गए कि वह जोर से चिल्लाया, “हाय, हाय, मरा । बचाओ.. .बचाओ!”

पर मजदूर तो दूर विश्राम कर रहे थे तो भला कौन उसे बचाने के लिए आता? और थोड़ी ही देर में बंदर के प्राण-पखेरू उड़ गए । हाँ, उसके चेहरे पर अब भी एक गहरे पछतावे की छाया थी कि मैंने बेकार अपनी शरारतों से यह मुसीबत मोल ले ली । मुझे खामखा बिना चीजों को देखे-परखे इतनी छेड़छाड़ करने की क्या जरूरत थी?